रोहित सरदाना। कहते हैं सिनेमा समाज का आईना होता है, ठीक वैसे ही जैसे साहित्य समाज का आइना होता है। फिर ये आइना अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने की छूट कैसे दे देता है?
“यहां प्रताप का वतन पला है आज़ादी के नारों पे,
कूद पड़ी थी यहां हज़ारों पद्मिनियां अंगारों पे.
बोल रही है कण कण से कुर्बानी राजस्थान की”
फिल्म के लिए रिसर्च करते समय संजय लीला भंसाली ये नहीं पढ़ा या सुना था क्या? भाई पद्मिनी पे पिक्चर बना रहे थे तो मलिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत भी पढ़ा ही होगा। जब इतिहास के हर दस्तावेज़ में पद्मिनी को जगह ही इस लिए मिली कि वो अलाउद्दीन खिलजी के आने के पहले हज़ारों औरतों के साथ आग में कूद गई, तो कौन से ‘अल्टरनेट व्यू’ से आप खिलजी और पद्मिनी को प्रेम कहानी के खांचे में ढाल रहे हैं? और अगर ‘अल्टरनेट व्यू’ के नाम पे कुछ भी जायज़ है तो फिर विरोध के ‘अल्टरनेट’ तरीके पर इतना हंगामा काहे के लिए है?
करनी सेना ने संजय लीला भंसाली के साथ सही नहीं किया, लेकिन करनी सेना जैसे संगठनों को ताकत कहां से आती है? उसी बॉलीवुड से आती है, जो संजय लीला भंसाली को थप्पड़ पड़ने पे तो अभिव्यक्ति की आज़ादी चिल्लाने लगता है, लेकिन ए आर रहमान के खिलाफ़ फतवा आने के बाद मुंह ढंक कर सोया रहता है।करनी सेना को ताकत उस कोर्ट से आती है जो जल्ली कट्टू को जानवरों पर अत्याचार मान कर बैन कर देता है, लेकिन बकरीद के खिलाफ़ याचिका को सुनने से ही इंकार कर देता है!
करनी सेना को ताकत उस सिस्टम से मिलती है जो एम एफ़ हुसैन को हिंदू देवी देवताओं की अश्लील तस्वीरें बनाने पर तो सुरक्षा मुहैया कराता है लेकिन चार्ली हेब्दो वाला कार्टून अपने पब्लीकेशन में छापने वाली औरत को दर दर धक्के खाने के लिए मजबूर कर देता है। गुंडागर्दी जायज़ नहीं है! लेकिन अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर अपनी ‘इंटेलेक्चुअल गुंडागर्दी’ भी तो बंद कीजिए!
साभार: रोहित सरदाना की फेसबुक वॉल से