संजय कुमार। जैसे ही टेलीविज़न पर ‘एक भारतीय को नोबल शांति पुरस्कार ‘ सुना तो लगा जैसे समय ठहर-सा गया हो! मानस पटल पर एक हीं भाव आया कि आखिर वह भारतीय कौन हैं? तभी समाचार वाचक ने उदघोषणा की कि बालश्रमिकों के मानव अधिकारों पर कार्य करने वाले श्री कैलाश सत्यार्थी इस पुरस्कार के सह-विजेता हैं।
एक भारतीय होने के नाते गर्व का अनुभव तो हो रहा था ! साथ हीं हर वर्ष के भांति इस पुरस्कार के सन्दर्भ में वहीँ प्रश्न उठा कि ‘क्या नोबल समिति वास्तव में नोबल है?’ इसी मनोदशा को ट्वीट करके मैंने अपने विचारों को मूर्त रूप दिया! मेरे विचारों पर कुछ मित्रों द्वारा की गयी आलोचनात्मक टिप्पणी एवं दूसरे दिन करीब-करीब समाचार के सभी माध्यमों द्वारा इसे बढ़ा-चढ़ाकर बताना हीं इस लेख की पृष्ठभूमि बनी।
इस वर्ष के नोबेल शांति पुरस्कार के सह-विजेता श्री कैलाश सत्यार्थी का जन्म भारतीय प्रान्त मध्य प्रदेश के विदिशा जनपद में सन 1954 में हुआ था। श्री सत्यार्थी ने अपने व्यावसायिक जीवन एक इंजीनियर के तौर पर शुरू किया था! औपचारिक तौर पर अपने सामाजिक जीवन का आरम्भ वर्ष 1980 में “बचपन बचावो आन्दोलन” नामक संस्था से शुरू की! यह संस्था मुख्यतः ‘बाल मजदूरी एवं बाल अधिकारो ‘ पर केन्द्रित है, हालाकि इन्होंने महिला श्रमिकों एवं बाल शिक्षा के दिशा में भी योगदान दिया है।
यह भारत के लिए गौरव कि बात है कि श्री सत्यार्थी नोबल शांति पुरस्कार पाने वाले प्रथम भारतीय हैं जबकि अब तक नोबल समिति द्वारा पुरस्कृत नौवें भारतीय हैं। आपको अब तक कई से सम्मानित किया जा चुका है उल्लेखनीय बात यह है कि ये सभी पुरस्कार केवल ‘यूरोपीय देशों एवं अमेरिकी’ संस्थानों द्वारा हीं प्रदत हैं।
कई मित्रों ने सोशल मीडिया (Twitter) पर उल्लिखित मेरे विचार पर आलोचनात्मक टिप्पणी की है। मैं उनका सम्मान करता हूँ पर राष्ट्रहित में इस प्रतिष्ठित पुरस्कार के ‘समय एवं सन्दर्भ’ पर भी टिपण्णी करना आवश्यक समझता हूँ। प्रथमतः प्राप्त आंकड़ों के अनुसार श्री सत्यार्थी ने अबतक 80,000 के करीब बाल श्रमिकों के साथ-साथ महिला श्रमिकों को शिक्षा एवं औपचारिक कौशल शिक्षा के माध्यम से पुनर्स्थापित किया है। इस महान कार्य का श्रेय अवश्य श्री कैलाश को जाता है।
इस सन्दर्भ में मैं नोबल समिति एवं आलोचक मित्रों को बताना चाहता हूँ कि भारतवर्ष में हजारों व्यक्तियों एवं संस्थानों ने शिक्षा,स्वास्थ्य एवं कौशल विकास के माध्यम से आदिवासी,ग्रामीण और शहरी झुग्गी-झोपड़ी के बच्चों और महिलाओं को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ा है! राष्ट्र को तनाव मुक्त और हिंसा मुक्त बनाने में योगदान दिया है! इन सबका प्रत्यक्ष प्रभाव आर्थिक उत्थान और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर शांति एवं सौहार्द्य बढ़ाने पर पड़ा है! एक शोध के अनुसार भारत में ‘सोशल इंफ्रास्ट्रक्चर’ के प्रगति में सबसे बड़ा योगदान इन्हीं भारतियों एवं उनके द्वारा निर्मित संगठनों को जाता है!
