सदेह ‘अटल’ का अनन्त गमन के लिए विदेह होना तय है, पर उनके प्रति उत्सुकता बिरले है
मृत्यु मौन किन्तु अटल, आती है बिन आहट। व्याकूल करती होने और न होने की छटपटाहट
किसी के जीवन की सार्थकता का पैमाना उसका प्रारंभ या मध्य नहीं बल्कि अंत होता है। अब जब पिछले करीब एक दशक से पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी इस सांसारिक दुनिया से सदेह विरत हैं, फिर भी उनके प्रति देशवासियों की उत्सुकता यह बताती है कि उनकी मौजूदगी मात्र देश और जनता के लिए कितनी सार्थक और आवश्यक है। अटल जी के प्रति देशवासियों का यह स्नेह और अनुराग हमारी भारतीय संस्कृति और सभ्यता से भी परिचय कराती है। आज भले ही अटल बिहारी वाजपेयी भगवान के इच्छानुरूप अपने अनन्त गमन की यात्रा में हैं उनकी यह यात्रा महाभारत के पितामह भीष्म की इच्छामृत्यु के उपरांत उनकी सदगति की याद दिलाती है।
भारतीय राजनीति के बेदाग नेता तथा करिश्माई वक्ता पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी तीन बार देश के प्रधानमंत्री बने। देश के वे पहले प्रधानमंत्री थे जिनकी पृष्ठभूमि कभी कांग्रेसी नहीं रही है। उनसे पहले देश के जितने भी प्रधानमंत्री बने सभी की पृष्ठभूमि कांग्रेस की थी। वाजपेयी पहले ऐसे प्रधानमंत्री बने जो गैर कांग्रेसी के रूप में अपना कार्यकाल पूरा किया। ऐसे अटल जी आज वृद्धावस्था से ग्रस्त अस्वस्थता की चपेट में हैं, जिनकी चिंता सारे देश को है।
अटल जी का प्रारंभिक जीवन
अहंकाररहित, सौम्य व्यक्तित्व, नाराजमुक्त मृदु वाणी के धनी अटल जी का पूरा राजनीतिक जीवनकाल बेदाग रहा। उनके जीवन की शुरुआत मध्यप्रदेश के ग्वालियर से होती है। 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर के मोरेना में कृष्ण बिहारी वाजपेयी के घर कृष्णा देवी की कोख से जन्मे अटल बिहारी वाजपेयी का पुस्तैनी घर आगरा के बटेश्वर में था। लेकिन उनके दादा पंडित श्याम लाल वाजपेयी ही उत्तर प्रदेश के आगरा के बटेश्वर से मध्य प्रदेश के ग्वालियर स्थित मुरैना चले गए थे। चूंकि वाजपेयी के पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी अपने गृह शहर में ही स्कूल शिक्षक और कवि थे इसलिए अटल जी की प्रारंभिक शिक्षा भी ग्वालियर के गोरखी स्थित सरस्वती शिशु मंदिर में हुई। कवित्व का गुण उनमें अपने पिताजी से ही हस्तांतरित हुआ था। प्रारंभिक और माध्यमिक शिक्षा के बाद उन्होंने ग्वालियर के ही विक्टोरिया कांलेज, जो आज लक्ष्मी बाई कॉलेज के नाम से जाना जाता है, से अपना स्नातक पूरा किया। साहित्य और कविता के प्रति उनके अनुराग का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि स्नातक में उनके जो तीन विषय थे उनमें एक हिंदी, दूसरा संस्कृत और तीसरे विषय के रूप में उन्होंने अंग्रेजी को चुना था। हिंदी में उन्हें डिस्टिंक्शन प्राप्त हुआ था। लेकिन पोस्ट ग्रेजुएशन यानि एमए उन्होंने राजनीति शास्त्र में उत्तर प्रदेश के कानपुर स्थित डीएवी कॉलेज से प्रथम श्रेणी से पूरा किया। कहने का मतलब साहित्य, संस्कृति और राजनीति उनकी घुट्टी में समाहित थी। तभी तो उन्होंने अपने जीनवकाल में पत्रकारिता और कविता के माध्यम से साहित्य, जीवनशैली के माध्यम से संस्कृति और कर्म के माध्यम से राजनीति को शीर्ष पर पहुंचाया।
जीवन की प्रारंभिक सक्रियता
