भले चीन के साथ हमारे कूटनीतिक रिश्ते बहुत फलदायी नहीं रहे हों लेकिन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान को आंकना उचित नहीं होगा। क्योंकि जो 62 का दौर था या फिर नेहरू के साथ चीन का रवैया रहा उसे बीते सालों गुजर चुके हैं। तब से अब तक गंगा और ब्रह्मपुत्र में बहुत पानी बह चुका है। दूसरी बात यह कि यह भाजपा और मोदी का दौर है। अगर मोदी दोस्ती निभाना जानते हैं तो वह दुश्मनी भी पूरी शिद्दत से निभाते हैं। मोदी के इस चीन दौरे को इसलिए खारिज कर देना कि यह एक अनौपचारिक दौरा है जायज नहीं होगा। मोदी का यह दौरा भले ही अनौपचारिक है लेकिन चीन के साथ नए संबंध के आगाज के लिए यह दौरा मील का पत्थर साबित होगा। वैसे भी कूटनीति में कहा ही जाता है कि औपचारिक समझौते की नींव तो अनौपचारिक व्यवहार से ही बनती और बिगड़ती है।
मुख्य बिंदु
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पहली बार किसी देश के शासनाध्यक्ष को राजधानी से बाहर जाकर आगवानी की है
निर्धारित 20 मिनट के बदले दोनों नेताओं ने संग्रहालय में बिताए 40 मिनट से अधिक समय
अगर चीन के साथ 1962 में हुई लड़ाई को जवाहर लाल नेहरू की कूटनीतिक विफलता का परिणाम कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह कूटनीतिक दिवालियापन के साथ ही सामरिक कमजोरी को दर्शाता है। विदेश नीति के फ्रंट पर पूर्व प्रधानांभी नेहरू की कूटनीति कमजोर थी। वहीं कृष्ण मेनन के नेतृत्व में रक्षा विभाग भी हमारी सेना के उत्साह पर ही टिका था। रक्षा विभाग में भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बावजूद नेहरू ने मेनन को रक्षा मंत्री बना रखा था। एक आरोप तो यह भी लगता है कि चीन ने अपनी सुंदरियों की जाल में मेनन को फंसा रखा था। हार का एक कारण यह भी माना जा रहा है। दूसरी बात यह थी कि नेहरू ने बिना किसी सामरिक तैयारी के भारतीय सेना को एक सुलभ प्यादे की तरह युद्ध की आग में झोंक दिया। इसकी झलक आज भी कांग्रेस शासन में दिखती है। नेहरू की ही तरह कांग्रेस सेना को कभी सामर्थ्यवान बनाने के लिए कदम नहीं उठाती।
इस दौरे की सबसे खास पक्ष जो रहा है वह यह कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने एक ही दिन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का देश की राजधानी से बाहर जाकर दो-दो बार स्वागत किया। देश के प्रधानमंत्री के प्रति चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का यह सम्मान भविष्य के प्रति भरोसा दिखाता है। असल कूटनीतिक जीत यही होती है कि दोनों राष्ट्रों का भविष्य भरोसेमंद हो। इसी आधार पर पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की चीन के प्रति कूटनीति असफल रही। जिसका परिणाम हमे चीन के दगा के रूप में 1962 का युद्ध मिला। क्योंकि नेहरू की कूटनीति भविष्य में भरोसे लायक नहीं साबित हुई।
लेकिन इस बार समय सापेक्ष राजनीति और कूटनीति दोनों चल रही है। तभी तो मोदी ने अपने चीनी समकक्ष को इसी पारूप के तहत भारत दौरे पर आने का निमंत्रण दिया है। आइये जानते हैं कि इन दो शासनाध्यक्षों के बीच हुई वार्ताओं से क्या सकारात्मक असर पड़ने वाले हैं।
एक नई परंपरा की शुरुआत का आह्वान
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के अपने इस अनौपचारिक दो दिवसीय दौरे से जहां एक नई पहल की शुरुआत की है वहीं चीन समेत पूरी दुनिया से इस पहल को परंपरा बनाने का आह्वान भी किया है। किसी दो राष्ट्राध्यक्षों के बीच इस प्रकार की अनौपचारिक बातचीत इतिहास में पहली बार हुई है। मोदी की यह पहल और उसका इतनी गर्मजोशी से स्वागत निस्चित रूप से भारत और चीन को एक दूसरे के प्रति भरोसेमंद बनाएगा।
