ये दर्द सिर्फ मेरा नहीं अपितु भारत के हर उस बेटे या बेटी का हो सकता है जिन्होंने अपना बचपन बिना अपने पिता के दुलार के व्यतीत किया होगा ,मैं उत्तरांचल के एक छोटे से गावं “बडाबे” से सम्बंधित हूँ ,देवभूमि में बसा मेरा गावं और इसी अंचल के न जाने कितने और गावं बिलकुल दुनिया से अलग-थलग(1977) अपने आप में मगन गरीब मगर स्वाभिमानी शिक्षा के अभाव में जीते थे ,जीविकोपार्जन के साधन न के बराबर, कृषि भी अल्प मात्र लेकिन पेट भर ही देती थी, इसके अलावा भारतीय सेना में कार्यरत पिताजी, ताऊजी, चाचाजी या बड़ा भाई!
यहाँ पर एक बात स्पष्ट करनी जरूरी है कि उस समय मेरे गावं के हर तीसरे घर से कम से कम एक व्यक्ति फ़ौज में था, इसलिए हम धरती से प्यार करते थे, हैं, करेंगे, स्वयं मेरे पिताजी और ताऊजी देश सेवा में कार्यरत थे. साल दो साल में एक-आध महीने की छुट्टी में घर आते थे और छोड़ जाते थे, साल दो साल लम्बा इंतज़ार! जीवन के शुरुवाती जिन सालों में पिता का प्यार चाहिए होता था उससे बिल्कुल महरूम, मेरे जैसे न जाने कितने बच्चे बिना पिता के दुलार बड़े होते रहे, कमी खलती थी उनकी ! शायद कमी खली थी उनकी तभी यह शब्द जेहन में आ रहे हैं!
यह कहानी नहीं है और न मैं कोई कहानीकार, यह वह दर्द है जो मैंने और मुझ जैसे कितने, “चाहे वह उत्तरांचल से हो अथवा किसी अन्य प्रांत से” महसूस किया है इसलिए हम जानते हैं राष्ट्र सर्वोपरि और प्रथम क्यों होता ? क्योंकि इससे संगठित रखने में हमारा भी योगदान है! हमने अपना बचपन दिया है इसे इसलिए अगर राष्ट्र के खिलाफ कोई भी बोलेगा तो ऐसे कई और शब्द उठेंगे जिनका योगदान है भारत की अक्षुणता को बनाये रखने में.
उपरोक्त लिखी बात इसलिए बतानी जरूरी थी क्योंकि जब भी JNU जैसे संस्थानों से अभिव्यक्ति की आज़ादी की नयी परिभाषा से राष्ट्र तोड़ने की बात निकलती हो, आरक्षण की ज्वाला में जलता हरियाणा हो जो आरक्षण के नाम पर देश की संपत्ति को नुकसान पहुंचता हो जो हम सभी लोगों की मेहनत की कमाई है,या सैनिकों की शहादत का मजाक उडाता हो अथवा मॉर्क्स-लेनिन-माओ की शिक्षा पाये नक्सलिओं का समर्थन करते हुए कुछ सत्तालोलुप नेता हों, तो सच मानिए मन खिन्न हो जाता है की क्या इस दिन के लिए हमारे आदरणीयों ने हमें अपने स्नेह से वंचित रखा ?
मैं अपने जैसे उन सभी लोगों की ओर से यदि वह मेरी बात से सहमत हैं, उन तमाम लोगों से ( जो अपने लिए कुछ न कुछ मांग रहे चाहे अभिव्यक्ति के नाम पर अथवा आरक्षण के नाम पर) और भारत सरकार से अपील करता हूँ कि हमें भी हमारा वह समय लौटा दीजिये जो हमने अपने आदरणीयों के बिना गुजारा! हमें न आरक्षण चाहिए ओर न अभिव्यक्ति की आजादी !! अगर दे सकते हैं तो लौटा दीजिये हमारा”बचपन” नहीं तो बंद कीजिये विधवा विलाप एवं राष्ट्र को अपमानित करने वाले कृत्य ! मेरे लिए भारतीय होना गर्व की बात है क्योंकि यह सभ्यता नहीं विचार है! “आप माने या न माने दुनिया मान रही है”. जय हिन्द -जय भारत