शिक्षा के साथ ही अन्य गतिविधियां भी उनके जीवन का हमेशा से हिस्सा रहीं। वह चाहे शिक्षण काल हो या राजनीतिक काल वे सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक रूप से वे हमेशा सक्रिय रहते थे। उनकी इस प्रकार की सक्रियता की शुरुआत आर्य समाज के ग्वालियर स्थित आर्य कुमार सभा से हुई थी। 1944 में वह आर्य कुमार सभा के महासचिव बन गए थे। हालांकि इससे पहले 1939 में ही एक स्वयंसेवक के रूप में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल हो गए थे। बाबासाहेब आप्टे से प्रभावित होकर उन्होंने 1940 से लेकर 1944 के दौरान आरएसएस द्वारा आयोजित अधिकारी शिक्षण शिविर में भाग लिया था। 1947 में वे आरएसएस के पूर्णकालिक कार्यकर्ता, जिसे तकनीकी रूप से प्रचारक कहते हैं, बन गए। देश के विभाजन के कारण हुए दंगों ने व्यक्तिगत रूप से अटल जी को काफी नुकसान पहुंचाया। शिक्षा के प्रति इतना अनुराग रखने वाले अटल जी को इन दंगों की वजह से अपनी कानून की पढ़ाई छोड़नी पड़ गई। इसी दंगा के दौरान उन्हें विस्तारक (प्रशिक्षु प्रचारक) के तौर पर उत्तर प्रदेश भेज दिया गया। वहां उन्होंने शीघ्र ही दीनदयाल उपाध्याय के मासिक हिंदी पत्रिका राष्ट्रधर्म, हिंदी साप्ताहिक पांचजन्य तथा स्वदेश और वीर अर्जुन जैसे दैनिक समाचार पत्र के लिए काम करना शुरू कर दिया। उन्होंने कभी शादी नहीं की और ताउम्र अकेले रहकर जिंदगी गुजारी।
राजनीतिक डगर की शुरुआत
जो लोग यह कहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी या आरएसएस का देश के स्वतंत्रता संग्राम में कोई योगदान नहीं है वे या तो जानबूझ कर इतिहास को झुठलाने का प्रयास करते हैं या फिर अनभिज्ञता में ऐसा कहते हैं। क्योंकि अटल बिहारी इसका साक्षात उदाहरण हैं कि अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अंग्रेजों ने उन्हें और उनके बड़े भाई प्रेम को गिरफ्तार कर लिया था। उन दोनों को 23 दिनों तक जेल में रहना पड़ा था। देश के स्वतंत्र होने के कुछ महीने बाद ही जब 1948 में महात्मा गांधी की हत्या हुई तो केंद्र सरकार ने आरएसएस को प्रतिबंधित कर दिय। तब तक अटल जी देश में राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं थे। उनकी राजनीतिक सक्रियता की शुरुआत 1951 में तब हुई जब आरएसएस और दीनदयाल उपाध्याय ने नई बनी राजनीतिक पार्टी भारतीय जन संघ में उनके कार्य करने की वकालत की। यह राजनीतिक पार्टी दक्षिणपंथी सोच के साथ ही आरएसएस से जुड़ी थी। अटल जी को राष्ट्रीय सचिव के रूप में उत्तरी संभाग का दायित्व सौंपा गया। उन्हें दिल्ली में रहकर पार्टी का काम करने को कहा गया। जल्द ही वे पार्टी के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी के संपर्क में आए और उनके प्रशंसक बन गए। 1954 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कश्मीर मसले को लेकर आमरण अनशन किया था। उनका कहना था कि किसी भी भारतीय को कश्मीर जाने के लिए किसी दस्तावेज की जरूरत नहीं है। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी भी उनके साथ उस आमरण अनशन में शरीक हुए थे। उसी दौरान मुखर्जी की जेल में ही संदिग्ध परिस्थिति में मौत हो गई।
लोकसभा में प्रवेश और प्रधानमंत्री बनने की भविष्यवाणी
