श्वेता पुरोहित-
जूनागढ़में नरसी मेहता नामके एक प्रसिद्ध भक्त हुए हैं। वे सदैव भगवान्के भजनमें लीन रहते थे, साधु-सन्तों और दीन-दुखियोंकी मदद करते-करते उनके पासका सारा धन खर्च हो गया।
उनकी दृष्टि में कोई भेद-भाव नहीं था। वे कण-कणमें परमात्माका दर्शन करते रहते। रूढ़िवादी लोग उनसे सदा अप्रसन्न रहते थे, नाते-रिश्तेदार भी रूठ गये। बेटी सयानी हो गयी, लेकिन उनके पास फूटी कौड़ी भी नहीं थी। उनकी धर्मपत्नी मानेकबाई बार-बार उलाहना दिया करती कि बेटी सयानी हो गयी है, आपको कोई चिन्ता नहीं है, कौन हमारी सहायता करेगा ?
भक्त नरसीने खीझ, क्रोध और लाचारीसे परे पत्नीके चेहरेको देखा। मुसकराकर बोले – ‘प्रिये ! चिन्ता क्यों करती हो ? सब कुछ मेरे प्रभुपर छोड़ दो, वे स्वयं व्यवस्था करेंगे और हाँ, पिछली रात हमारे सपनेमें भगवान् श्रीकृष्ण आये थे और मुझसे कहा- तुम बेटीकी चिन्ता छोड़ दो, वह तो साक्षात् लक्ष्मी है। द्वारिकाके सेठ सामलदासके पास अपनी आवश्यकताभर रुपयोंकी हुण्डी भेज दो, वह तुम्हें रुपये दे देगा।’

पत्नी प्रसन्न हो गयी। नरसी हुण्डी लिखकर अपने विश्वस्त आदमीको द्वारिकासे हुण्डी भुनाने भेज ही रहे थे, उसी समय छः-सात सन्त आ गये, जो द्वारिकापुरी जा रहे थे। उनके पास नगद रुपये थे, जो चोरीके डरसे नहीं ले जाना चाहते थे। उन्होंने नरसीकी हुण्डी ले ली और रुपये अदा कर दिये। उन्हीं रुपयोंसे नरसीने बेटीकी शादी कर दी। वह ससुराल चली गयी।
उधर द्वारिकामें सन्त लोग सेठ सामलदासको खोजते-खोजते थक गये और बगीचेमें बैठकर बात करने लगे कि नरसीने कहीं हमको ठग तो नहीं लिया। उसी समय एक व्यक्ति सेठके भेषमें आया और कहा- आपलोग नरसीकी हुण्डी लाये हैं, तो दीजिये, हम पैसा अदा कर देते हैं। सन्तोंने हुण्डी दी और रुपये पा गये। सेठने उन्हें दो हजार रुपये अतिरिक्त दिये। सन्तोंने कहा- ‘हमारे पास कलम नहीं है कि पावतीके हस्ताक्षर कर दें।’ सेठ सामलदासने कहा- “कोई बात नहीं है, चिन्ता मत करो, हमारे साथ व्यापार विश्वाससे किये जाते हैं, विश्वास है तो सब ठीक होता है।”
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा है कि –
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।।
अर्थात्:
जो भक्तजन अनन्यचित्त से (निष्कामभाव से केवल) मेरी उपासना करते हैं, उन नित्य-निरंतन मेरा चिंतन करनेवाले लोगों का योगक्षेम मैं स्वयं वहन कर लेता हूँ ।
जो मनुष्य एक मात्र मुझे लक्ष्य मान कर अनन्य-भाव से मेरा ही स्मरण करते हुए कर्तव्य-कर्म द्वारा पूजा करते हैं, जो सदैव निरन्तर मेरी भक्ति में लीन रहता है उस मनुष्य की सभी आवश्यकताऎं और सुरक्षा की जिम्मेदारी मैं स्वयं निभाता हूँ।
इतिहास साक्षी है कि जिस-जिसने भी प्रभुपर मन, वचन और कर्मसे विश्वास किया। उस प्रभुने उस विश्वासकी रक्षा की, भक्तजनोंको पूरा संरक्षण दिया। उपर्युक्त प्रसंग भी इसी भावको पुष्ट करता है।
जय श्री हरि 🙏🌷
संतकवि नरसी मेहता की जय 🙏🌷