कुछ फ़िल्में बनाई नहीं जाती, ‘बन’ जाती हैं। ‘शोले’ और ‘सैराट’ ऐसी फिल्मों की श्रेणी में रखी जा सकती है। इन फिल्मों को बनाने वाले निर्देशक नहीं जानते थे कि उनके नाम इतिहास में दर्ज हो जाएंगे। वे सिर्फ एक बेहतर फिल्म बनाना चाहते थे जो दर्शकों को पसंद आए। हालाँकि ‘धड़क’ के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। धड़क एक बड़ी अभिनेत्री की बेटी को लॉन्च करने के लिए बनाई गई है। निर्देशक और दर्शक की संतुष्टि से ज्यादा स्टार किड जान्हवी कपूर को स्थापित करने की भावना धड़क में साफ़ नज़र आती है। स्टार किड्स का इतिहास देखा जाए तो इनके लिए तैयार किये गए ये ‘लॉन्चिंग पेड’ सफल नहीं हो पाते। धड़क एक हादसा साबित हुई है।
निर्देशक शशांक खेतान ने ‘सैराट’ की देह तो ले ली लेकिन आत्मा को छोड़ दिया। सैराट की सफलता के पीछे केवल मासूम प्रेम कथा नहीं थी। सैराट में जातिवाद का उन्माद था, जो निर्दोष प्रेम को लील जाता है। धड़क में वह ‘छुअन’ नहीं दिखाई देती जो दर्शक सैराट देखते समय अनुभव करता है। फिल्म निर्माण का एक जरुरी हिस्सा होता है ‘कॉस्टिंग’। धड़क फिल्म ‘मिस कॉस्टिंग’ का नायाब नमूना कही जा सकती है । ईशान खट्टर और जान्हवी कपूर इस कहानी के लिए बिलकुल ‘मिस मैच’ कलाकार थे। ये कहानी उनके लिए थी ही नहीं। दोनों की लॉन्चिंग के लिए कहानी गलत चुन ली गई।
सैराट में क्षेत्रीयता का पुट था। फिल्म की पृष्ठभूमि में महाराष्ट्र की संस्कृति झलकती है। धड़क की पृष्ठभूमि राजस्थानी थी लेकिन फिल्म में वह परिवेश नकली सा नज़र आता है। कलाकार मेवाड़ी बोलते-बोलते हरियाणवी बोली बोलने लगते हैं। जब ऐसा होता है तो फिल्म का सम्मोहन टूटने लगता है। धड़क के साथ भी यही होता है। दर्शक इस अजीबोगरीब मेल से ऊबने लगता है। कहानी इतनी अस्पष्ट है कि आखिर तक पता नहीं चलता मधुकर कौनसी जाति का है। जिस कारण से प्रेमी-प्रेमिका को घर से भागना पड़ा हो, वही कारण स्पष्ट नहीं किया जाता। सैराट की सफलता केवल ‘आर्ची-प्रशांत’ के प्रेम-प्रसंग पर नहीं टिकी थी। उसमे वास्तविक ढंग से समाज की दशा का वर्णन किया गया था।
धड़क में वे सारे तत्व नदारद हैं जो सैराट की अभूतपूर्व सफलता के लिए जिम्मेदार थे। सैराट नागराज मंजुले की ‘सीक्रेट रेसिपी’ से बनाई गई थी, जिसे धड़क के निर्देशक पकड़ नहीं सके। याद करें सांवली दबंग आर्ची और उसका दब्बू प्रेमी। ऐसा कॉन्ट्रास्ट मधुकर-जान्हवी की केमेस्ट्री में दिखाई नहीं दिया। किरदार के हिसाब से ईशान तो ठीक लगे हैं लेकिन जान्हवी उनसे उम्र में बड़ी दिखाई देती हैं। घर से भागने के बाद मधुकर-जान्हवी के संघर्ष के दृश्य बड़े ही प्रभावहीन और उथले महसूस होते हैं। जबकि इसके उलट सैराट में इन दृश्यों को बड़ी त्वरा के साथ फिल्माया गया था।
स्टार किड जान्हवी कपूर आधी-अधूरी तैयारी के साथ मैदान में उतरी हैं। उनकी कमियां नज़र आती है। हालांकि पहली फिल्म में ऐसा कच्चापन दर्शक को भा जाता है। संवाद अदायगी और अंडरप्ले करने में जान्हवी अभी बहुत कच्ची हैं। वे खूबसूरत हैं और यहीं उनका सबसे बड़ा प्लस पॉइंट है। मूल फिल्म में ये किरदार रिंकू राजगुरु ने निभाया था। रिंकू खूबसूरती के मामले में जान्हवी से आधी ही होगी लेकिन वे अभिनय का पॉवर हाउस है और जान्हवी टिमटिमाता दीपक। आने वाले वक्त में जान्हवी परिपक्व हो सकती हैं बशर्ते वे खुद को निखारें। ईशान खट्टर जान्हवी के मुकाबले प्रभावी दिखे हैं। उनका अभिनय स्वाभाविक है और आने वाले वक्त में ईशान अच्छे अभिनेता साबित हो सकते हैं।
किसी भी फिल्म का सफल ‘रीमेक’ बनाने के लिए जरुरी है कि आप या तो उस निर्देशक की ‘सोच’ पकड़कर काम करें या अपना रास्ता ही बदल लें। धड़क के निर्देशक बीच में फंस गए हैं। शशांक खेतान निर्देशक नागराज मंजुले की ‘अंतर्दृष्टि’ नहीं समझ सके। उन्होंने सैराट को अपने ढंग से बनाने का प्रयास किया और हाथ जला बैठे। आप उस विचार को लेकर हिन्दी भाषी दर्शकों के परिवेश को देखते हुए ड्रामा रच सकते थे लेकिन आप महाराष्ट्र से राजस्थान चले गए। राजस्थान के परिवेश को उथले ढंग से दिखाया जो दर्शकों को पसंद नहीं आया। सैराट समुद्र की गहराई से चुनकर लाया गया मोती था और धड़क उथले पानी पर ऊपर ही ऊपर तैरती है। एक डिजाइनर फिल्म, जिसका जीवन बॉक्स ऑफिस पर बहुत छोटा सा है।
URL: Dhadak Movie Review Lacks the intensity of Sairat
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