श्वेता पुरोहित:-जब राजा बलि की यज्ञशाला में साक्षात् यज्ञमूर्ति भगवान् विष्णु ने त्रिलोकी को नापने के लिये अपना पैर फैलाया, तब उनके बायें पैरके अँगूठे के नखसे ब्रह्माण्डकटाह का ऊपर का भाग फट गया। उस छिद्र में होकर जो ब्रह्माण्ड से बाहर के जल की धारा आयी, वह उस चरणकमल को धोने से उसमें लगी हुई केसर के मिलने से लाल हो गयी। उस निर्मल धारा का स्पर्श होते ही संसार के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, किन्तु वह सर्वथा निर्मल ही रहती है। पहले किसी और नाम से न पुकारकर उसे ‘भगवत्पदी’ ही कहते थे। वह धारा हजारों युग बीतने पर स्वर्ग के शिरोभाग में स्थित ध्रुवलोक में उतरी, जिसे ‘विष्णुपद’ भी कहते हैं। यही धारा पृथ्वी पर गंगा के रूप में अवतरित हुयी।
उस ध्रुवलोक में उत्तानपाद के पुत्र परम भागवत ध्रुवजी रहते हैं। वे नित्यप्रति बढ़ते हुए भक्तिभाव से ‘यह हमारे कुलदेवता का चरणोदक है’ ऐसा मानकर आज भी उस जलको बड़े आदर से सिरपर चढ़ाते हैं। उस समय प्रेमावेश के कारण उनका हृदय अत्यन्त गद्गद हो जाता है, उत्कण्ठावश बरबस मुँदे हुए दोनों नयनकमलों से निर्मल आँसुओं की धारा बहने लगती है और शरीर में रोमांच हो आता है।
इसके पश्चात् आत्मनिष्ठ सप्तर्षिगण उनका प्रभाव जानने के कारण ‘यही तपस्या की आत्यन्तिक सिद्धि है’ ऐसा मानकर उसे आज भी इस प्रकार आदरपूर्वक अपने जटाजूट पर वैसे ही धारण करते हैं, जैसे मुमुक्षु जन प्राप्त हुई मुक्ति को। यों ये बड़े ही निष्काम हैं; सर्वात्मा भगवान् वासुदेव की निश्चल भक्ति को ही अपना परम धन मानकर इन्होंने अन्य सभी कामनाओं को त्याग दिया है, यहाँ तक कि आत्मज्ञानको भी ये उसके सामने कोई चीज नहीं समझते।
आज भी हमें आकाश में सप्तर्षिगण और ध्रुवजी तारों के रूप में दर्शन देते हैं।
श्रीमद्भागवत पुराण ५ .१७
श्री वामनदेव रूपी महाविष्णुजी की जय!