T.N. Hari. flipkart के संस्थापक सचिन बंसल और बिन्नी बंसल निश्चित रूप से निराश होंगे, होना भी चाहिए, क्योंकि अपनी नवोदित कंपनी को इतनी ऊंचाई पर जो पहुंचाए थे। अपने हाथों से संवार कर आज उससे खुद को अलग जो कर लिया, ऐसे में निराश होना स्वाभाविक भी है, लेकिन इसके साथ उनके प्रशंसक भी उनसे कम निराश नहीं हैं। जब से बंसल मित्र ने अपनी नवोदित कंपनी फ्लिपकार्ट को वालमार्ट के हाथों बेचा है उनके इस फैसले पर कई प्रकार की प्रतिक्रियाएं भी मिल रही हैं।
मुख्य बिंदु
* महज 25 प्रतिशत नवोदित कंपनियों के संस्थापक ही अपनी कंपनियों को सफलता दिला पाते हैं
* अपनी कंपनियों को शिखर पर पहुंचाने वाले संस्थापक सीईओ अलग ही मिट्टी के बने होते हैं
* 80 प्रतिशत नवोदित कंपनियों के संस्थापक सीईओ को निवेशकों के दबाव में पद से हटना पड़ता है
अब जब बंसल मित्र अपनी ही बनाई कंपनी फ्लिपकार्ट को खुद से अलग कर दिया है ऐसे में उन्हें सलाह देने वालों की भी बाढ़ आ गई है।कई बता रहे हैं कि जिस ऊंचाई पर कंपनी पहुंच गई थी वहां से उसका फिसलना अपरिहार्य हो गया था। ऐसे में उनका यह कदम सराहनीय है। वहीं कुछ का कहना है कि चूंकि फ्लिपकार्ट में एक देशभक्ति का जज्बा था इसलिए उसका रहना अनिवार्य था। वहीं कई लोग ऐसे भी हैं जो बंसल मित्रों को दोबारा Amazon और Alibaba जैसी क्षमता वाले विश्वव्यापी व्यापार को खड़ा करने और उसे चलाने की सलाह दे रहे हैं।
इसमें तो कोई दो राय नहीं कि जिस ऊंचाई पर Flipkart founders Sachin Bansal and Binny Bansal ने फ्लिपकार्ट को पहुंचाया वहां तक पहुंचाने में दशकों लग जाते हैं। वैसे तो स्मरण की उम्र छोटी होती है, लेकिन इसे भुला कर नई चीजों के बारे में सोचने में वक्त भी लग सकता है। बहरहाल जो बहस चल रही है वह यह कि फ्लिपकार्ट के अधिग्रहण के बाद इसके संस्थापक रहे बंसल मित्र आगे क्या करेंगे? वे तुरंत कुछ नया करेंगे, या फिर कुछ समय के बाद आगे बढ़ेंगे? आगे ये दोनों जो भी करें लेकिन इतना तो तय है कि वे फ्लिपकार्ट के प्रतिबिंब के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाएंगे। जिसकी वजह भी है। इसकी वजह है कि फ्लिपकार्ट और उसके संस्थापकों की संयुक्त परिकल्पना भारतीय जनता पर आधारित थी साथी ही दोनों का मनोविज्ञान भी।
हारवर्ड बिजनेस रिव्यू में साल 2008 में नोआम वासरमैन का ‘The Founder’s Dilemma'(संस्थापक की दुविधा) नाम से लिखा एक आलेख प्रकाशित हुआ था। यह आलेख उस समया इतना प्रसिद्ध हुआ था कि प्राय: कंपनी के बोर्ड ने अपने संस्थापक सीईओ (मुख्य कार्यकारी अधिकारी) को पढ़ने के लिए प्रस्तावित करता था। अपने इस आलेख में वासरमैन ने जो कुछ बातें रेंखाकित की थी वह यह कि अधिकांश इंटरप्रेन्योर लैरी एलिसन और बिल गेट्स बनने का ही सपना देखते हैं। उनकी इच्छा रहती है कि उनकी अनूठी संस्था अनंतकाल तक चले। लेकिन एक वास्तविकता और है, वो यह कि सफल संस्थापक सीईओ निश्चित ही एक अलग मिट्टी के बने होते हैं। मुश्किल से 25 प्रतिशत संस्थापक ही अपनी स्टार्ट-अप कंपनी को आईपीए स्टेज तक पहुंचाने में सफल हो पाते हैं। इसके साथ ही निवेशकों के दबाव के चलते 80 प्रतिशत संस्थापकों को जबरदस्ती सीईओ की भूमिका से हटाना पड़ता है।