क्या आजतक आपने किसी अमेरिकी तथा यूरोपिये नागरिक को अपने देश के कुरूतियों का प्रचार-प्रसार करते देखा है? क्या कभी किसी पश्चिमी देशों के सामाजिक कार्यकर्ता द्वारा किसी अन्य विदेशी/विश्व संस्था को अपने देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने हेतु दबाव बनाने के बारे में सुना है? नोबेल जैसे पुरस्कारों के पीछे यूरोपीय देशों की दूसरे देशों के प्रति देखने की मंशा का पता चलता है,जहाँ दूसरे मुल्कों में सिर्फ बुराई देखने को ही ‘नोबेल’ समझा जाता है!
देखिये! इस देश के संस्कार और संस्कृति का आधार हीं ‘सेवा’ रहा है, इसे शायद हीं या कभी-कभी हीं विश्व बिरादरी द्वारा इसको पहचान मिली है! जैसे हीं कोई इसे खंड-खंड में अभिव्यक्त करके ‘विकास’ आधारित समाधान प्रस्तुत करता है पश्चिमी देश उसे हीरो बना देते हैं। मैं मदर टेरेसा तथा कुछ पाकिस्तान परस्त/धर्मनिरपेक्ष लोगों पर इस लेख में टिपण्णी करना नहीं चाहता हूँ। इस बारे में एशिया के नोबल पुरस्कार कहा जाने वाला ‘मैग्सेसे पुरस्कार’ के चयन के बारे में काफी कुछ कहा जा चुका है! मित्रों नोबल समिति अगर इतनी हीं नोबल होती तो अब तक ‘सत्य,शांति और समरसता’ के परंपरा पर आधारित इस देश के नागरिकों को कई बार यह सम्मान मिल गया होता।
बाँकी समाज के लोग अवधारण के स्तर पर केवल शांति की बात करते हैं जबकि हमारी संस्कृति ने सदियों से दुनिया को ‘शांति और सहस्तित्व’ का अनुभव ही कराया है! सदियों से भारतवर्ष के परिवारों,विशेषकर कमजोर आर्थिक हैसियत वाले परिवारों में बच्चों द्वारा अपने माता-पिता के कार्यों में सहयोग करने की प्रथा रही है! इससे उनके कौशलता में संव्रिधि के साथ स्वयं की औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने में भी सहयोग होता था, साथ हीं मैं यह भी मनाता हूँ कि कई स्थानों/कल-कारखानों में बच्चों का शोषण भी हुआ है या अभी भी हो रहा होगा! इस प्रथा के एकपक्षीय विश्लेषण के कारण भारत में लाखों-लाख बच्चों का भविष्य भी ख़राब हुआ है ! वैसे भी सदियों से भारतीय गुरुकुलों में श्रम करके शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था रही है ! यहाँ हमेशा श्रम की महिमा को महत्व दिया गया।
पश्चिम के देशों का नजरिया बराबर भेदभावपूर्ण रहा है! मित्रों, अभी कुछ दिन पूर्व हमारे ‘मंगल ग्रह’ पर पहुचने का भी इनके द्वारा खिल्ली उड़ाई गयी थी। एक अमेरिकन कार्टूनिस्ट ने हमें बैलगाड़ी से मंगल ग्रह पर पहुचने का चित्रण किया था। अतः नोबल शांति पुरस्कार को भी मैं इसी कड़ी का एक हिस्सा मानता हूँ! वर्षों से तथाकथित मानवाधिकार के व्यापारिक हिस्सेदार देश इस पुरस्कार का उपयोग किसी व्यक्ति या संस्था को आधार बनाकर कर रहे हैं! जबकि सच्चे अर्थों में विश्व शांति एवं मानवीय मूल्यों के संवर्धन के दिशा में कार्य कर रहे लोगों को सदा हीं दरकिनार कर दिया जाता है।
वैसे भी प्रायोजित मीडिया नोबल पुरस्कार का चाहे जितना भी महिमामंडन करे,अब इसका महत्व इसमें प्राप्त धन तक हीं सीमित है। लेखन विराम से पूर्व एक बार पुनः श्री सत्यार्थी को मेरी शुभकामना एवं साधुवाद!