12 सितंबर 2016 के दैनिक जागरण राष्ट्रीय अखबार के पेज-7 पर एक खबर पढ़ी। पढ़कर काफी दुख हुआ। खबर इस देश की न्यायपालिका से जुड़ा था और बयान देश के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश टी.एस.ठाकुर ने दिया था। छत्तीसगढ़ स्टेट ज्यूडिशियल अकादमी कांफ्रेंस में बोलते हुए मुख्य न्यायाधीश टी.एस.ठाकुर ने कहा कि ‘जिला न्यायालय के आदेश सुप्रीम कोर्ट तक आते हैं, इसलिए निर्णय अंग्रेजी में देना चाहिए!’
उन्होंने आगे कहा- ‘हिंदी हमारी मातृभाषा है। इसका सम्मान करना चाहिए, लेकिन इसके साथ अंग्रेजी सीखने में कोई खराबी नहीं है। निचली अदालतों के आदेश हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट तक आते हैं, इसलिए जजों को अंग्रेजी में आदेश लिखना चाहिए!’संयोग देखिए, रस्मी तौर पर हर साल मनाया जाने वाला हिंदी दिवस इसके दो दिन बाद ही 14 सितंबर को होना है और देश के मुख्य न्यायाधीश अपनी व अपनी उच्च न्यायाधीश बिरादरी की सुविधा के लिए निचली अदालतों से हिंदी को गौण करने की एक तरह से वकालत कर रहे हैं!
छोडि़ए, हिंदी को गोली मारिए! यह एक ऐसी भाषा है, जिसे न किसी सरकार की जरूरत है न किसी न्यायपालिका की! इसमें वह ताकत है कि यह खुद ही बढ़ती हुई आज दुनिया की सबसे बड़ी भाषा बन गई है! सवाल दूसरा है! और यह सवाल न्याय से जुड़ा है! आम जनता के न्याय से! जिसे न्याय देने के नाम पर यह तमाम ताम-झाम खड़ा किया गया है, उसे उस न्याय की ‘फिरंगी भाषा’ की समझ ही नहीं है! एक व्यक्ति को छोटी सजा मिलनी है, या उम्रकैद मिलना है या फिर फांसी मिलनी है, लेकिन उसे पता ही नहीं है कि उसका पक्ष अदालत में रखा भी गया है कि नहीं? वह केवल मुंह ताकत है! एक बार अदालत में जिरह करते काले कोट वाले दो व्यक्तियों की ओर देखता है और दूसरी बार काले कोट में ही अदालत के उंचे आसन पर बैठे जज की ओर टकटकी लगाए, आंख फाड़े ताकता रहता है! जज सजा सुना देता है या फिर बरी कर देता है, यह भी उसे तब तक पता नहीं चलता, जब तक कि उसका वकील उसे उसकी भाषा में इसके बारे में नहीं बताता!
कानून अंधा है, इसकी जानकारी तो न्याय की देवी की आंखों पर बंधी पट्टी से पता चलता ही है, वह आम जनता की भाषा न समझते हुए बहरा भी है- यह भी जग जाहिर ही है! निचली अदालतों में कानून की देवी की कान थोड़ी खुली हुई थी, क्योंकि वहां हिंदी या अन्य स्थानीय भाषा में जिरह होता था और उसी भाषा में जज महोदय निर्णय लिखते थे! लेकिन अब तो भारत के मुख्य न्यायाधीश माननीय टी.एस ठाकुर जी ने निचली अदालत को भी बहरा बनाने का अलिखित फरमान जारी कर दिया है!
आप देखिए न हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट में न्याय की देवी पहले से ही बहरी है! उसे जनता की भाषा समझ नहीं आती, इसलिए कोई अभियुक्त चाह कर भी उसे अपनी भाषा मंे बात समझा नहीं सकता! वह उस काले कोट वाले व्यक्ति पर निर्भर है, जो पता नहीं पैसा उससे ले कर उसकी बात सही ढंग से जज साहब को समझा भी रहा है कि नहीं!
संविधान एक तरफ तो अनुच्छेद- 29 के जरिए किसी भी नागरिक को भाषा आदि के आधार पर भेदभाव से बचाने की बात कहता है, वहीं अनुच्छेद- 348 के जरिए उच्च व उच्चतम न्यायालयों में सभी कार्यवाहियों को अंग्रेजी भाषा में करने की बात भी दोहराता है! कमाल है! खैर, लेकिन संविधान निचली अदालतों में अंग्रेजी की अनिवार्यता नहीं थोपता, जिसे वर्तमान मुख्य न्यायाधीश अप्रत्यक्ष रूप से थोपने की कोशिश कर रहे हैं!
