सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड को ‘अवैध’ बता दिया है.
सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के बाद अब सवाल यह उठ रहा है कि राजनीतिक चंदे को लेकर भविष्य में कौन सी ऐसी व्यवस्था लागू हो जिसकी पारदर्शिता पर सवाल खड़े न हों?
सवाल ये भी है कि गुरुवार को देश की सबसे ऊंची अदालत के निर्णय के बाद राजनीतिक दलों की फंडिग आगे किस तरह से होगी और क्या बॉन्ड्स को असंवैधानिक मात्र क़रार देने से सबकुछ बिल्कुल ठीक हो जाएगा?
सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की खंडपीठ ने केंद्र की मोदी सरकार के साल 2018 में लाए गए इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को ग़ैर-क़ानूनी क़रार दिया है क्योंकि इसके तहत चंदा देने वाले की पहचान गुप्त रखी जा सकती थी.
सरकार की स्कीम को अदालत में चैलेंज करने वालों का कहना था कि इसमें काला धन को सफ़ेद किए जाने से लेकर, किसी काम को किए जाने के समझौते के तहत बड़ी कंपनियों या व्यक्तियों से चंदा लिया जा सकता है.
सुप्रीम कोर्ट ने इन दलीलों को सही माना और ये भी कहा कि चंदा देने वाले व्यक्ति या कंपनी का नाम न बताने का क़ानून सूचना के अधिकार का उल्लंघन है.
इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम के तहत स्टेट बैंक इंडिया साल भर में चार बार इलेक्टोरल बॉन्ड्स इश्यू करता था.
इसे कोई भी व्यक्ति/कंपनी बैंक से ख़रीदकर किसी राजनीतिक दल को चंदे के तौर पर दे सकता था.
इस बॉन्ड को पंद्रह दिनों के भीतर कैश कराना होता था.
आम चुनावों के समय या साल में इस स्कीम को तीस दिनों के लिए फिर से लागू किया जा सकता था– यानी इसकी ख़रीद-बिक्री हो सकती थी.
अदालत द्वारा इस स्कीम को असंवैधानिक क़रार देने के निर्णय के बाद अब आगे क्या होगा और भविष्य में राजनीतिक चंदों को लेकर कौन सी बेहतर व्यवस्था लागू हो जैसे प्रश्न सामने आ रहे हैं.
स्टेट फंडिग
चंदे और उसकी पारदर्शिता पर जानकार चुनाव के ख़र्च के लिए सरकार द्वारा सभी दलों को पैसे दिए जाने से लेकर, आयकर क़ानून में बदलाव और अधिक छूट, कॉरपोरेट फंडिग का ट्रस्ट (इलेक्टोरल ट्रस्ट) के ज़रिए बंटवारा और चुनाव ख़र्च की सीमा तय करने जैसे सुझाव दे रहे हैं.
हालांकि कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव के डायरेक्टर और आरटीआई कार्यकर्ता वेंकटेश नायक कहते हैं कि सबसे पहले तो मुल्क में इसी बात को लेकर व्यापक बहस होनी चाहिए कि क्या कॉरपोरेट्स को राजनीतिक दलों को चंदा देने का अधिकार होना चाहिए?
वेंकटेश नायक इसके लिए ब्राज़ील का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि इस लातिन अमेरिकी देश के चुनावी क़ानून में राजनीतिक दल कॉरपोरेट्स से चंदा नहीं ले सकते हैं.
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी सीताराम येचुरी ने बीबीसी से बातचीत में स्टेट फंडिग का समर्थन किया. उनके अनुसार पारदर्शिता और लेवल प्लेइंग फ़ील्ड (समान अवसर) भी होगी.
उनका कहना था कि ये स्कैंडेनिविया और जर्मनी जैसे मुल्कों में लागू है.
भूटान में भी राजनीतिक दलों का चुनावी ख़र्च स्टेट देता है. हालांकि पंजीकृत दल के सदस्य एक सीमा तक अपनी ओर से धन पार्टी को दे सकते हैं.
चुनाव में पारदर्शिता लाने के मुहिम पर काम करने वाली संस्था एसोसियेशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म के जगदीप छोकर कहते हैं कि इसमें ज़रूरत होगी इस बात को जानने की पिछले चुनाव में किसी दल न कितना पैसा ख़र्च किया है, लेकिन क्या राजनीतिक दल अपने ख़र्च का सही लेखा-जोखा देने के लिए तैयार होंगे?
छोकर कहते हैं, “इसमें ये भी तय करना होगा कि राजनीतिक दल सरकार से ख़र्च लेने के बाद किसी दूसरी जगह या व्यक्ति से भी चंदा न लेता रहे.”
आयकर में अधिक छूट
सुप्रीम कोर्ट में इलेक्टोरल बॉन्ड्स के मामले पर याचिका दाख़िल करने वाले वकील शादां फ़रासत कहते हैं कि राजनीतिक दलों कों चंदा देने पर कंपनियों को आयकर में जिस तरह की छूट मिलती है उसकी सीमा बढ़ाकर इसमें पारदर्शिता लाई जा सकती है.
