वेद पूरे भारतीय—यूरोपीय भाषा परिवार के प्राचीनतम साहित्य के रूप में समादृत रहे हैं। इनके रचनाकाल का निर्धारण बड़ी कठिन समस्या रही है। मैक्समूलर ने 1889 में प्रकाशित ‘हिस्ट्री ऑफ एन्शियंट संस्कृत लिटरेचर’ नामक अपने ग्रंथ में इसका समय 1200 वर्ष ईसा पूर्व प्रस्तावित किया है, लेकिन लोकमान्य बालगंगाधर तिलक और याकोबी ने ज्योतिष साक्ष्य के आधार पर क्रमशः 6000 वर्ष तथा 4500 वर्ष ईसा पूर्व से वैदिक युग का आरंभ माना है।
वैदिक साहित्य
समस्त वैदिक साहित्य मौखिक परंपरा से ही प्राप्त है, इसलिए उनके लिए श्रुति शब्द का प्रयोग किया जाता है। भारतीय परंपरा वेदों को अपौरुषेय मानती रही है। ऐसा माना जाता है कि मंत्रद्रष्टा रिषियों ने इसका साक्षात्कार किया। मौखिक परंपरार से सहस्राब्दियों तक चले आने के कारण वेदों का पाठ बहुत शुद्ध रहा।
वेद किसी एक ग्रंथ का नहीं, अपितु पूरी साहित्य—राशि का नाम है, जिसके चार भाग हैं— 1) संहिता 2) ब्राह्ण 3) आरण्यक 4) उपनिषद् ।
संहिताएं
संहिताएं चार हैं— 1) ऋग—संहिता ( ऋग्वेद ) 2) यजुष्—संहिता (यजुर्वेद) 3) साम—संहिता (सामवेद) 4) अथर्व—संहिता (अथर्ववेद)।
ऋग संहिता में 1028 सूक्तों का संकलन हैं। ये सूक्त दस मंडलों में रखे गए हैं। कर्मकांडपरक धर्म के उदेश्य को पूरा करने के लिए यजुष् और साम संहिताओं का संकलन किया गया है। वैदिक युग के आरंभ में यज्ञ सरल उपासना कर्म था। यज्ञ संबंधी मंत्रों का संकलन यजुः संहिता अर्थात् यजुर्वेद में किया गया है। यजुष् का अर्थ गद्यात्मक मंत्र होता है। किंतु इस संहिता के कुछ भाग गद्य में हैं और कुछ पद्य में, जिन्हें भिन्न भिन्न यज्ञों में प्रयुक्त होने योग्य क्रम में रखा गया है।
साम—संहिता(सामदेव) में यज्ञों में गेय मंत्रों का संकलन है। इसके अधिकांश मंत्र ऋग—संहिता (ऋग्वेद) से ही लिए गए हैं। इनका संग्रह भी कर्मकांड की दृष्टि से किया गया है।
अथर्व—संहिता (अथर्ववेद) में मुख्यतया यातु और अभिचारपरक मंत्रों का संग्रह है। इसमें संभवतः प्राचीनतर और समाज के निचले स्तर के विश्वासों का रक्षण है, इसलिए इसका महत्व सबसे अलग है।
ब्राह्मण
ब्राह्मण भाग की रचना सामान्यतः मंत्र भाग की रचना के बाद हुई। ब्राह्मण का तात्पर्य मैक्समूलर और एग्लिंग ने ब्रह्मा नामक पुरोहित के वचन या उनके लिए विहित निर्देश के रूप में लिया है, किंतु इसका वेबर द्वारा स्वीकृत अर्थ ब्रह्मन अर्थात प्रार्थना से संबंध ही उचित है। प्रोफेसर मैकडानेल के अनुसार ये उस युग की आत्मा प्रतिबिंबित करते हैं, जिसमें सारी बौद्धिक क्रियाशीलता यज्ञ, अनुष्ठानों के वर्णन, उसके मूल्य पर विमर्श तथा उसके आरंभ और महत्व के विश्लेषण पपर ही केंद्रित थी।
कृष्ण यजुः—संहिता में ऐसे वर्णनात्मक स्थल हैं, जो बताते हैं कि किसी मंत्र का विनियोग यज्ञ में किस प्रकार होगा और क्यों उसी प्रकार किया जाएगा। ये केवल कर्मकांड का विवरण ही नहीं देते, बल्कि उसे कथा और पुरावृत्तों से स्पष्ट करते हुए सप्राण बनाते हैं एवं कर्मकांड के पारिभाषिक विवरणों के साथ काव्यात्मक मंत्रों का काव्यपरक व्याख्यान अपनी कथाओं से करते हैं। ये भारतीय पुराकथा के कोष के रूप में देखे जा सकते हैं। गद्य में रचित इन ब्राह्ण ग्रंथों का महत्व भारत—यूरोपीय भाषा परिवार के अत्यंत प्राचीन गद्य को सुरक्षित रखने में भी है।
आरण्यक
आरण्यक सामान्यतः ब्राह्ण ग्रंथों के अंतिम भाग हैं। इनका यह नाम संभवतः अरण्य (वन) में निवास करने वाले वानप्रस्थ मुनियों के द्वारा उच्चरित होने के कारण या अरण्य की शांति में शिष्यों को उपदेश देने के कारण पड़ा। आरण्यक ब्राह्ण ग्रंथों के परवर्ती हैं, यह उनकी विषयवस्तु और उनके ग्रंथ के अंतिम भाग से भी स्पष्ट हैं। इनमें यज्ञ का प्रतिकात्मक विवेचन और पौरोहित्योन्मुख दर्शन है। इनमें प्रस्तुत यज्ञ का रहस्यात्मक विवेचन ब्राह्ण ग्रंथों के कर्मकांड और उपनिषदों के ज्ञानकांड के बीच सेतु सरीखा है।
उपनिषद
उपनिषद वेद के दार्शनिक चिंतन की परिणति को प्रस्तुत करती हैं। इन्हें वेदांत भी कहा जाता है। उपनिषद् शब्द उप(निकट), नि (नीचे) और सद् (बैठना) से मिलकर बना है। शिष्यगण गुरु के निकट बैठकर ज्ञान प्राप्त करते थे। इनकी कुल संख्या— 108 है। लेकिन मुख्य उपनिषद् 11 मानी गई है, जिनका भाष्य आदि गुरु शंकर ने किया है। ये हैं— ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, बृहद—आरण्यक और श्वेताश्वतर।
नोटः इसके मूल लेखक डॉ. कमलेशदत्त त्रिपाठी हैं। यह हिस्सा, डॉ. नंदकिशोर देवराज द्वारा संपादित पुस्तक ‘भारतीय दर्शन’ से लिया गया है। डॉ. कमलेशदत्त त्रिपाठी के लेख को संक्षिप्त करने के लिए इसे संपादित किया गया है।