शशि झा। यह व्रत आश्विन माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को आता है। ऐसी मान्यता है कि यह व्रत स्त्रियों द्वारा अपनी संतान की आयु, आरोग्य तथा उनके कल्याण हेतु पूरे विधि-विधान से किया जाता है। यदि आप क्षेत्रीय संदर्भ से देखें तो इस व्रत के कई अन्य नाम आपको मिलेंगे, जैसे कि ‘जीतिया’ या ‘जीउतिया’ तथा ‘जिमूतवाहन व्रत’, आदि। मिथिलांचल , बिहार तथा उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में इस व्रत की बहुत मान्यता है।
व्रत कथा:-
समुद्र तट के निकट नर्मदा नदी के पास कंचनबटी नामक नगर था। जहाँ का राजा मलयकेतु राज करता था। नर्मदा नदी के पश्चिम दिशा में मरुभूमि था जिसे बालुहटा के नाम से जाना जाता था उस जगह पर एक विशाल पाकड़ का पेड़ था। उस पेड़ पर एक चील रहा करती थी। पेड़ के निचे खोधर था उसमें एक सियारिन ने अपना बसेरा बना रखा था। चील व सियारिन दोनों में बड़ी घनिष्ठ मित्रता थी।
एक बार की बात है दोनों ने सामान्य महिला के जैसे जितिया व्रत करने का संकल्प लिया और माता शालीनबहन के पुत्र भगवान् जीऊतवाहन की पूजा करने के लिए निर्जला व्रत रखा। भगवान् की लीला कुछ ऐसी हुई की उसी दिन उस नगर के एक बहुत बड़े व्यापारी का मृत्यु हो गयी। जिसका दाह संस्कार उसी मरुस्थल पर किया गया। वह काली रात बहुत विकराल थी। घनघोर घटा बरस रही थी। बिजली कड़क रही थी बादल गरज रहे थे। जोरों की आंधी तूफ़ान चल रही थी। सियारिन को बहुत जोर की भूख लगी थी मुर्दा देखकर वह अपने आपको रोक न सकी और उसका व्रत टूट गया। परन्तु चील ने नियम एवं श्रद्धा के साथ दूसरे दिन अन्य महिलाओं की तरह व्रत का पारण किया।
लोगों का ऐसा मानना है की अगले जन्म में दोनों सहेलियों ने पुत्री के रूप में एक ब्राम्हण परिवार जिसका नाम भास्कर था उनके घर जन्म लिया । बड़ी बहन के रूप में चील ने जन्म लिया जिसका नाम शीलवती रखा गया। शीलवती का विवाह बुद्धिसेन के साथ हुआ। छोटी बहन के रूप में जो कि पूर्व जन्म में सियारिन थी उसका नाम कपुरावती रखा गया उसका विवाह उस नगर के राजा मलायकेतु साथ हुआ। जिसके फलस्वरूप कपुरावती कंचनबटी नगर की रानी बनी। भगवान् जीऊतवाहन के आशीर्वाद स्वरुप शीलवती को सात पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। लेकिन रानी कपुरावती के सभी बच्चे की जन्म लेते ही मृत्यु हो जाती थी जिस कारण कपुरावती उदास रहने लगी।
कुछ साल बाद जब शीलवती के सातो पुत्र बड़े हुए तो राजा मलयकेतु के राज् दरबार में काम करने लगे। रानी कपुरावती के मन में शीलवती के सातों पुत्रों को देख कर इर्ष्या की भावना आ गयी। और उसके अंदर का शैतान जाग गया। उसने राजा मलयकेतु को राजी कर शीलवती के सातों पुत्रों का सर कटवा कर सात नए बर्तन मंगवा कर उसमे कटे सर रख कर लाल कपड़े से ढक कर शीलवती के घर भिजवा दिया।
भगवान् से भला क्या छुपा है जो यह छुप जाता भगवान् जीमुतवाहन ने मिट्टी से सातों भाइयों सर बनाकर सभी के सिर को उसके धड़ से जोड़ कर अमृत छिड़क कर उनमे जान डाल दिया। सातों युवक मानो जैसे एक गहरी नींद से सोकर जगे हो ज़िंदा हो गए और अपने घर लौट कर आ गए। और जो कटे हुए सर रानी ने भेजा था वह फल बन गए।
इधर रानी कपुरावती बहुत खुस थी और बुद्धिसेन के घर की सुचना पाने के लिए व्याकुल थी । कपुरावती से रहा नहीं गया वह स्वयं अपनी बड़ी बहन के घर गयी और वहां का दृश्य देख कर सन्न रह गयी। जब उसे होश आया तो अपनी बहन को सारा वृतान्त कह सुनाई , अब उसे अपनी गलती पर बहुत पछतावा हो रहा था। भगवान् जीऊतवाहन की कृपा से शीलवती को अपनी पूर्व जन्म की सारी बातें याद आ गयी।
वह कपुरावती को लेकर उसी पाकड़ के पेड़ के पास गयी एवं पूर्व जन्म की सारी बातें उसे कपुरावती को सुनाई। कपुरावती बेहोश होकर गिर पड़ी और उसकी मृत्यु हो गयी। जब राजा को इस घटना की खबर मिली तो वह बहुत दुखी हुआ और उस जगह पर जाकर पाकड़ के पेड़ के नीचे ही कपुरावती का दाह संस्कार कर दिया।
साभार: शशि झा के फेसबुक वाल से
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