पंडित मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित सचित्र साप्ताहिक अभ्युदय में प्रकाशित अटल बिहारी वाजपेयी जी की कविता, 11 फरवरी 1946
नौ अगस्त सन बयालीस का लोहित स्वर्ण प्रभात,
जली आंसुओं की ज्वाला में परवशता की रात।
कारा के कोने कोने से कड़ियों की झनकार,
ऊब उठे सदियों के बंदी, लगे तोड़ने द्वार।
सुप्त शांत सागर में उठा महाप्रलय का ज्वार,
काले सिंहों की मांदो में आया गोया स्यार।
करो या मरो, भारत छोड़ो घन-सा गर्जा गांधी,
वृद्ध देश का यौवन मचला, चली गजब की आंधी।
गौरी शंकर के गिरी-गहर गूंजे ‘भारत छोड़ो’
गृह-आंगन-वन-उपवन कूजे ‘भारत छोड़ो’।
कुलू-कांगड़ा की अमराई डोली भारत छोड़ो,
विंध्यांचल की शैल-शिखरियाँ बोली भारत छोड़ो।
कोटि कोटि कंठों से निकला भारत छोड़ो नारा,
आज ले रहा अंतिम सांसें यह शासन हत्यारा।
सन सत्तावन से करते विप्लव की विप्लव प्रतिज्ञा,
सभी ले चुके अज़्ज़ादी हिट मर मरने की दीक्षा।
स्वतत्रता का युद्ध दूसरा, बजी समर की भेरी-
लानत कोटि कोटि पुत्रों की मां कहलाये चेरी।
सर पर कफ़न बांध कर निकली सरि-सी मस्त जवानी,
एक नया इतिहास बनाने, गढ़ने नयी कहानी।
सागर सी लहराती आयी मतवालों की टोली,
महलापरलय के बादल गरजे इंकलाब की बोली।
माताओं ने निज पुत्रों के माथे पर दी रोली,
और पुत्र ने गोली खाने हित छाती खोली।
बहिन वसंती बाने में सजी लगी जोहर सुनने,
स्वतंत्रता के दीपक पर जलते पागल परवाने।
कैसी विअकल प्रतीक्षा, आंखें राह देखते हारी,
लाल न आया, रीत गयी मां के नयनों की झारी।
सारा देश विशाल जेल या कौन सींकचे तोड़े,
पूर्व दिशा से आकर कोई अग्निबाण तो छोड़े।
बापू बंदी, बंद पींजड़े में था शेर जवाहर,
बंग भूमि का लाल न आया एक बार भी जाकर।
महादेव सा भाई खोया बा सी जननी खोई,
सकल देश की आंखें गंगा-जमुना बन रोई।
क्रूर काल ने विजयलक्ष्मी का सुहाग भी लूटा,
क्या भू लुंठित भारत का था भाग्य पूर्ण ही फूटा।
बुझी राख में धधक रहे थे अब तक भी अंगारे,
तड़िताघात बुझा न सकेगा नभ के जगमाज तारे।
तुन्हें कसम है आजादी पर मर मिटने वालों की,
तुम्हें कसम है फांसी पर चढ़ने वाले लालों की।
राज नारायण की फांसी क्या यों ही रह जायेगी,
विद्या के नयनों की सरिता यों ही बह जायेगी।
इधर निहत्ते भूखे नंगे भिखमंगे कंगाल,
और उधर सश्त्रो से सज्जित यह साम्राज्य विशाल।
किन्तु शलभ ने कब देखी कितनी दीपक की ज्वाला,
उसने तो पाया जल मरने वाला मन मतवाला।
हत भुजंग सा, अपमानित सतीत्त्व सा भारत जागा,
राष्ट्र-यज्ञ में जो न दे सका आहुति बड़ा अभागा।
स्वतंत्रता की अमर प्रतिज्ञा, हुई साधना पूरी,
गोली बन कर फुट पढ़ी तब शासन की मजबूरी।
कितने कुसुम कुमार अविकसित ही डाली से टूटे,
कितनी कोमल कलियों के सौभाग्य नियतिने लूटे।
कितने घर के दीपक अंधकार में खोये,
कितनी मां के लाल लाडले चिर-निंद्रा में सोये।
एक नहीं देखें हैं सौ सौ जलियां वाले बाग़,
अभी न सूखे हैं, कभी न सुखें, वहां खून के दाग।
गोरी नौकरशाही की है सब करतूतें काली,
गर्हित पापो का पीला है नहीं तनिक भी खाली।
दमन दुधारा चला, न शोणित का सागर रुक पाया
क्या फौलादी यौवन बर्बर चोटें का झुक पाया?
शोषित पीड़ित की आहों से क्या रुकते तूफ़ान,
मिटते हैं अरमानो वाले क्या मिटते अरमान?
मिटी हस्तियां, लूटी बस्तियां, ग्राम हाट सुनसान,
मिटी न आज़ादी पर मर मिटने की चाह महान।
नगर-नगर की डगर-डगर में इंकलाब की आग,
उठे मरघटों कोई राखों से उजड़े हुए सुहाग।
सुलग उठा विधवा दिल्ली के माथे का सिंदूर,
अरि सोनित से मांग भरे जान का दिन क्या दूर।
हा! महेंद्र की हत्या का है रक्त अभी तक गीला,
प्राची तो रंग गई रुधिर से आसमान क्यों नीला।
लगे देश की छाती पर है गहरे घाव हजार,
गिन-गिन कर लेना है सबका बदला अंतिम बार।
अत्याचारों के अंबारों में अंगार लगा दो,
शीश दान की शुभ बेला में घर-घर अलख जगा दो।
हमें याद आज द हिंद का सैनिक वीर लड़ाका,
नौकरशाही कर पाएंगी उसका बाल न बांका।
आज लबालब भरा देश के अपमानों का प्याला,
आंसू के सागर में सुलगी है बड़वा की ज्वाला।
जला नहीं प्रह्लाद होलिका क्षार हो गई क्षण में,
सुनो प्रसून की अगवानी का स्वर उन्चास पवन में।
स्वतंत्रता का युद्ध तीसरा सभी ले रहे दीक्षा,
आज साधना पूर्ण कर रहे होगी सफल प्रतीक्षा। (अटल बिहारी वाजपेयी)
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