ओम भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर् वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि: धियो योनः प्रचोदयात्।।
वह परमात्मा सबका रक्षक है — ओम प्राणों से भी अधिक प्रिय है — भू:। दुखों को दूर करने वाला है — भुव:। और सुख रूप है — स्व:। सृष्टि को पैदा करनेवाला और चलाने वाला है, स्वप्रेरक — तत्सवितुर्। और दिव्य गुणयुक्त परमात्मा के — देवस्य। उस प्रकार, तेज, ज्योति, झलक, प्रकट्य या अभिव्यक्ति का, जो हमें सर्वाधिक प्रिय है — वरेण्यं भवो:। धीमहि: — हम ध्यान करें।
अब इसका तुम दो अर्थ कर सकते हो :-
धीमहि: — कि हम उसका विचार करें। यह छोटा अर्थ हुआ, खिड़की वाला आकाश। धीमहि: — हम उसका ध्यान करें: यह बड़ा अर्थ हुआ। खिड़की के बाहर पूरा आकाश।
मैं तुमसे कहूंगा: पहले से शुरू करो, दूसरे पर जाओ। धीमहि: में दोनों है। धीमहि: तो एक लहर है। पहले शुरू होती है खिड़की के भीतर, क्योंकि तुम खिड़की के भीतर खड़े हो। इसलिए अगर तुम पंडितों से पूछोगे तो वह कहेंगे धीमहि: का अर्थ होता है विचार करें, सोचें।
अगर तुम ध्यानी से पुछोगे तो वह कहेगा धीमहि; अर्थ सीधा है — ध्यान करें। हम उसके साथ एक रूप हो जाएं। अर्थात वह परमात्मा — या:, ध्यान लगाने की हमारी क्षमताओं को तीव्रता से प्रेरित करे — न धिया: प्रचोदयात्।
मैं तुमसे कहूंगा, दूसरे अर्थ पर ध्यान रखना। पहला बड़ा संकीर्ण अर्थ है, पूरा अर्थ नहीं।
फिर ये जो वचन है, गायत्री मंत्र जैसे, ये संग्रहीत वचन हैं। इनके एक-एक शब्द में बड़े गहरे अर्थ भरे हैं।
ओशो
(अष्टावक्र महागीता, भाग #4, प्रवचन #9)
Web Title: Osho speaks on gayatri mantra
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