कल 81 वर्ष की आयु के आर के धवन की मृत्यु हो गयी और उसके साथ भारत की राजनीति में टाइपिस्ट/निजी सहायक से राजनैतिज्ञ बनने और उनके असंवैधानिक सत्ता का केंद्र बने प्रथम स्तम्भ का क्षितिज से विलोप हो गया है। आज हो सकता है लोगो को इंद्रा गांधी के निजी सचिव आर के धवन की धुंदली सी याद हो लेकिन 70 और 80 के दशक में आर के धवन, इंद्रा गांधी के बाद सबसे ताकतवर व्यक्ति थे। वे तब हमेशा पर्दे की पीछे रहते थे लेकिन इंद्रा गांधी के आदेशों को वो ही किर्यान्वित करवाते थे। उनसे मिलने के लिये और उनकी अनुकम्पा पाने के लिये प्रदेशो के कांग्रेसी मुख्यमंत्री, कबीना मंत्री और बड़े बड़े नौकरशाह लाइन लगाते थे।
हमारे हिन्दू दर्शन के संस्कार हमको यह हमेशा सिखाते रहे है कि किसी भी व्यक्ति की मृत्यु पर उसकी आलोचना नही की जानी चाहिये लेकिन मेरे लिये आर के धवन एक व्यक्ति नही बल्कि पूरी एक परंपरा के निर्वाहक रहे है जिसका भारत की राजनीति और राजनीतिज्ञों के सर्वजिनिक जीवन पर सीधा प्रभाव पड़ा है। मैं समझता हूँ कि भारत की राजनीति में जो अंसवैधानिक सत्ता, भृष्टाचार, शासन तंत्र की संवैधानिक शक्ति की टूटन, सर्वजिनिक जीवन मे दासता को प्राथमिकता और राष्ट्र के प्रति न होकर व्यक्ति के प्रति निष्ठा का जो बोलबाला हुआ है, उसकी नींव में आर के धवन ही खड़े दिखते है।
यदि आर के धवन को उनसे आलिंगित तमाम विवादों के परे जाकर देखा जाय तो यह मानना पड़ेगा कि भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान में उमड़े दंगो से बचते बचाते दिल्ली, करोल बाग में अपने मामा के घर शरण लेने पहुंचे लड़के ने आकाशवाणी में टाइपिस्ट से लेकर प्रधानमंत्री इंद्रा गांधी के कार्यालय तक सफर अपनी कड़ी मेहनत और इंद्रा गांधी के प्रति अकाट्य स्वामिभक्ति के सहारे तय किया था। आर के धवन ने अपने मामा के घर रहते हुये पढ़ाई पूरी की और टाइपिंग व शॉर्टहैंड सीखा। उनके मामा यशपाल कपूर, जो की विदेश मंत्रालय में टाइपिस्ट थे, उन्होंने धवन को आकाशवाणी में टाइपिस्ट की नौकरी लगवा दी थी और यही से मामा और भांजे के सितारे बदल गये थे।
जिस वक्त यशपाल कपूर, विदेशमंत्रालय में टाइपिस्ट थे तब इस मंत्रालय का कार्यभार प्रधानमंत्री नेहरू जी के पास था और एक दिन उनको एक टाइपिस्ट की जरूरत पड़ी तब विदेश मंत्रालय के सचिव ने यशपाल कपूर को डिक्टेशन लेने के लिये प्रधसनमंत्री कार्यालय भेज दिया। नेहरू जी को कपूर की टाइपिंग और अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद करना इतना पसंद आया कि वो प्रधानमंत्री के कार्यालय में ही रह गये। मामा के वहां पहुंचने ही ने भांजे आर के धवन के भविष्य का रास्ता तय कर दिया था।
जब 1962 में इंद्रा गांधी न्यूयॉर्क वर्ल्ड फेयर कमेटी की अध्यक्षा बनी तो उनका काम काज देखने के लिये एक स्टेनो की जरूरत पड़ी तो यशपाल कपूर अपने भांजे आर के धवन को लेकर इंद्रा गांधी से मिलवाने तीन मूर्ति निवास पर ले गये। वहां से जब आर के धवन निकले तो वे इंद्रा गांधी के पर्सनल सेक्रेटरी बन कर निकले। वे रोज सुबह 8 बजे इंद्रा गांधी के पास पहुंच जाते और देर रात जब तक इंद्रा गांधी सोने नही चली जाती तब तक वही रहते। आर के धवन का यह नित्य कर्म लगातार 22 वर्षो तक चला और इन 22 वर्षो में आर के धवन ने एक दिन की भी छुट्टी नही ली थी।
