धर्मपद धर्म का वह मार्ग है, जिसका बुद्ध के शिष्य अनुसरण करते हैं।
बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं में मन पर बहुत अधिक जोर दिया है। उन्होंने कहा है, सब प्रवृत्तियों का आरंभ मन से होता है, वे मनोमय होती हैं, मन द्वारा संचालित होती हैं। मन ही चरम सुख या विकार का स्रोत हैं।
मनुष्य स्वय पाप करता है, स्वयं दुख पाता है, वह स्वयं ही पाप का परिहार करता है, स्वयं ही शुद्ध होता है। शुद्धता और अशुद्धता अपने पर निर्भर है, कोई दूसरे को शुद्ध नहीं कर सकता।
तुम स्वय प्रयत्न करो। तथागत तो केवल उपदेशक हैं। धर्म के मार्ग पर आने वाले ध्यानी मार के बंधन से छूट जाते हैं।
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जागने के समय पर जो नहीं जागता, युवा और बलवान होने पर भी जो आलस्य से भरा रहता है, जिसकी संकल्प शक्ति और बुद्धि निर्बल है, ऐसा आलसी और निष्क्रिय मनुष्य कभी प्रबोधन का मार्ग नहीं पाता।
यदि मनुष्य अपने से प्रेम करता है तो अपनी अच्छी तरह रक्षा करे। सत्य उसकी रक्षा करता है, जो अपनी रक्षा करता है।
नोटः यह धम्मपद, पॉल कारुस लिखित ट्टबुद्ध गाथा’ से लिया गया है।
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बुद्ध का धम्मपद – मन ही चरम सुख या विकार का स्रोत है