अवधेश कुमार मिश्र। बिहार में एक तथ्य सालों से अनवरत रूप से चला आ रहा है वह यह कि जब कभी सांप्रदायिक हिंसा हुई है सत्ताधारी पार्टी सत्ता से च्यूत हुई है और जातीय तनाव से सरकार वापस आई है। भागलपुर दंगा के बाद बिहार से कांग्रेस का गायब होना तथा लालू प्रसाद यादव परिवार का लगातार 15 सालों तक शासन करना इसकी मिसाल है। वहीं दूसरी तरफ यह भी सही है कि जब भी जेडीयू और भाजपा गठबंधन का शासन रहा है प्रदेश में न तो सांप्रदायिक हिंसा हुई है और न ही जातीय तनाव बढ़ा है। अब सवाल उठ रहा है कि अगर यह तथ्य है तो फिर बिहार में बढ़ते जातीय तनाव और सांप्रदायिक हिंसा के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है?
मुख्य बिंदु
* प्रदेश की जनता देख चुकी है जेडीयू-भाजपा गठबंधन का शासन
* कांग्रेस पार्टी पर लगा है भागलपुर सांप्रदायिक हिंसा का दाग
* आरजेडी के शासनकाल के दौरान चरम पर था जातीय तनाव
जब से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महागठबंधन से बाहर आने के बाद अपने पुराने और लंबे समय के सहयोगी भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई है तब से सूबे में सांप्रदायिक हिंसा के साथ ही जातीय तनाव बढ़े हैं। पूरे विपक्ष के साथ ही पत्रकार का एक वर्ग इस सरकार को बदनाम करने के साथ इस गठबंधन में दरार पैदा करने में जुटा है। तभी तो राष्ट्रीय जनता दल के वरिष्ठ उपाध्यक्ष रघुवंश बाबू ने रामविलास पासवान का आरजेडी से संपर्क में होने की बात कही है इतना ही नहीं उनके साथ कांग्रेस खुले तौर पर नीतीश कुमार को एक बार फिर महागठबंधन में लौट आने की गुजारिश कर चुकी है।
भाजपा को सहज दोस्त नहीं दुश्मन बनाने का खेल
पत्रकार का एक वर्ग भाजपा को जेडीयू का सहज दोस्त नहीं दुश्मन बता रहा है। जबकि तथ्य ये है कि नीतीश कुमार का कभी भी लालू प्रसाद यादव से नहीं निभी। वह चाहे 90 के दशक का जनता दल का शासनकाल हो या फिर राष्ट्रीय जनता दल के साथ मजबूरी में किया गया गठबंधन हो। महागठबंधन के बनने के दौरान नीतीश को नेता बनाने के समय लालू यादव का विषपान करने वाला बयान आज भी सभी के जेहन में होगा। लेकिन इन तथ्यों को भुलाकर पत्रकारों का एक वर्ग भाजपा को ही नीतीश का नंबर एक दुश्मन ठहराने में जुटी है। जबकि सचाई ये है कि जॉर्ज फर्नांडिस के समय वाली समता पार्टी हो या नीतीश के समय वाला जेडीयू दोनों ही समय में उनका मजबूत गठबंधन भाजपा के साथ ही रहा है। 17 सालों तक दोनों की दोस्ती चली। भाजपा नेतृत्व वाला एनडीए चाहे सत्ता में हो या सत्ता से बाहर दोनों की दोस्ती अनवरत रही। 2014 लोक सभा चुनाव के समय दोनों पार्टी में तल्खी बढ़ने के बाद हुई टूट को प्रदेश और देश की जनता ने सही नहीं माना। महागठबंधन का आकार लेने से पहले अधिकांश राजनीतिक विशेषज्ञों ने इसे अल्पकालिक गठबंधन ही करार दिया, जो बाद में सही भी साबित हुई। इतने तथ्य होने के बावजूद विपक्ष है कि नीतीश और भाजपा की दोस्ती को पचा नहीं पा रहा। इसके उलट अपने कुछ पत्रकारों के माध्यम से दोनों की दोस्ती को बदनाम कर उसे तोड़ने के कूचक्र में लगा हुआ है।
लालू यादव को मसीहा बनाने का दांव