1966 में जब इंद्रा गांधी भारत की प्रधानमंत्री बनी तो उनके साथ धवन भी प्रधानमंत्री के कार्यालय पहुंच गये। वहां मामा यशपाल कपूर, प्रधानमंत्री के ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी बन गये जो बाद में इंद्र गांधी के राजनैतिक सलाहकार बने। आर के धवन स्टेनो ही रहे लेकिन वे इंद्रा गांधी की पसन्द और नापसन्द को बहुत अच्छी तरह समझते थे और उन्होंने उसी समय से अपनी निष्ठा पूरी तरह भारत के प्रधानमंत्री को न समर्पित करके इंद्रा गांधी को समर्पित कर दी थी। 1971 के बाद जब इंद्रा गांधी सर्वशक्तिमान बन कर दोबारा प्रधानमंत्री बनी तब धवन का कार्यक्षेत्र टाइपिंग से आगे निकल कर राजनैतिक हो गया। इंद्रा गांधी ने मामा यशपाल कपूर को राजनीति में भेज दिया और राज्यसभा का सदस्य बनवा दिया और भांजे आर के धवन को स्थायी रूप से प्रधानमंत्री का पर्सनल सेक्रेटरी बना दिया। धवन, वहां उस हैसियत में पहुंच कर इंद्रा गांधी के राजनैतिक कार्यकलापों में शामिल हो गये और इंद्रा गांधी के राजनैतिक सन्देश वाहक बन गये। तब तक भारत की सत्ता के गलियारों के अलावा आर के धवन के महत्व और शक्ति को शेष राष्ट्र नही जानता था।
आर के धवन की असली पहचान जून 1975 में आपातकाल में बनी जब संजय गांधी के साथ मिल कर उन्होंने पूरा देश चलाया था। आर के धवन का एक फोन मुख्यमंत्रियों को अपनी सीट पर खड़े होकर बात करना मजबूर कर देता था। 1977 में जब आपातकाल समाप्त हुआ तब भारत को यह पता चल पाया की इंद्रा गांधी के पीछे से असंवैधानिक सत्ता का केंद्र भारत के प्रधानमंत्री के स्टेनो के हाथ था। जब इंद्रा गांधी सत्ता में नही रही तो धवन, इंद्रा गांधी के साथ ही रहे और जब वे फिर वापिस 1981 में प्रधानमंत्री बनी तब वे और शक्तिशाली बन कर प्रधसनमंत्री के कार्यालय पहुंचे थे। उस काल मे भारत के कांग्रेसियों से लेकर शक्तिशाली उद्दोगपतियों तक वे ही इंद्रा गांधी के नाक कान और जबान थे।
यह सब 31 अक्टूबर 1984 तक चला जब तक इंद्रा गांधी की हत्या नही हो गयी। इंद्रा गांधी की हत्या के समय, आर के धवन साथ थे और इनको एक भी गोली नही लगी थी। इसी बात का फायदा उठाते हुये, आर के धवन की असंवैधानिक ताकत से ईर्ष्या रखने वालों ने, विशेषतः फोतेदार, अरुण सिंह और अरुण नेहरू ने उन्हें राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय व निवास से बाहर कर दिया गया। हो सकता है कि आर के धवन की कहानी यही पर समाप्त हो जाती लेकिन शाह बानू व बोफोर्स कांड से घिरे राजीव गांधी को कांग्रेस के अंदर से ही मिल रही चुनोतियों और गिरती साख ने उन्हें मामा यशपाल कपूर की सलाह मानने पर मजबूर कर दिया और 1989 में आर के की वापसी एक कांग्रेसी के रुप में हुई। वे 1990 में कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा के सदस्य और कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य भी बने। बाद में पी वी नरसिम्हाराव की सरकार में मंत्री भी रहे।
कल आर के धवन की इहलीला समाप्त हुई है और उसी के साथ भारतीय राजनीति को उधेड़ती कांग्रेस द्वारा प्रतिस्थापित शासन तंत्र की एक कहानी, जो बताती है कि इन दशकों में किन किन मर्यादाओं और मूल्यों का ह्रास हुआ है, सदैव के लिये एक सन्दर्भ बन गयी है।
URL: Veteran Congress leader and Indira’s chief enforce RK Dhawan dies at 81
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