मरना तो एकदिन सबको है। मां के गर्भ में जिस दिन जिंदगी की यात्रा शुरू होती है, उसी दिन से उसकी आखिरी मंजिल भी सुनिश्चित हो जाती है, और वह मंजिल है मृत्यु! मुझे जिसने सबसे ज्यादा प्यार दिया, मेरी जिंदगी को गढ़ा, वो मेरी नानी जब इस दुनिया से गयी तो मैं हंस रहा था! और सबको मैं दुख से निकाल कर मृत्यु के उत्सव में सम्मिलित कर रहा था। मेरे नानी की मृत्यु का सबसे ज्यादा प्रभाव मेरे नाना पर पड़ा, लेकिन वह भी मेरी बातों से हंस रहे थे! सब तस्वीरों में कैद है!
जयललिता के लिए जब तमिलनाडु की सड़कों पर मातम देख रहा हूं तो सोचता हूं, काश ये लोग चैतन्य होते तो आज दूसरों के लिए इस पागलपन में नहीं पड़ते! भगवान श्रीकृष्ण ने कितनी कोशिश की, लेकिन वह केवल एक अर्जुन के अंदर से ही अंधश्रद्धा और मृत्यु के भय को निकाल पाए! सदियां बीत गयी, बांकी अभी तक सोए पड़े हैं!
भारत की धरती पर गीता उतरी और यहीं के लोग कभी नेता, कभी अभिनेता के पीछे भागते फिरते हैं! लोगों के अंदर स्वयं के लिए ही गरिमा का बोध नहीं है! सद-चित-आनंद: यही धर्म का सार है! न लोग सत्य के साथ हैं, न चेतना में जीते हैं और इसी कारण इनके जीवन में कभी आनंद भी नहीं उतरता! ‘सद’ अर्थात जो सदा है! जो स्वयंभूत है! स्वयंभूत तो बस परमात्मा है! जो स्वयंभूत नहीं, उसे नष्ट होना ही है! फिर नश्वर के लिए क्यों मातम मनाते हो?