स्वतंत्रता के बाद से हिन्दी फिल्मों में एक विशेष बदलाव देखने को मिला। कहानियों में ब्राम्हण पात्र को बुरा दिखाया जाने लगा। उसे धनलोलुप, कामी, व्यभिचारी के रूप में प्रस्तुत किया गया। बाद के वर्षों में ब्राम्हण की अच्छी छवि कहीं गुम हो गई। आज की तारीख में हिन्दी फिल्मों में ब्राम्हण पात्र सौ फीसदी बुरे बनाए जाने लगे हैं। हाल ही में प्रदर्शित ‘ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान’ में एक पात्र ‘शनिचर’ को शराब का आदी दिखाया गया है। हिन्दी फिल्मों में भले ही ब्राम्हण को बुरा दिखाया जाने लगा हो लेकिन दक्षिण भारतीय सिनेमा ऐसा नहीं सोचता। तमिल फिल्मों में ‘ब्राम्हण पात्र’ अच्छे भी दिखाए जाते हैं। 2017 की ब्लॉकबस्टर तेलगु फिल्म ‘डीजे’ एक गरीब ब्राम्हण की ही कथा है। ‘डीजे’ का फुलफॉर्म होता है ‘दुवादा जगन्नधम’। दुवादा जगन्नधम शास्त्री जाति से ब्राम्हण है। गरीब डीजे रसोइया है और धर्म का पक्का है।
अपने धर्म की सभी परम्पराओं का निर्वाह बखूबी करता है। एक दिन वह एक बड़े पुलिस अधिकारी को हमले से बचाता है। पुलिस अधिकारी को उस निरे ब्राम्हण में एक धुंआधार लड़ाके के दर्शन होते हैं। डीजे अंडरकवर कॉप बनकर समाज की सेवा करता है। एक अत्यंत मनोरंजक फिल्म में ब्राम्हण के चरित्र को जिस ढंग से उभारा गया है वह प्रशंसनीय है।
डीजे के अधिकांश एक्शन सीक्वेंस ‘पुरोहित’ की वेशभूषा में फिल्माए गए हैं। धोती पहनकर जनेऊ धारण किये नायक को लड़ते देख एक सुखद अनुभव होता है। ये फिल्म पचास करोड़ के बजट में बनाई गई थी। फिल्म ब्लॉकबस्टर रही और इसने 120 करोड़ का व्यवसाय किया। धोती पहनकर गुंडों को पीटते देखना दर्शक के लिए सर्वथा नया अनुभव था और उसने इसे हाथोहाथ लिया। दक्षिण के सुपरस्टार अल्लू अर्जुन ने डीजे की भूमिका निभाई थी जो बेहद पसंद की गई।
दक्षिण भारतीय सिनेमा के ठीक विपरीत हिन्दी सिनेमा में ब्राम्हण का किरदार बुरा दिखाए जाने की वजह वे लोग हैं, जिन्होंने सुनियोजित ढंग से समाज में ‘ब्राम्हण’ की छवि की हत्या की। ये कोई आज से नहीं हुआ है। स्वतंत्रता के बाद बनने वाली हर दूसरी फिल्म में ‘ब्राम्हण’ बुरा दिखाया जाने लगा। ख़ास तौर से अस्सी के दशक की आर्ट फिल्मों में इस पात्र को बहुत बुरा दिखाया गया। समानांतर सिनेमा में जनेऊ धारण किये ब्राम्हण को खलनायक दिखाना फैशन की तरह हो चला था।
डीजे जैसी फिल्मे समाज में सुखद अनुभूति लेकर आती है। ऐसा नहीं है कि ब्राम्हण अच्छे ही होते हैं। वे बुरे भी होते हैं। वैसे ही दूसरे धर्मों के पुजारियों के लिए भी यही बात कही जा सकती है। फिर हिन्दी फिल्मों में पुजारी/ब्राम्हण को खलनायक दिखाने की प्रथा क्यों शुरू कर दी गई। देखा गया है कि खान बंधुओं की फिल्म में ब्राम्हण का किरदार हमेशा ही इस तरह का बनाया जाता है। आमिर की ताज़ा फिल्म में एक किरदार ‘शनिचर’ चोटी धारण करता है लेकिन उसे शराब की बुरी लत है।
समाज में ब्राम्हण की छवि के लिए एक नैरेटिव सेट कर दिया गया है। सिनेमा इस नैरेटिव को और मजबूत बना रहा है। तेलगु फिल्म ‘डीजे”इस नैरेटिव को तोड़ने में सहायक हो सकती है यदि ऐसी अच्छी फिल्मों का और ज्यादा निर्माण किया जाए। ‘डीजे’ बहुत बड़ी हिट साबित हुई है। इसका मतलब है कि दक्षिण भारतीय समाज में ब्राम्हण को इतना बुरा नहीं समझा जाता जितना उसे हिन्दी फिल्मों में दिखाया जाता है। हालांकि दाऊद के प्रभाव से संचालित हिन्दी फिल्म उद्योग में कोई निर्देशक ‘डीजे’ जैसी फिल्म बनाने के बारे में सोच भी नहीं सकता।
URL: Although Brahmin shown bad in bollywood films, tollywood cinema does not think so.
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