भारतीय राजनीति में इतने दिनों तक रहने के बाद भी बेदाग निकले अटल जी पहली बार लोकसभा 1957 में पहुंचे। 1957 में हुए लोकसभा चुनाव में वे दो सीटों से चुनाव लड़े थे। पहली सीट थी मथुरा और दूसरी सीट थी बलरामपुर। 1957 में हुए लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी को भारतीय जनसंघ के टिकट पर मथुरा सीट से उतारा गया। लेकिन राजा महेंद्र प्रताप के हाथ उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा। वहीं तब तक बलरामपुर लोकसभा पहुंचने के लिए उनका रास्ता खोल चुका था। यानि बलरामपुर सीट से वे लोकसभा चुनाव जीत गए थे। लोकसभा में उनका भाषण काफी सम्मोहक हुआ करता था। तभी तो अटल के संबोधन से सम्मोहित होकर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अटल को लेकर भविष्यवाणी की थी कि वह एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनेगा। जवाहरलाल नेहरू की भविष्यवाणी मिथ्या नहीं हुई, उनके कथनानुसार अटल बिहारी वाजपेयी भारत के एक बार नहीं बल्कि तीन-तीन बार प्रधानमंत्री बने।
अपनी सांगठनिक क्षमता तथा वाकपटुता की वजह से अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय जनसंघ का चेहरा बन चुके थे। लेकिन 1967 में अचानक दीनदयाल उपाध्याय की संदिग्ध मौत के कारण नेता का भार भी युवा अटल के कंधों पर आ टिका। 1968 में वे भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिए गए। इसके बाद नानाजी देशमुख, बलराज मधोक और लाल कृष्ण आडवाणी के साथ मिलकर उन्होंने पार्टी को राष्ट्रीय क्षितिज पर लाने का काम किया।
अटल के राजनीतिक सफर का दूसरा दौर
अपने नेतृत्व में भारतीय जनसंघ को राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर स्थापित करने के साथ ही अटल बिहारी वाजपेयी के राजनीतिक सफर का दूसरा दौर शुरू हुआ। उनका दूसरा दौर भी एक घनघोर घटा के साये में ही शुरू हुआ। देश में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का दौर था। वह वही दौर था जब सबके मुंह से यही निकलता था कि इंडिया इज इंदिरा एंड इंदिरा इज इंडिया। यह वही समय था जब इंदिरा गांधी ने देश को आपातकाल के अंधेरे में धकेल दिया था। 1975 से लेकर 1978 तक अटल बिहारी वाजपेयी कई अन्य विपक्षी नेताओं के साथ कई बार अलग-अलग आरोपों में गिरफ्तार किए गए। आपातकाल का अंधियारा छटते ही जब देश में फिर से लोकतंत्र स्थापित हुआ, तो जनता पार्टी के रूप में नया सूरज उग चुका था और इंदिरा गांधी का राज अस्त हो चुका था। 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की हार हुई और जनता पार्टी की जीत। केंद्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी जनता पार्टी की सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी को विदेश मंत्रालय का दायित्व सौंपा गया। पहली बार देश के विदेश मंत्री बने अटल बिहारी वाजपेयी ने यहां भी सफलता के झंडे गाड़े। काम तो विदेश मंत्रालय का था लेकिन उन्होंने अपने नए दायित्व के माध्यम से पूरी दुनिया को हिंदी से परिचय कराया। संयुक्त राष्ट्र महासभा में विदेश मंत्री के रूप में जब पहली बार बोलने का अवसर मिला तो उन्होंने इसे यूं ही गंवाया नहीं। बल्कि देश, भाषा और स्वयं की छवि चमकाने के रूप में इस अवसर का उपयोग किया। उन्होंने पहली बार संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में भाषण दिया। 1979 आते-आते जनता पार्टी की सरकार आपसी कलह की शिकार बन गई। 1979 में जनता सरकार गिर गई लेकिन तब तक अटल बिहारी वाजपेयी एक अनुभवी राजनेता और आदरणीय राजनीतिक नेता के रूप में खुद को स्थापित कर चुके थे।
जब भारतीय जनता पार्टी के जन्मदाता बने अटल
