जब हम लिखते हैं कि लोक आस्था पर प्रहार नहीं होना चाहिए तो कई लोग स्त्री विरोधी बता देते हैं, मेरा आज भी यही मानना है कि लोक परम्परा या लोकपर्व में केवल और केवल उसी को टिप्पणी करने और कुछ परिवर्तन करने का अधिकार है जो उस परम्परा का अनुयायी है। जो उसका अनुयायी नहीं, महज़ एक्टिविस्ट है और कुछ कथित क्रान्ति करने के लिए किसी विशेष मंदिर में जाना चाहता है, तो मैं आज भी उसी स्टैंड पर कायम हूँ कि मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे और गिरिजाघर कभी भी एक्टिविज्म के लिए नहीं होते।
आचार्य राम चन्द्र शुक्ल जब कविता की परिभाषा देते हैं तो वह लोक को इतना महत्व क्यों देते हैं? क्यों वह शब्दों के सृजन को लोक के साथ जोड़ते हैं? इसलिए क्योंकि हर सृजन लोक से ही है, आप लेखक होने या एक्टिविस्ट होने के अहंकार में पूरी की पूरी लोक परम्परा को खारिज नहीं कर सकते। और यदि आप खारिज कर रहे हैं तो उसमें दखल देने का आपको कोई अधिकार नहीं। किसी भी लेखक को यह अधिकार नहीं है कि वह अपनी लेखनी से लोक आस्था को ठेस पहुंचाए।
लेखक समाज में घुलमिल कर समाज की कुरीतियों के खिलाफ जाग्रत करता है, मगर उसके लिए उस परम्परा को जीना होता है। बिना उस परम्परा को जिए आप उसके गुण दोष को बता पाने में अक्षम होते हैं। हो सकता है कुछ अपवाद भी हों, मगर जिस परम्परा को आपने जिया नहीं, जिस परम्परा की अच्छाई आपको नहीं पता क्या आप मात्र अपने एक्टिविज्म और लेखकीय अहंकार में उस पर प्रहार करेंगे? क्षमा करें, मैं इसे उचित नहीं मानती! यही कारण है कि तीन तलाक पर जब मुस्लिम महिलाओं की आवाज़ आई तो सभी ने उसका समर्थन किया। मगर लेखकीय अहंकार में डूबी लेखिकाएं इस विषय पर मुस्लिम महिलाओं के साथ नहीं आईं, वह किस विवशता के चलते नहीं आईं, पता नहीं।
पिछले दिनों मुस्लिम समाज में बहुविवाह के कारण स्त्रियों पर होते अन्याय के विषय में एक मुस्लिम मित्र की कहानी मैंने पढी थी, ऐसी कहानी थी जिसमे आपके रोएं खड़े हो जाएं, स्त्री के दुःख को इस प्रकार अपने शब्दों में व्यक्त किया था। वह इसलिए क्योंकि शायद उन लेखिका ने उस समाज को इतनी नजदीकी से देखा है और वह उसी समाज में कहीं न कहीं रह रही हैं, कि उनके लिए यह कुछ बाहरी नहीं था। तो सबरीमाला वाले मामले में भी यही स्टैंड है कि यदि आपने उस परम्परा को जाना है, यदि आपने उस अनुष्ठान को किया है और आपको उसमें कोई कमी नज़र आई तो आप आवाज़ उठाइए, मगर केवल सैनिटरी पैड चढ़ाने के लिए करोड़ों लोगों की आस्था को अपमानित करने का अधिकार किसी को नहीं है।
इसे एक और उदाहरण से समझा जा सकता है, पिछले वर्ष ही शायद छठ पर्व के अवसर पर मैत्रेयी जी एक शब्द का प्रयोग कर दिया था, कि बिहारी स्त्रियाँ इस पर्व पर माथे से या नाक से सिन्दूर क्यों पोत लेती हैं? केवल इस शब्द पर कुछ मित्रों की भावनाएं इतनी आहत हो गईं थीं, कि सिन्दूर को पितृसत्ता का सबसे बड़ा प्रतीक बताने वाली मित्र केवल सिन्दूर लगाकर ही अपनी तस्वीरे पोस्ट करने लगी थीं। मात्र एक शब्द से आस्था इस हद तक अपमानित हो गयी थी, और सही भी था, जो उनका पर्व नहीं था, बिना उसके विषय में जाने बिना उन्हें क्या बोलने का हक़? वहां पर आपकी आस्था और यहाँ पर सैनिटरी पैड चढ़ाने वाली स्त्री के साथ आप खड़ी हैं! क्यों? क्या अयप्पा के भक्तों की आस्था छठ पर्व की आस्था से कम है? नहीं! तो
आपको स्त्री के उचित मुद्दों पर साथ देना सीखना चाहिए, बजाय जो पर्व आपसे अपरिचित है उस पर हमला बोलने के।
हाँ, धर्म के नाम पर जीवन की हानि करने वाली हर कुरीति को जड़ से समाप्त करना चाहिए, जो हमने की है जैसे सती प्रथा। कुछ मंदिरों में अभी बलि प्रथा चल रही है, मगर मैं चाहूंगी कि जल्द ही वह प्रथा भी लुप्त हो। जातिगत छुआछूत जैसी अमानवीय प्रथाओं का अंत हो, और इसके लिए कठोर से कठोर क़ानून बने, इसके लिए जब तक आरक्षण आवश्यक हो तब तक दिया जाए, मगर जातिगत छुआछूत का नाश जड़ से हो, मगर यह भी महज़ क़ानून से नहीं बल्कि हमारी आपकी सोच में बदलाव लाकर ही होगा।
मैं फिर कहती हूँ कि लोक पर्व और लोक आस्था के संबंध में न तो न्यायालय में फैसले लिए जाते हैं और न ही एक्टिविज्म में, लोक और आस्था न्यायालयों से कहीं बढ़कर है। लोक आस्था और पर्व हमारी आपकी हर समझ से बढ़कर हैं। भारत जैसे बहुलतावादी देश में इतनी बहुल संस्कृति है कि आपको हर जगह एक नई संस्कृति मिलेगी। महज़ एक बात पर आप पूरी की पूरी परम्परा को कठघरे में खड़ा नहीं कर सकती हैं। भारत जैसी बहुलता वादी संस्कृति में “सभी मर्द संभावित रेपिस्ट हैं और मंदिर में स्खलित होने वाले पुरुष” जैसी शब्दावलियों के लिए कोई स्थान नहीं है।
लेखक होने के नाते आवश्यक है कि एक एक शब्द हम सोच समझ कर चुनें, मात्र कुछ किताबें पढने से आप लोक पर्व या आस्था को नकारने के या उसका अपमान करने के अधिकारी नहीं हो सकते। सभी मर्द संभावित रेपिस्ट और मंदिर में स्खलित होने वाले पुरुष जैसी हर अवधारणा को भी कम से कम मैं नहीं मानती। स्त्रीवाद यह सब परिभाषाएं गढ़ना नहीं है।
URL: Sabarimala Women Entry- Muslim body expels rehana fathima from community
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