बहुत कम नवोदित कंपनियां इस दुनिया में शीघ्र आगे बढ़ पाती है और बहुत ही कम ऐसा होता है कि सारे कारक उनके पक्ष में होते हैं। सही समय पर सही जगह पर होना अपने आप में महत्वपूर्ण है। अधिकांश जगह ये होता है कि बड़ी कंपनियां छोटी कंपनियों को अधिग्रहति करती हैं ताकि वह अपनी खाई को पाट सकें।
अगर आप भारतीय संदर्भ में देखे तो पाएंगे कि भारत में सूचना तकनीक सेवा प्रदान करने वाली कई कंपनिया बहुत जल्दी आगे बढ़ती हैं। उनका आकार और स्तर कल्पना से भी ज्यादा आईबीएम और एसेंचर जैसी विदेशी कंपनियों से बड़ा हो जाता है। यहां तक इन दोनों बड़ी कंपनियों में से एक को अधिग्रहण करने का सपना भी देखने लगती है। लेकिन ऐसी स्थिति बहुत से कारकों के मिलने से बनती है और बिरले ही उत्पन्न होती है।
ऐसी सहज स्थिति हमेशा ही बनी नहीं रह सकती है। ऐसी स्थिति बनने के लिए कंपनियों के संस्थापकों का परिपक्व होना बहुत जरूरी है। आप देख सकते हैं कि जब कोई बीपीओ कंपनी शुरू होती है तो बहुत ही तामझाम के साथ शुरू होती है लेकिन शुरुआत जैसी स्थिति लंबे समय तक नहीं बनी रहती है। दक्ष और स्पेक्ट्रामाइंड जैसी नवोदित कंपनियां प्रतिष्ठित इंटरप्रेन्योर द्वारा शुरू की गई लेकिन महज 5 साल के अंदर अधिग्रहित कर ली गई, और यह तब हुआ जबकि उसके संस्थापकों की पकड़ और नियंत्रण अच्छा था।
कई बार ऐसा होता है कि जैसे ही संस्थापकों को अपनी काबिलियत और उद्देश्य का पता चलता है उनके लिए उस नवोदित कंपनी से पिंड छुड़ाना आसान हो जाता है। कुछ ऐसे भी संस्थापक होते हैं जो खुद बहुत जागरूक होते हैं वे नए आइडिया का अनुभव लेने के साथ उस कंपनी से पैसे बनाकर बाहर निकलने में खुशी महसूस करते हैं। इसके बाद बिना किसी हिचकिचाहट के वे अपनी रूचि की बड़ी कंपनी शुरू कर देते हैं।
कई नवोदित कंपनी के संस्थापकों में यह इच्छा ही नहीं रहती है कि वे किसी संस्था को बनाएं और उसे चलाएं। क्योंकि जब आगे बढ़ने का समय आता है तो उन्हें अलग होने की यातनाओं का सामना करना पड़ सकता है। कुछ समय के लिए तो दर्द असह्य लगेगा। अचानक सूनापन से चोट पहुंचा सकता है। लेकिन आप आश्वस्त हो सकते हैं कि यह तो अस्थाई है। क्योंकि स्वीकृति से ही तो मुक्ति आती है!
T.N. Hari is the head, HR, at Bigbasket and co-author of Cut The Crap And Jargon: Lessons From The Start-up Trenches
Courtesy: www.livemint.com
URL: Flipkarts founders may not become like Microsofts Bill
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