जैसे ही 1979 में मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दिया उसके ठीक बाद ही जनता पार्टी भी विघटित हो गई। लेकिन भारतीय जनसंघ अपने राजनीतिक संगठन के प्रति प्रतिबद्ध था और वह गठबंधन को संभालने में भी सक्षम था, लेकिन जनता पार्टी के अन्य दलों के बीच में इतनी खींचतान थी कि पार्टी अंत में बिखर गई। तभी अटल बिहारी वाजपेयी ने भारतीय जनसंघ तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खासकर अपने पुराने मित्र लाल कृष्ण आडवाणी और भैरो सिंह शेखावत के साथ मिलकर मंत्रणा की। और अंत में अटल बिहारी वाजपेयी ने 1980 में भारतीय जनता पार्टी के रूप में नई पार्टी को जन्म दिया। अटल बिहारी वाजपेयी ही इस नई पार्टी के पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने। उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के मुंबई में आयोजित पहले राष्ट्रीय अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि देश से अंधेरा छटेगा, सूरज निकलेगा और कमल खिलेगा। ध्यान रहे कि भाजपा का चुनाव चिन्ह कमल का फूल है। जो भविष्यवाणी उन्होंने की थी उसे उन्होंने अपने जीते जी पूरी भी कर दी। 1996 से लेकर 2004 तक तीन बार गठबंधन की सरकार बनाकर और चला कर।
कांग्रेस सरकार के सबसे बड़े आलोचक रहे अटल
भारतीय जनता पार्टी की स्थापना होने के साथ ही अटल बिहारी वाजपेयी कांग्रेस पार्टी की सरकार के साथ ही उसके सहयोग से चलने वाली हर सरकार के सबसे बड़े आलोचक के रूप में उभरे। हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी पंजाब में बढ़ रहे सिख आतंकवाद के खिलाफ थे लेकिन इसके लिए वे इंदिरा गांधी की विभाजनकारी राजनीति को भी जिम्मेदार मानते थे। भारतीय जनता पार्टी को अभी चार साल भी नहीं हुआ था, कि देश में एक बड़ी घटना घटी। इंदिरा गांधी की हत्या हो गई। इसके बाद देश में लोकसभा चुनाव हुआ। संवेदना की बाढ में राजीव गांधी को ऐतिहासिक जीत मिली लेकिन भाजपा इस बाढ़ में पूरी तरह बह गई। लोकसभा में उनके महज दो सदस्य चुनकर आ पाए। अटल जी को भी हार झेलनी पड़ी। लेकिन वे पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष के रूप में उनकी भूमिका राजनीतिक केंद्र में बनी रही। इतनी बड़ी हार के बाद भी उन्होंने कांग्रेस की नीतिगत आलोचना से परहेज नहीं किया।
1995 में प्रधानमंत्री पद का चेहरा बने और 1996 में प्रधानमंत्री
समय बीतता गया राजनीति अपनी गति से आगे बढ़ने लगी। इसी बीच रामजन्मभूमि मंदिर आंदोलन की शुरुआत हुई। भारतीय जनता पार्टी शीघ्र ही इस आंदोलन की मुखर आवाज बन गई। हालांकि इस आंदोलन की शुरुआत विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने की थी। अयोध्या राम मंदिर आंदोलन ने एक बार फिर पार्टी को राजनीतिक केंद्र में ले आया। इस मुद्दे को आगे बढ़ाने से भाजपा को 1995 में गुजरात और महाराष्ट्र में जीत मिली। इससे पहले 1994 में कर्नाटक में हुए विधानसभा चुनाव में भी पार्टी का प्रदर्शन काफी बेहतर रहा। इससे भाजपा काफी उत्साहित होती चली गई। इसी दौरान नवंबर 1995 में भाजपा का राष्ट्रीय अधिवेशन मुंबई में आयोजित हुई थी। इसी अधिवेशन में पार्टी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने यह घोषणा कर दी कि अगर पार्टी सत्ता में आती है तो अटल बिहारी वाजपेयी ही देश के अगले प्रधानमंत्री होंगे। 