आयकर क़ानून 1961 में किसी कंपनी को राजनीतिक दल को चंदा देने के बदले 80GGC नियम के तहत छूट मिलती है.
हालांकि ये साफ़ किया गया है कि इसके लिए वही राजनीतिक दल योग्य हो सकते हैं जो पंजीकृत हों. इसके साथ ही चंदे में दी गई राशि चेक में होनी चाहिए.
इस नियम को लाने का मुख्य ध्येय ही था कि इससे राजनीतिक चंदा देने के मामले में पारदर्शिता आएगी और भ्रष्टाचार पर लगाम रहेगी.
सीताराम येचुरी कहते हैं कि कॉरपोरेट का चंदा देने का अर्थ ही रहा है कि इसके बदले में उन्हें कुछ चाहिए ,उसमें जो पारदर्शिता थी उसे ख़त्म कर दिया गया था.
ट्रस्ट के माध्यम से फंडिग
सूचना और भोजन के अधिकार के क्षेत्र में काम करने वाली अंजलि भारद्वाज का कहना है कि सीधे-सीधे ‘क्विड प्रो क्यो’ पर (कुछ पाने के एवज़ में कुछ देना) लगाम के लिए एक तरह का ट्रस्ट क़ायम हो सकता है जिसमें बहुत सारी कंपनियां या व्यक्ति धन दान करें और इसे राजनीतिक दलों में बांटा जाए.
ये व्यवस्था पहले भी काम करती रही है.
जानकार कहते हैं कि इसका फ़ायदा ये है कि इसमें ट्रस्ट को ये बताना होता है कि उसने किस दल को कितना चंदा दिया.
इलेक्टोरल बॉन्ड में चंदा देने वाले का नाम गुप्त होता था, जिससे लेन-देन का अधिक ख़तरा होता था बल्कि इस तरह से कोई भी व्यक्ति देश या विदेश से किसी राजनीतिक दल को चंदा दे सकता था और उसके बदले लाभ ले सकता था.
‘हिंदू बिज़नेसलाइन’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ वित्तीय वर्ष 2022-23 में भारत की सबसे बड़ी इलेक्टोरल ट्रस्ट प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट ने अपने फंड का 71 प्रतिशत हिस्सा बीजेपी को दिया था.
अख़बार के मुताबिक़ बॉन्ड्स के बाज़ार में आ जाने के बावजूद ट्रस्ट में तेज़ी से बढ़ोतरी हो रही है.
पिछले दस सालों में इसमें 360 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ है.
ट्रस्ट का आइडिया साल 2013 में यूपीए सरकार के समय आया था.
इसके तहत कंपनियां ट्रस्ट क़ायम कर सकती थीं और जिसमें कोई व्यक्ति या कंपनी दान दे सकती थीं.
सारे चंदे डिजिटल मोड में ही हों
अंजलि भारद्वाज कहती हैं कि जब सब्ज़ी और रिक्शेवालों तक को यूपीआई से पेमेंट किया जा रहा है तो राजनीतिक दलों को पैसा कैश में क्यों?
अंजली भारद्वाज सूचना और भोजन अधिकार कार्यकर्ता
कमोडोर लोकेश बतरा जो इस क्षेत्र में सालों से काम कर रहे हैं कहते हैं कि रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया भी यही चाहती थी कि सारे पेमेंट्स चेक या ड्राफ्ट से हों.
लोकेश बतरा कहते हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड्स के तहत ज़्यादातर चंदा देने वाले बेहद अमीर लोग थे या कंपनियां.
चुनाव ख़र्च की सीमा तय हो
अमेरिका में रह रहे बतरा ने बीबीसी से फ़ोन पर कहा कि चुनाव में पारदर्शिता लाने का एक तरीक़ा होगा राजनीतिक दल के ख़र्च की सीमा तय करना और उसका सख़्ती से पालन.
एडीआर के जगदीप छोकर का तो मानना है कि राजनीतिक दलों के दस पैसे का चंदा भी अगर मिलें तो उसको देने वाले का नाम बताया जाना चाहिए.
अभी के नियमों के तहत बीस हज़ार रुपये से कम चंदा देने वालों का नाम बताने की राजनीतिक दलों को ज़रूरत नहीं है, जिसका नतीजा ये होता है कि ख़ुद को ग़रीब बताने वाले राजनीतिक दलों को पास हर साल 400-600 करोड़ रुपये का चंदा इकट्ठा होता है, मगर वो किसी चंदे की रक़म को बीस हज़ार तक भी नहीं दिखाते.
वेंकटेश नायक कहते हैं कि कुछ देशों में इस तरह की व्यवस्था है कि वहां कोई व्यक्ति कितना चंदा दे सकता है इसके लिए सीमा निर्धारित की गई है. भारत में भी वैसी ही सीमा निर्धारित की जानी चाहिए.