मोदी के स्वागत के लिए टूटी चीन की परंपरा
किसी भी दूसरे राष्ट्र के राष्ट्राध्यक्षों का स्वागत चीन के राष्ट्रपति जी जिनपिंग देश की राजधानी बीजिंग में ही करते हैं। लेकिन मोदी के स्वागत के लिए उन्होंने अपनी ये परंपरा भी तोड़ दी। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी का स्वागत बीजिंग के बजाय वुहान में किया। नए शहर में नए रिश्ते की कहानी लिखने के लिए परंपराओं का टूटना जरूरी भी होता है। मोदी ने जिनपिंग को इसके लिए धन्यवाद भी दिया कि राजधानी से बाहर आकर उनकी आगवानी की। जिनपिंग को मोदी के आगवानी के लिए दो बार राजधानी से बाहर निकलना पड़ा। बिना भरोसे और दिलचस्पी के कोई अपना कीमती समय खर्च नहीं करता।
बातचीत के दौरान दिखी अद्भुत गर्मजोशी
वैसे भी मोदी और जिनपिंग की कई मुलाकात हो चुकी है। इसके बाद भी बातचीत में जितनी गर्मजोशी दिखी है इससे स्पष्ट है कि अब दोनो देशों का संबंध समानता के आधार पर दीर्घायु होने वाला है। मोदी और जिनपिंग ने काफी मित्रवत माहौल में देश दुनिया के मुद्दों पर चर्चा की। दोनो राष्ट्राध्यक्षों के बीच निकटता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि संग्रहालय में महज 20 मिनट रुकना निर्धारित हुआ था लेकिन दोनों नेता 40 मिनट से अधिक वहां साथ रहे।
दोनों देशों के बीच विवादित मुद्दों पर बनी सहमति
चूंकि यह दौरा औपचारिक नहीं था इसलिए कोई औपचारिक समझौता हुआ भी नहीं। लेकिन दोनों नेताओं ने हर विवादित मुद्दों पर खुलकर चर्चा की। वह चाहे दोनों देशों के बीच सीमा विवाद हो या फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद का मुदा हो हर विषय पर खुलकर चर्चा हुई। मोदी और जिनपिंग ने अफगानिस्तान मामले पर भी बातचीत की। बताया जा रहा है अब अफगानिस्तान में भारत और चीन ने मिलकर काम करने पर अपनी सहमति जताई है।
सीमा विवाद पर भी दोनों ने एक दूसरे पर जताया भरोसा
सीमा विवाद पर भी शी जिनपिंग और मोदी ने बात की। बताया जा रहा है कि दोनों ने विशेष प्रतिनिधियों द्वारा विवाद का बेहतर हल तलाशने का समर्थन किया है। इसके अलावा 2005 में तय पैरामीटर के आधार पर ही सेकेंड स्टेज में बात होगी। इसके अलावा दोनों नेताओं ने सेना में तालमेल बढ़ाने पर भी जोर दिया। मोदी और जिनपिंग ने अपने सीमावर्ती इलाकों में शांति बनाए रखने पर भी बल दिया। दोनों के बीच डोकलाम जैसी स्थिति दुबारा उत्पन्न न होने पर भी बल दिया।
शी जिनपिंग को अनौपचारिक बैठक का दिया न्यौता
चीन के राष्ट्रपति से भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कई मुलाकातें हो चुकी है। दो पक्षीय दौरे के अलावा कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी। मोदी ने अपने इस दौरे को दौरान शी जिनपिंग को साल 2019 में इस प्रकार के आनौपचारिक बैठक के लिए भारत आने का न्यौता दिया है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इन अनौपचारिक दौरे को चीनी मीडिया ने भी काफी महत्व दिया है। मोदी के इस दौरे को ऐतिहासिक महत्व का बताया गया है। दोनों नेताओं के मीडिया कवरेज से पता चलता है कि इस अनौपचारिक दौरे से दोनों देशों के बीच संबंध कितने मजबूत हुए हैं।
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