1996 के मई में हुए लोकसभा चुनाव में पार्टी को विजय मिली। हालांकि पूर्व बहुमत तो नहीं मिला लेकिन पार्टी लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी बन गई। तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने और बहुमत साबित करने का अवसर दिया। अटल बिहारी वाजपेयी देश के 10 वें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ तो ले ली लेकिन वे बहुमत साबित करने में विफल रहे। 13 दिन तक प्रधानमंत्री रहे वाजपेयी को आखिर में इस्तीफा देना पड़ा। लेकिन इस दौरान उन्होंने भविष्य के प्रधानमंत्री के रूप में अपनी दावेदारी मजबूत कर ली।
प्रधानमंत्री के रूप में अटल की दूसरी पारी 13 महीने चली
1996 में प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी अपनी सरकार नहीं बचा पाए और 13 दिन के बाद ही उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। बाद में संयुक्त मोर्चा ने दो-दो प्रधानमंत्री के नेतृत्व में सरकार बनाई लेकिन नेतृत्व सफल नहीं रहा। देवगौड़ा को खुद पार्टी ने प्रधानमंत्री पद से हटा दिया तो वहीं इंद्रकुमार गुजराल से फिर कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया। 1996 से लेकर 1998 में संयुक्त मोर्चा की दो-दो सरकार गिर गई। अंत में 1998 में देश को मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ा। इस बार फिर भाजपा अधिक शक्तिशाली बनकर उभरी। इस बार भी पूर्ण बहुमत तो नहीं मिला लेकिन सीटें ज्यादा मिली और गठबंधन का कुनबा भी बड़ा हो गया था। लिहाजा अटल बिहारी वाजपेयी को दूसरी बार गठबंधन सरकार चलाने का अवसर मिला।
इस बार भाजपा ने अन्य पार्टियों के साथ मिलकर राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (राजग) बनाया। अटल बिहारी वाजपेयी को सर्वसम्मति से एनडीए का नेता चुना गया। इस प्रकार उन्होंने दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली। इस बार ऐसा नहीं हुआ जो पहले 1996 में हुआ था। यानि कि इस बार अटल जी ने अपनी कुशलता की वजह से संसद में बहुमत भी साबित किया। सरकार बखूबी चल रही थी। अटल के नेतृत्व में सरकार को चलते हुए अभी 13 महीने ही हुए थे कि अचानक अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेड़ कड़घम (एआईएडीएमके) की नेता जयललिता ने अपना समर्थन वापस ले लिया। इस प्रकार जयललिता के विश्वासघात की वजह से अटली जी की सरकार बहुमत से अल्पमत में आ गई। इस प्रकार 17 अप्रिल 1999 को अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार महज एक वोट की वजह से संसद में अपना विश्वास मत साबित नहीं कर पाई। ऐसा भी नहीं था कि कोई पार्टी उस समय सरकार बनाने की स्थिति में थी। क्योंकि जब अटल जी की सरकार गिरी तो दूसरी पार्टी ने सरकार बनाने का दावा तक नहीं किया। इसलिए एक बार फिर 1999 में लोकसभा विघटित करनी पड़ गई। इस बार चुनाव होने तक अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने रहे।
अटल ने पोखरण-दो विस्फोट कर देश को दी नई ताकत
