आज कल एक मुद्दा जो सबसे ज्यादा छाया है वो है आरक्षण व सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय को संसद द्वारा, एससी/एसटी एक्ट में संशोधन करके, 1989 में राजीव गांधी की कांग्रेसी सरकार द्वारा बनाये एक्ट को पुर्वर्ती स्थिति में बहाल करना है।
इस संशोधन पर लोगो की कड़ी प्रतिक्रियाये देखी जा रही है। यह प्रतिक्रियाये जहां एक तरफ मोदी जी की सरकार के विरुद्ध सवर्ण वर्ग से आरही है वही दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी, जिसकी सरकार ने 1989 में यह एक्ट बनाया था, वो इस विरोध को भरपूर समर्थन दे रही है। इस विरोध के दो पक्ष है, एक जो जमीनी स्तर पर दिख रहा है और दूसरा सोशल मीडिया पर है, जहां एक से एक ब्राह्मणों व ठाकुरों की आईडी की बाढ़ आई हुई है, जो जनमानस में न सिर्फ सवर्ण वर्ग के मोदी जी के विरुद्ध लामबंद होने के भृम को तैयार कर रहे है बल्कि लोगो को भेड़ की तरह, नोटा के बाड़े में हांकने का अथक प्रयास कर रहे है।
इस पूरी प्रक्रिया में जहां फ़र्ज़ी आईडी अपना योगदान दे रही है वही पर कई बौद्धिक माननीय भी अपनी अपनी हीनता व कुंठा की अग्नि में, बिना भूतकाल के पापों व भविष्य की भयावहता का सन्दर्भ लिये, अपनी रोटियां सेंक रहे है। आज जब हम यह एससी/एसटी एक्ट और आरक्षण पर बात कर रहे है तो क्या हमने एक बार भी यह सोचा कि सवर्णों से भरे भारतीय संसद में कितने सवर्णों ने इसके बारे में आलोचना, विरोध या फिर इसमे नीतिगत बदलाव करने की बात की है? जिस कांग्रेस ने स्वतंत्रता के बाद से ही एससी/एसटी को आरक्षण के नाम पर एक वोट बैंक के रूप में संस्थागत किया था, उसके विरुद्ध ‘नोटा’ प्रजाति का सवर्ण ‘नोटा’ की बात क्यों नही कर रहा?
हिन्दू समाज मे उच्च व नीच जाति को लेकर उत्त्पन्न हुई भयानक समाजिक विषमताये को दूर करने के लिये,10 वर्षो के लिये लायी गयी आरक्षण व्यवस्था को, बिना उसकी पुनर्समीक्षा किये पूर्व की कांग्रेस की सरकारें लगातार बढ़ाती रही है, तब आज एससी/एसटी एक्ट और आरक्षण पर रोने वाले सवर्णों का यह आक्रोश का केंद्र, मोदी जी की जगह कांग्रेस क्यों नही है? जब संसद में पूरा विपक्ष सत्ताधारी के साथ निर्णय को उलटता है, तो वो कौन ‘सवर्ण’ है जो विपक्ष पर मौन और सत्ताधारी मोदी सरकार के विरुद्ध खड़े है?
यह कौन से ‘अवैध’ सवर्ण है जो सुविधानुसार पिछले सात दशकों से नासूर पैदा करने वाले, कांग्रेस समेत सभी धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक दलों को भूलना चाहते है और आज इस नासूर का अपराधी मोदी सरकार को तय कर रहे है? आज यह लोग, बिना नारेबाजी के यह बताये की मोदी जी की सरकार, जो 2014 से ही देश विदेश में दलित विरोधी झूठे आरोपो द्वारा लक्षित की जाती रही है, वह विपक्ष/मीडिया के इस प्रचार को किसी अन्य विधा से तोड़ सकती थी?
सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि अपने हिंदुत्व का शवदाह करके बना सिर्फ ‘सवर्ण’, उसका उबाल, 2018 में ही हुआ हो रहा है?
क्या लोगो को यह समझ मे नही आरहा है कि सर्वोच्च न्यायालय ने जो एससी/एसटी एक्ट को लेकर निर्णय दिया था, उसका उद्देश्य न्याय करना नही बल्कि मोदी सरकार को दलित/सवर्ण जातिगत राजनीति में उलझाना था? क्या लोग अभी भी यह नही समझ पाये है कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय, न्याय का मंदिर न होकर कांग्रेसीवामी इकोसिस्टम का एक भाग है, जिसका उद्देश्य राष्ट्रवादि/हिंदुत्वादी शक्तियों को सत्ता से हटाना है?
क्या यह सवर्ण इतने स्वार्थहीन, हिन्दुओ और भारत पर मर मिटने वाले निश्छल है कि उन को सर्वोच्च न्यायालय के हिंदुत्वादी और राष्ट्रवादि विचारधारा के विरोधी होने का पता नही है? जो सर्वोच्च न्यायालय, न्याय के सभी मर्यादाओं को तोड़ते हुये, रोमिला थापर ऐसी विषबेला को सुनती है और भारत के प्रधानमंत्री की हत्या व भारत मे अराजकता फैलाने वाले के आरोपियों को जेल न भेज घर मे नजरबंद ऐसा निर्णय देती है, उसके एससी/एसटी पर दिये गये निर्णय में इन ‘सवर्णों’ को कोई कलुषता नही दिखती है?
आज वर्तमान के ये वही ‘सवर्ण’ है जिन्होंने भूतकाल में भारत को हिंदुत्व को हराया था। यह वही है जिन्होंने ‘वर्ण’ को ‘जाति’ में परिवर्तित किये जाने पर, इस व्यवस्था का पुरखो पर लाद कर, उपभोग और हिन्दू का ही शोषण किया था। वे सब वही हिन्दू है जो उस वक्त सत्ता व सामाजिक श्रंखला के शीर्ष पर थे, जब पश्चिम से आये आक्रांता, विभीषका की चेतावनी दे रहे थे। ये ही वो लोग थे जो आये आक्रांताओं के सामने अपने स्वार्थों के कारण न सिर्फ झुके थे बल्कि सत्ता के सुख व उसके आशीर्वाद के लिये, मुसलमान या ईसाई बनने से कोई निषेध नही रक्खा था। जब समाज का उच्चतम वर्ग, इस्लाम और ईसाइयत को स्वीकार करेगा तो, न्यूनतम माला में, नँगा खड़ा समुदाय इससे कहाँ बच पायेगा?
आज जब, हज़ार वर्षो के बाद हिंदुत्व फिर भारत की सत्ता पर दीर्घकालीन रूप से स्थापित होने के मोड़ पर है, तब ‘हिन्दुओ’ द्वारा हिंदुत्व की पीढ़ पर छुरा भोंकना, कोई नई बात नही है।
URL: Social Media creating a conspiracy in favour of ‘Nota’ under the guise of SC / ST act
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