दूसरे के कंधे पर सवार होकर सालों बाद बिहार की सत्ता में आने वाली कांग्रेस सबसे तिलमिलाई हुई है। जिस नीतीश कुमार ने अपने बल पर कांग्रेस को औकात से ज्यादा हिस्सा दिलाकर सरकार का सहभागी बनाया आज उसी नीतीश कुमार को कांग्रेस बदनाम करने और लालू यादव को मसीहा बनाने पर तुली हुई है। आज अगर लालू प्रसाद यादव रांची की जेल में सड़ रहे हैं तो इसके लिए कांग्रेस ही जिम्मेदार है। क्योंकि कांग्रेस समर्थित पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा के नेतृत्व वाली पूर्व केंद्रीय सरकार ने चारा घोटाले का सीबीआई जांच करने का आदेश दिया था। और यूपीए सरकार के दौरान हीं लालू यादव को पहली बार जेल जाना पड़ा था। लेकिन आज समय बदला है तो राजनीति भी बदली है। लालू यादव कांग्रेस के बगैर किसी राजनीतिक मोर्चा के आकार को ही नकारते दिखते हैं तो कांग्रेस पार्टी लालू यादव की इस परिणति के लिए भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को जिम्मेदार बता रही है। दोनों पार्टियों के इस खेल की परिणति ही प्रदेश की हाल की परिस्थिति है।
लालू यादव को ताकतवर बनाने का खेल
लालू यादव को जानबूझ कर ताकतवर बनाने का खेल चल रहा है। इसी के तहत ही प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा और जातीय तनाव को एक षड्यंत्र के तहत बढ़ावा दिया जा रहा है। अगर ऐसा नहीं तो क्या कारण है कि लालू यादव अपने इलाज के लिए रांची से दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) पहुंचते ही अकेले नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को रोकने का दंभ भरते दिखाए जाते हैं। जिस प्रकार चारा घोटाले के चार मामले में लालू यादव को करीब 19 साल की सजा सुनाई गई है, जबकि दो मामले अभी भी लंबित हैं, उसे देखते हुए उन्हें आसानी से बाहर निकलना नामुमकिन सा लगता है। ऐसे में लालू यादव की अनुपस्थिति में सांप्रदायिक हिंसा और जातीय तनाव बढ़ाने का कुचक्र रचकर उनके प्रति सहानुभूति बढ़ाने का माहौल बनाया जा रहा है। ताकि इसका लाभ चुनाव के दौरान उनके बेटों और परिवार को मिल जाए।
नीतीश के काम में भाजपा अड़चन नहीं
जब तक केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के बेटे शास्वत चौबे की गिरफ्तारी नहीं हो पाई थी तब तक विपक्ष कह रहा था कि नीतीश कुमार को भाजपा के रहते किसी दुश्मन की जरूरत नहीं पड़ेगी। नीतीश कुमार उसूल के कितने पक्के हैं यह दुनिया जानती है। भ्रष्टाचार के आरोपों का जनता के सामने माकूल जवाब नहीं दे पाने के कारण ही नीतीश कुमार ने महागठबंधन से बाहर निकलने का फैसला किया। भले रामनवमी के मौके पर जुलूस निकालने का ही मामला क्यों न हो। अगर शास्वत चौबे पर उस समय लोगों उकसाने का आरोप लगा है तो फिर कानून अपना काम करेगा। कुमार ने दिखा दिया कि बिहार में उनके रहते कानून का ही राज चलेगा। क्योंकि वे तिहाड़ जेल से किसी से आदेश नहीं लेते। भाजपा भी किसी मामले में केंद्र के लिए अड़चन नहीं बनती।
हाल के माहौल को देखते हुए कहा जा सकता है कि बिहार के वर्तमान तनाव के लिए विपक्ष ही जिम्मेदार है। क्योंकि ऐसा करने से ही उसका सत्ता में आने का रास्ता साफ होता है।
URL: In Bihar’s Growing Communal Violence, Why
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