अटल बिहारी वाजपेयी को जब-जब देश की जिम्मेदारी मिली उन्होंने कुछ नया कर देश का मान और ताकत बढ़ाने का काम किया। 1996 में जैसे अटल ने अपनी अगली भूमिका को सुदृढ़ किया इसी प्रकार 1998 में उन्होंने पार्टी की स्थिति मजबूत करने के साथ ही देश की भी स्थिति मजबूत की। 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी को सत्ता संभाले एक ही महीना हुआ था कि उन्होंने मई के महीने में राजस्थान पोखरण में पांच भूमिगत परमाणु टेस्ट कर डाले। अटल बिहारी वाजपेयी के इस साहसिक कदम से पूरी दुनिया अचंभित रह गई। 1974 में हुए परमाणु विस्फोट के 24 साल बाद देश में बुद्ध दोबारा मुस्कुराए, और देश परमाणु हथियार संपन्न देश की कतार में जा खड़ा हुआ। वाजपेयी के इस कदम की जहां रूस और फ्रांस ने सराहना की वहीं, अमेरिका समेत कनाडा, जापान, ब्रिटेन, तथा यूरोपियन यूनियन ने आलोचना की और भारत पर आर्थिक प्रतिबंध तक लगा दिया। लेकिन वाजपेयी ने अपनी कुशल कूटनीति के कारण इस संकट से भी पार पा लिया।
वाजपेयी के इस कदम का घरेलू स्तर पर इतनी सराहना हुई कि इसके परिणाम स्वरूप अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध भी बेअसर साबित हुआ। इसी के परिणामस्वरूप विश्वबिरादरी को भारत पर लगाए गए प्रतिबंध छह महीने के भीतर ही हटाने पड़े। भारत की विश्व कूटनीति में पहली सफल जीत मानी गई। इस जीत के पीछे अटल जी की दूरदृष्टि ही काम आई। कहा जाता है कि अटल जी ने पोखरण विस्फोट करने से पहले सारी संभावनाओं पर पहले ही विचार कर चुके थे और उस परिणाम को झेलने की पूरी तैयारी कर ली थी। इसी वजह से अमेरिका का आर्थिक प्रतिबंध भी भारत का कुछ नहीं बिगाड़ पाया।
पाकिस्तान को लाहौर में कूटनीतिक तो कारगिल में पढ़ाया सैन्य पाठ
अपने 13 महीने के कार्यकाल में अटल बिहारी वाजपेयी ने देश से लेकर विदेश तक को बता दिया कि वे कितने कुशल राजनेता और प्रशासक हैं। उन्होंने इतने कम समय के कार्यकाल में ही पाकिस्तान को कूटनीतिक पाठ से लेकर सैन्य पाठ तक पढ़ा दिया। 1998 के अंत और 1999 के प्रारंभिक महीनों में उन्होंने पाकिस्तान के साथ शांति कायम करने की चेष्टा के तहत पहल की। इसके लिए उन्होंने बड़े स्तर पर कूटनीतिक शांति प्रक्रिया की शुरुआत की। इसके लिए जहां उन्होंने 1999 के फरवरी में ऐतिहासिक दिल्ली-लाहौर बस सेवा का शुभारंभ किया। वाजपेयी ने पाकिस्तान के साथ स्थाई तौर पर कश्मीर समेत सारे मामलों को हर करने के उद्देश्य से ही यह पहल की थी। वाजपेयी की पहल के परिणामस्वरूप लाहौर घोषणा के तहत वार्ता, विस्तारित व्यापार संबंध, आपसी दोस्ती तथा परमाणु टेस्ट के बाद दोनों देशों के अलावा दक्षिण एशिया तथा विश्व में बढ़े तनाव को कम करने के प्रति प्रतिबद्धता जताई गई थी।
“अगर हम दोस्ती का हाथ बढ़ा सकते हैं तो वक्त आने पर देश की ओर बढ़ने वाले हाथ को मरोड़ भी सकते हैं” उत्साह भरने वाला यह कथ्य आपने कई नेताओं को कहते हुए सुना होगा, लेकिन इस कथ्य को किसी ने साबित कर दिखाया तो वे अटल बिहारी वाजपेयी ही थे। क्योंकि उन्होंने ही पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने की पहल के तहत उसके सामने अपना हाथ आगे बढ़या था, लेकिन जब पाकिस्तान ने छल किया और उसने अपना नापाक हाथ देश पर डालने की कोशिक की तो वाजपेयी ही थे जिन्होंने उनके हाथ को न केवल मरोड़ा बल्कि ऐसा मरोड़ा कि ऐसा दुस्साहस करने में उसे पीढियां याद आ जाएंगी। वाजपेयी ने लाहौर जाकर दोस्ती का हाथ बढ़ाया तो कारगिल में दुश्मनों को सबक भी सिखाया।