माननीय यह भी भूल गए कि न्याय का पहला सिद्धांत है कि किसी निर्दोष को सजा न हो! लेकिन जब अभियुक्त पर लगाए आरोप और उस पर अंग्रेजी में चली जिरह की उसे समझ ही नहीं है तो फिर उसके मूल अधिकार की रक्षा कैसे हुई? माननीय मुख्य न्यायाधीश महोदय को उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय के जज बिरादरी की चिंता तो हुई कि जिला अदालतों द्वारा हिंदी में दिए निर्णय वह पढ़ नहीं पाते, लेकिन उन्हें उस आम जनता की जरा भी चिंता नहीं हुई, जिसके लिए वह निर्णय लिखा जा रहा है और जो अंग्रेजी भाषा नहीं समझ पाने के कारण अपने पर लगाए गए आरोपों का न तो जवाब दे सकता है एवं न ही जिंदगी व मौत के लिए हो रही अदालती बहस को ही वह समझ सकता है!
माननीय मुख्य न्यायाधीश महोदय ने वर्तमान में केंद्र सरकार से एक रार ठान रखी है, कॉलेजियम सिस्टम को लेकर। जनता का प्रतिनिधित्व करती हुई संसद ने एक व्यवस्था दी कि कॉलेजियम सिस्टम में अप्रत्यक्ष रूप से जन भागीदारी भी होगी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट की जिद है कि वह उसी व्यवस्था को फॉलो करेगा, जिसमें एक जज ही जज का चुनाव करता है, हालांकि संसद द्वारा पारित व्यवस्था में मुख्य न्यायाधीश सहित जजों को भी शामिल किया गया है, लेकिन यह इन्हें मंजूर नहीं है!
दरअसल न्यायपालिका आम जनता के साथ अछूत की तरह व्यवहार करती आई है! न वह जनता की भाषा में बात करना चाहती है, न जनता की भाषा में सोचना चाहती है, न जनता के प्रतिनिधित्व को अपने कॉलेजियम में जगह देना चाहती है और न ही लोकतंत्र के अन्य स्तंभों को ही वह उस तरह का सम्मान देती है, जो उसे देश से मिल रहा है! हम अभिव्यक्ति की आजादी का उपयोग अन्य स्तंभों की बुराईयों को उजागर करने के लिए तो कर सकते हैं, लेकिन न्यायपालिका की बुराईयों को उजागर करने के लिए नहीं! वह कब हमको-आपको मानहानि में जेल के अंदर कर दे, कोई भरोसा नहीं! अभी इसी लेख के लिए चाहें तो माननीय मुख्य न्यायाधीश इस लेखक को जेल की हवा खिला सकते हैं! यह मानहानि पुराने जमाने के राजा की तरह दैवीय अधिकारों से परिपूर्ण है, जो आम लोगों की न्यायपालिका के प्रति सोच पर भी लगाम लगा देता है!
बॉलिवुड स्टार सलमान खान हों, आतंकी याकूब मेनन हों, एनजीओ किंग तीस्ता सीतलवाड़ हो, या बिहार के डॉन मोाहम्मद शाहबुद़दीन हों- धनबल वाले लोग के लिए अदालतें रात के दो बजे भी अपना दरवाजा खोलती हैं, सजा सुनाए जाने के कुछ घंटों में ही जमानत भी दे देती हैं और एनजीओ किंग को सरकारी पूछताछ से बचाने व उनकी गिरफतारी को टालने का इंतजाम भी करती हैं! दूसरी तरफ आम जनता को देखिए, एक फौजदारी मुकदमा लड़नें में घरों के घर बिक जाते हैं, पीढि़यों की पीढि़यां तबाह हो जाती है- सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायधीश को इस पर आंसू बहाते आपने कभी देखा है! देख भी नहीं सकते! इसके लिए किसी फुर्रसत है भला! माननीय मुख्य न्यायधीश महोदय से यह विनम्र आग्रह है कि हम आम जनता पहले से ही व्यवस्था की ठोकरें खा रहे हैं, हमें और ठोकर मत मारिए!
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नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं इससे India speaks daily का सहमत होना जरूरी नहीं है। ISD इन तथ्यों की पुष्टि का दावा नहीं करता है।