मैंने पत्रकारिता की गिरती दशा को देखकर 12 साल पुराने अपने पत्रकार करियर को विराम दिया था। 2012 में नौकरी छोड़ी थी। अब तक लिखी अपनी हर किताब में पत्रकारिता के स्याह चेहरों को उजागर किया! सोचा था, पत्रकारिता को साफ करने में इससे मदद मिलेगी! लेकिन मैं यूटोपिया में जी रहा था। भारतीय पत्रकारिता से ज्यादा बीमार और बिकी हुई चीज और कुछ भी नहीं है।
अभी जो @Bloomsbury के लिए ‘भारतीय वामपंथ का काला इतिहास’ लिख रहा हूं, उसके लिए KGB और CIA के दस्तावेज आधारित विदेशी लेखकों द्वारा लिखी पुस्तकों को पढ़ रहा हूं। इंदिरा-राजीव के जमाने में भारत के अंग्रेजी अखबार के एक-एक लेख को ये एजेंसियां फिनांस करती थीं, फिरोज गांधी के जरिए नेहरू पत्रकारिता को मैनेज करते थे! ISI के गुलाम नबी फई का वाकया तो आज हम सबके सामने का है कि कैसे कश्मीर पर पाकिस्तान का पक्ष रखने के लिए भारतीय पत्रकारों को फंडिंग की जाती है। अभी कश्मीर के हालात पर #Burhanwani के लिए जो पत्रकार छाती पीट रहे हैं, तय मानिए पाकिस्तान की ISI ने इसके लिए जबरदस्त फंडिंग की होगी! अभी कश्मीर पर मातम मनाने वाले कई पत्रकारों का नाम फई के दस्तावेजों में भी उपलब्ध था! दस्तावेज दर्शाते हैं कि KGB, CIA, ISI अपना उल्लू सीधा करने के लिए भारत में सबसे पहले बड़े और लेफ्ट लिबरल पत्रकारों को खरीदती है, क्योंकि उनके शब्दों में, यहां के पत्रकार मामूली रकम के लिए भी बिकने को तैयार बैठे हैं!
मैं खुश हूं कि अब मेरे नाम के साथ पत्रकार नहीं लगता और दुखी हूं कि अपने ही पेशे को मुझे बार-बार और हर किताब में उधेड़ना पड़ता है। हमारी आगामी पुस्तक ‘भारतीय वामपंथ का काला इतिहास’ आपको पत्रकारिता के काले इतिहास से भी थोड़ा-बहुत रू-ब-रू कराएगी! #संदीपदेव