आनंद कुमार। दुनिया के जघन्यतम अपराध क्रांतियों की आड़ लेकर हुए हैं। विश्व युद्धों की जड़ में कहीं ना कहीं क्रांति की आड़ में छुपे बैठे ऐसे ही भेड़िये थे जिन्होंने भेड़ की खाल ओढ़कर खुद को गरीबों-मजलूमों का दोस्त घोषित कर रखा था। पहले विश्व युद्ध के बाद जब ऑट्टोमन साम्राज्य का पतन हुआ तो जर्मनी में ऐसे ही क्रांति का लबादा ओढ़े नाज़ी पनपे। स्वस्तिक के चिन्ह को विकृत रूप देने वाले इन आताताइयों से आज सब वाकिफ हैं।
मगर कोई भी अपराधी अकेला नहीं पनपता। उसे विकसित होने के लिए अपना गिरोह ही नहीं, अन्य गिरोहों का भी समर्थन चाहिए। कई बार ऐसी गिरोहबंदी का नतीजा हमें गिरोहों की आपसी मारा-मारी में यानि गैंग वॉर में देखने को मिलता है। द्वित्तीय विश्व युद्ध में भी नाजी गिरोह के शुरूआती कॉमरेड यानि कम्युनिस्ट उनसे जा भिड़े थे। पोलैंड पर हमला करने के वक्त तक ये साथी थे, मगर जीत के बाद जब लूट के माल के बंटवारे की बारी आई तो दोनों एक दुसरे से भिड़ गए। नतीजा ये हुआ कि नाजी गैंग का सफाया हुआ और कम्युनिस्टों का राज रहा।
विश्व युद्धों के बीच में 1920 का दौर भारतीय राष्ट्रवाद के प्रथम चरण का भी दौर था। भारतीय स्वतंत्रता की एक और लड़ाई शुरू हो रही थी। इस बार हथियार कम और राजनैतिक जोर ज्यादा आजमाया जा रहा था। बाद में इतिहास लिखते समय इस दौर की लड़ाई में कोंग्रेस का इतिहास तो लिखा जाता है क्योंकि वो कहीं ना कहीं भारतीय स्वतंत्रता समर से जुड़े लोगों से जुड़ी थी। लेकिन जो राजनैतिक दल इसी दौर में स्वतंत्रता संग्राम से नहीं जुड़े थे उनका इतिहास आम तौर पर नहीं बताया जाता।
इसी दौर में भारत में घुसपैठ करने वाले आयातित वामपंथ का काला इतिहास वामपंथी उपन्यासकार दबा जाते हैं। योगदान के नाम पर तो खैर वैसे भी कुछ नहीं था जो लिखा जाए। हां फिरंगियों की चमचागिरी करने, युद्धों के दौरान काला बाजारी, अखबार, यूनिवर्सिटी जैसी जगहों पर कब्ज़ा ज़माने से लेकर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को तोजो का कुत्ता बुलाने जैसे इनके पुराने अपराधों का जिक्र होना चाहिए था। सन 42 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन को ‘बुर्जुआ वर्ग’ का आन्दोलन कहकर जब ये भारत की जड़ें खोदने में साम्राज्यवादियों की मदद कर रहे थे उसकी बात भी होनी चाहिए।
आज वो भगत सिंह को हड़पने की कोशिश इसलिए कर पाते हैं क्योंकि इनका तब का इतिहास लिखा ही नहीं गया था। किस्मत से संदीप देव ने कम्युनिस्टों के शुरूआती दौर पर अपनी पहली किताब ‘कहानी कम्युनिस्टों की’ लिखकर तैयार कर दी है। जैसा की अपेक्षित था काफी तेजी से पाठक इसे समेटते भी जा रहे हैं। संदीप देव ब्लूम्सबरी के पहले हिंदी लेखक हैं। राजनैतिक किताबों की श्रेणी में ये किताब हिंदी में होने के बाद भी सातवें स्थान तक जा पहुंची है। संदीप देव को बेस्ट सेलर हो जाने की भी बधाई!
1917 से 1964 तक के भारतीय वामपंथ के चरित्र को जानना हो, तो इसे पढ़िए।