यह खुलासा हो चुका था कि पाकिस्तान के आतंकवादियों के साथ मिलकर उसकी गैरपोशाकधारी सेना आधिकारिक हथियार के साथ कश्मीर में घुसपैठ कर कारगिर की ऊंची पहड़ियों पर भारतीय पोस्ट पर कब्जा जमा चुका है, और वहां से वह तेजी से अपना विस्तार भी कर रहा है। यह घुसपैठ कारगिल शहर के आसपास केंद्रित थी, लेकिन बटालिक और अखनूर सेक्टर भी इसमें शामिल था। इसके साथ ही वे लोग सियाचिन ग्लेशियर में फायरिंग कर रहे थे। वाजपेयी ने भी अपने सैन्य बल को आतंकवादियों की वर्दी में घुसपैठ कर आए पाकिस्तानी फौज को मार-भगाने का आदेश दिया। भारतीय फौज ने उस विषम परिस्थितियों का सामना करते हुए पाकिस्तानी फौज को शिकस्त दी। इस लड़ाई में जहां 500 भारतीय फौज शहीद हुए वहीं पाकिस्तान के करीब 600-4000 आतंकी और जवान मारे गए। भारतीय फौज ने जब 70 प्रतिशत इलाके पर अपना दोबारा कब्जा जमा लिया तो वाजपेयी ने अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को गुप्त खत लिखकर चेताया कि अगर पाकिस्तानी आतंकी और सेना हमारे इलाके को खाली नहीं किया तो हम दूसरा रास्ता भी अख्तियार कर सकते हैं। वाजपेयी का इशारा साफ अंतरराष्ट्रीय सीमा पार करने और वक्त आने पर पाकिस्तान पर हमला करने की ओर था।।
कारगिल के इस युद्ध में पाकिस्तान को भारी खामियाजा भुगतने के बाद भी नवाज शरीफ को अपनी सेना और आतंकवादियों से नियंत्रण रेखा के पास अपना पोजिशन लेने के बारे में कहना पड़ा। हालांकि आतंकवादी तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का आदेश मानने को तैयार नहीं था लेकिन जैसे ही उत्तरी सीमांत क्षेत्र के सैनिकों द्वारा आदेश का पालन करते देख आतंकवादियों को भी उसका अनुसरन करना पड़ा। इस प्रकार सैन्य मोर्चे पर भी अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान को पटखनी दी और कारगिल युद्ध जीत ली। वाजपेयी की इस उपलब्धि ने उन्हें देश की जनता के बीच हीरो बना दिया। वह देश के सामने एक मजबूत और साहसिक फैसले लेने वाले नेता के रूप में आ गए। वाजपेयी की इस जीत को कांग्रेस कभी पचा नहीं पाई तभी तो जब 2004 में कांग्रेस सत्ता में आई थी उसकी सरकार ने कारगिल विजय दिवस को आठ बरस तक सरकारी मान्यता नहीं दी। लेकिन बाद में 26 जुलाई 2012 को कारगिल विजय दिवस के रूप में राष्ट्रीय समारोह मनाने का आदेश दिया गया। इसी समारोह के मौके पर मुंबई में अटल बिहारी वाजपेयी की मोम की मूर्ति का अनावरण किया था।
प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी की अंतिम व मुकम्मल पारी
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में चल रही एनडीए सरकार के सामने 1999 में दो महत्वपूर्ण संकट आए। एक देसी और एक विदेशी। पाकिस्तान के रूप में आए विदेशी संकट को अटल ने बड़ी कुशलता से संभाल नहीं लिया। दुश्मन को सबक भी सिखाया। लेकिन जयललिता के रूप में आए देसी संकट ने उन्हें दोबारा देश के प्रति कुछ करने का मंसूबा पूरा नहीं होने दिया। एआईएडीएमके की नेता जयललिता लगातार उनकी सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी दे रही थी। इस नाते लगातार कोई न कोई राष्ट्रीय नेताओं का दिल्ली से चेन्नई जाना जारी था ताकि वे जयललिता को मना सके। आखिरकार मई 1999 में जयललिता ने वाजपेयी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। 13 महीने चली वाजपेयी की सरकार गिर गई। अक्टूब1999 में होने वाले लोकसभा चुनाव तक अटल जी कार्यकारी प्रधानमंत्री बने रहे। लेकिन अभी तक देश के प्रति अटल जी की मेहनत रंग लाई 1999 में हुए लोकसभा चुनाव में एनडीए को लोकसभा की कुल 543 में से 303 सीटों पर मिली जीत के साथ पूर्ण बहुमत भी मिल गया। 13 दिन और 13 महीने की सरकार चला चुके अटल बिहारी वाजपेयी ने इस बार 13 अक्टूबर 1999 को तीसरी बार प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। अटल बिहारी ने इस बार पहली बार किसी गैर कांग्रेसी सरकार के रूप में अपना कार्यकाल पूरा किया।
