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India Speak Daily > Blog > राजनीतिक विचारधारा > पंचमक्कारवाद > खुलासा..नोटा को बढ़ावा देने और शहरी नक्सलियों के जरिए लोकतंत्र को कुचलने के पीछे है एक बड़े NGO का हाथ!
पंचमक्कारवाद

खुलासा..नोटा को बढ़ावा देने और शहरी नक्सलियों के जरिए लोकतंत्र को कुचलने के पीछे है एक बड़े NGO का हाथ!

Vipul Rege
Last updated: 2022/09/05 at 4:44 PM
By Vipul Rege 1.6k Views 7 Min Read
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7 Min Read
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सन 1976 में समाजवादी नेता जय प्रकाश नारायण ने एक संस्था की स्थापना की। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (पीयूसीएल) नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों के लिए आवाज़ उठाती थी। आपातकाल में सत्ता का निरंकुश व्यवहार देखने के बाद उन्होंने जेल से बाहर आते ही इस संस्था का गठन किया। जेपी इस संस्था के तले नागरिकों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाते रहे। सन 1980 के बाद इस संस्था में आने वाले लोग और उनके उद्देश्य बदल गए। इसी संस्था ने 2013 में सुप्रीम कोर्ट में अपील करके कहा कि भारत में नोटा लागू किया जाना चाहिए। आपको ये जानकर हैरानी होगी कि ‘नोटा और चार वामपंथियों की गिरफ्तारी का विरोध करने वाली एक संस्था में आपसी गहरा सम्बन्ध है।

मौजूदा वक्त में पीयूसीएल की अध्यक्ष कौन हैं ये आपको जानकर हैरानी होगी। वे जयपुर की कविता श्रीवास्तव हैं। आपको ये जानकर और भी आश्चर्य होगा कि प्रधानमंत्री मोदी की हत्या की साजिश के चार आरोपियों की पैरवी करने वालों में एक कविता श्रीवास्तव भी हैं। उन्होंने महाराष्ट्र सरकार द्वारा की गई इस गिरफ्तारी पर मोदी को दोषी ठहराते हुए उन्हें फासिस्ट तक कह डाला है।

सन 2011 में इन्ही कविता श्रीवास्तव के घर राजस्थान और छत्तीसगढ़ की पुलिस ने छापामारी की थी। उन पर माओवादियों को आश्रय देने का आरोप था। उस वक्त पीयूसीएल ने पुलिस की इस कार्रवाई का विरोध किया था। स्पष्ट है कि जेपी द्वारा नागरिकों के अधिकारों के लिए बनाई गई संस्था देश विरोधियों को बचाने का जरिया बन गई है।

जानिये कि देश की जनता पर नोटा थोपने वाली पीयूसीएल ने किन-किन लोगों की पैरवी की है। नक्सलियों के सहयोगी प्रोफेसर साईंबाबा की गिरफ्तारी पर इस संस्था ने विरोध किया। कश्मीर में पत्थरबाजों की मौत, कश्मीरियों पर अदालती मामले का विरोध किया। यहाँ तक कि अफजल गुरु जैसे आतंकी की फांसी का विरोध करने वाली भी यही संस्था थी। नोटा का समर्थन करने वालों को सोचना चाहिए कि ये नियम देश पर थोपने वाले लोग आख़िरकार किस मानसिकता के हैं।

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सन 2014 में एक नकारात्मक चुनाव नियम अस्तित्व में आता है। नन ऑफ़ द एबव यानि नोटा। उसी साल बेहाल राज्य बिहार में पहली बार 9.47 लाख लोग नोटा का इस्तेमाल करते हैं। इस परम्परा को आगे बढ़ाते हुए गुजरात, बंगाल, तमिलनाडु और गोवा के वोटर चुनावों में ‘सभी राजनीतिक दलों के खिलाफ’ वोट करते हैं।

वोटिंग मशीन में कुकुरमुत्ते की तरह उग आया ये ‘गुलाबी’ बटन’ लोकतंत्र के लिए बड़ा घातक है। सोशल मीडिया पर नोटा को लेकर गजब का संग्राम मचा है। भारतीय वोटर भावना में बहकर अपने क्षेत्र के उम्मीदवार को सबक सिखाना चाहता है लेकिन क्या उसे मालूम है नोटा का भविष्य अंधकारमय है।

2014 के चुनाव में बिहारी वोटर्स द्वारा कायम किया गया नोटा के प्रतिशत का कीर्तिमान (2.49%) आज भी कायम है। पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में किसी भी राज्य ने इतनी बड़ी संख्या में नोटा का बटन नहीं दबाया। स्पष्ट है कि भारतीय मतदाता का रुख अब तक सकारात्मक रहा है। ये लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है।