अटल के लिए काफी संकट भरा साल रहा 1999
हालांकि 1999 में ही उन्हें पूर्ण बहुमत वाली सरकार मिली थी, लेकिन एक तथ्य यह भी है कि साल 1999 उनके लिए काफी संकट भरा भी रहा। इसी साल जहां कारगिल का सामना करना पड़ा वहीं सरकार गिरने का सामना करना पड़ा। जब चुनाव जीतकर दोबारा सत्ता में आए तो दो महीने बाद ही यानि दिसंबर 1999 में भारतीय विमान अपहरण कांड का सामना करना पड़ा। दिसंबर में नेपाल से दिल्ली आ रहे भारतीय एयरलाइन विमान आईसी 814 का पांच आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया। सैकड़ो सवारी वाले भारतीय विमान को अपहरण कर आतंकवादियों ने अफगानिस्तान लेकर चला गया। आतंकवादियों ने विमान और यात्रियों को छोड़ने के ऐवज में भारतीय शासन से कई प्रकार की मांग करने लगे। मानवता के आगे अटल ने दानव को भी एक मौका देने का फैसला किया। उन्होंने सैकड़ों यात्रियों की जान बचाने के लिए कुछ आतंकियों को छोड़ने का कठिन फैसला किया।
वाजपेयी का शासनकाल भाजपा के लिए स्वर्णकाल रहा
वाजपेयी जी के शासनकाल को भाजपा के लिए स्वर्णकाल कहा जा रहा है। जब तक वाजपेयी जी देश के प्रधानमंत्री रहे, भारत हर मोर्चे पर विजयी साबित होता रहा। वह चाहे आर्थिक मोर्चा हो या फिर विदेश नीति का मोर्चा। पार्टी के लिए भी वाजपेयी का शासनकाल शुभ रहा है। 2003 के नवंबर और दिसंबर के बीच होने वाले तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा को अटल बिहारी के विकासपरक शासन के नाम पर विजय मिली। इन चुनावों ने पार्टी ने कोई भी विचाराधारा का मुद्दा नहीं उठाया। केवल विकास के मुद्दे पर पार्टी को तीनों राज्य में शानदार सफलता मिली। इसी को ध्यान में रखकर 2002 के गुजरात दंगों को पीछे छोड़ने के लिए सरकार ने मुसलिमों को रिझाने के लिए कई प्रकार के जनसंपर्क अभियान चलाए। लेकिन मीडिया ने अपना पूरा ध्यान विकास परक मसलों से हटाकर इस पर केंद्रित कर दिया कि आखिर वाजपेयी के बाद उनके अत्तराधिकारी कौन होंगे। हालांकि ये बात अभी सीधे तौर पर उठाई भी नहीं गई थी क्योंकि 2004 का चुनाव अटल के नाम पर ही लड़ा गया था। लेकिन पर्दे के भीतर से आडवाणी का नाम उनके उत्तराधिकारी के रूप में चल पड़ा था। मीडिया ने जानबूझकर भी अटल की जीती बाजी को उनके स्वास्थ्य और शारीरिक व मानसिक दुर्वलता को उठाकर कमजोर कर दिया। और 2004 के लोकसभा चुनाव में जो नहीं होना चाहिए था वही हो गया। जिस जीत की उम्मीद स्वयं कांग्रेस को भी नहीं थी वही जीत गई और वाजपेयी के शानदार सरकार चलाने के बदले देशवासियों ने उनके हिस्से में हार बांट दी।
2004 का लोकसभा चुनाव ही उनकी राजनीतिक सक्रियता के लिए आखिरी साबित हुआ। भले ही इस दौरान वे लखनऊ का प्रतिनिधित्व करते रहे लेकिन सक्रिय राजनीति से अलग होते चले गए। बाद में स्वास्थ्य ने भी साथ नही निभाया और धीरे-धीरे एकांत वासी होते चले गए। इसी एकांत अवस्था में जब दस साल के बाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी तो उन्हों भारत रत्न से नवाजा गया। लेकिन उनकी एकांतता कभी खत्म नहीं हुई। अंत में आज वह दिन आ ही गया काल के कपाल पर लिखते और मिटाते रहने वाले अटल बिहारी वाजपेयी आज अनन्त गमन की यात्रा पर प्रस्थान कर गए।
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