भारतीय मतदाता की मानसिकता ये होती है कि उसका वोट जीतने वाली पार्टी को ही जाए। विधानसभा में वह अमूमन ‘व्यक्ति’ देखता है और लोकसभा चुनाव में ‘दल’ को महत्व देता है। 2019 के महासमर से पहले लोगों को नोटा पर बटन दबाने के लिए जागरूक किया जा रहा है। लोगों को इस बात के लिए बहलाया जा रहा है कि वे अपना अत्यंत महत्वपूर्ण वोट देश के सभी राजनीतिक दलों के खिलाफ दें न कि एक बेहतर उम्मीदवार को।

देश के एक बड़े वर्ग को बड़ी गलतफहमी है कि नोटा का प्रयोग कर वे अपने क्षेत्र के उम्मीदवार को धूल चटा देंगे। नोटा का प्रयोग करना और वोट न देकर पिकनिक चले जाना एक ही बात है। 1961 का चुनाव नियम जस का तस है। जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 65 के अनुसार सबसे अधिक वैध वोट पाने वाला उम्मीदवार विजयी होगा। इसमें कहीं नोटा की दखलअंदाज़ी नहीं है। आपके क्षेत्र के उम्मीदवार को हज़ार नोटा वोट मिले, कुछ फर्क नहीं पड़ता। नोटा की निरर्थकता इस उदाहरण से समझिये।

मान लीजिये आपके क्षेत्र में विभिन्न दलों के तीन उम्मीदवार खड़े हैं। क्षेत्र के लगभग एक लाख वोटर तीनों ही उम्मीदवारों को अयोग्य मानते हैं। आप और अधिकांश लोग नोटा दबाना चाहते हैं। अब मतदान के दिन नब्बे हज़ार वोटर ये सोचकर नोटा दबाते हैं कि सभी ने ऐसा ही किया होगा। लेकिन ऐसा नहीं होता। बचे दस हज़ार खेल बिगाड़ सकते हैं।

बचे दस हज़ार मतदाताओं ने अपने वोट तीन दलों को बराबर बाँट दिए। ‘अ’ पार्टी को 3333 वोट, ‘ब’ पार्टी को 3333 वोट और ‘स’ पार्टी को मिल जाते हैं 3334। अब आप नोटा दबाए या पिकनिक पर जाए कुछ फर्क पड़ता है क्या। ‘स’ पार्टी का उम्मीदवार जीत गया। और मज़े की बात ये कि ये उस उम्मीदवार से भी बुरा था, जिससे खफा होकर आपने नोटा दबाया था।

  • सभी राजनीतिक दलों के खिलाफ वोट करना एक तरह से लोकतंत्र का अपमान ही है। आप वोट देकर भी वोट नहीं देते।
  • नोटा के कारण दूसरे मतदान की नौबत आती है तो क्या गारंटी है कि वोटिंग प्रतिशत पूर्व जैसा ही होगा।

  • हो सकता है दूसरी बार ‘परम्परागत वोटर’ मतदान केंद्र पर न जाकर अपना रोष जता दे। फिर नोटा वाले क्या करेंगे।

  • जिन अयोग्य उम्मीदवारों को आप नकारेंगे, वह दूसरे क्षेत्र में जाकर चुनाव लड़ लेगा। आपका नोटा किस काम आया।

  • दुबारा मतदान की नौबत में करोड़ों रुपया खर्च होगा। सरकारी तंत्र प्रभावित होगा। एक तरह से देश एक बेवजह के स्पीड ब्रेकर से गुजरेगा।

URL: A NGO is behind promoting nota and crushing democracy through urban Naxalism

Keywords: People’s Union for Civil Liberties, Election 2019, NOTA, Supreme Court, Urban Naxalism, NGO, cast vote, indian dremocrasy, चुनाव 2019, नोटा, सुप्रीम कोर्ट, शहरी नक्सलवाद, वोट, भारतीय चुनाव,

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TAGGED: Election 2019, NGO, NOTA, Supreme Court, Urban Naxalism
Vipul Rege August 31, 2018
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Vipul Rege
Posted by Vipul Rege
पत्रकार/ लेखक/ फिल्म समीक्षक पिछले पंद्रह साल से पत्रकारिता और लेखन के क्षेत्र में सक्रिय। दैनिक भास्कर, नईदुनिया, पत्रिका, स्वदेश में बतौर पत्रकार सेवाएं दी। सामाजिक सरोकार के अभियानों को अंजाम दिया। पर्यावरण और पानी के लिए रचनात्मक कार्य किए। सन 2007 से फिल्म समीक्षक के रूप में भी सेवाएं दी है। वर्तमान में पुस्तक लेखन, फिल्म समीक्षक और सोशल मीडिया लेखक के रूप में सक्रिय हैं।
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