
शंकर शरण :- भारत में मौलाना अबुल कलाम आजाद के जन्मदिन 11 नवंबर पर ‘राष्ट्रीय शिक्षा दिवस’ मनाना तमाम हिन्दू नेताओं के धिम्मीवाद और उन के एक वर्ग विशेष की डफरता का एक आदर्श नमूना है। यह हमारे कर्णधारों के मानसिक-बौद्धिक पतन का एक प्रमाण भी है कि वे शिक्षा के नाम पर गर्व से जिहादी नेताओं का महिमामंडन करते हैं। इस प्रकार, भारत की धर्म-संस्कृति का पूर्ण विनाश चाहने वालों को प्रतिष्ठा देने में देश के संसाधन लगाते हैं।
यह सब तब, जब कि मौलाना आजाद के जीवन, कार्य और विचारों में ऐसा कुछ भी नहीं जिस से उन्हें शिक्षा से जोड़ा भी जा सके – शिक्षा का आदर्श समझना तो बहुत दूर की बात रही। मौलाना अबुल कलाम ने न कभी औपचारिक पढ़ाई की, न ही कोई शिक्षा संस्थान बनाया। उन की लिखी मामूली पुस्तिकाएं भी केवल इस्लाम का प्रचार भर हैं। उन की एक मात्र अंग्रेजी पुस्तक कुरान का अनुवाद है। अन्य पुस्तक ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में भी उन के राजनीतिक जीवन के पूर्वार्ध की, यानी खुले जिहाद की सारी बातें गायब हैं। यानी, छलपूर्ण हैं।
इस शैक्षिक खालीपन के अलावा, आजाद की राजनीतिक विरासत भी घोर हानिकारक है। आधुनिक भारत में कट्टरपंथी, विशेषाधिकारी इस्लामी राजनीति शुरू करने वालों में आजाद अग्रगण्य थे। 1912 ई. से अपने अखबार ‘अल हिलाल’ से आजाद ने वह अभियान चलाया। फिर, 1913 ई. में अपनी मजहबी पार्टी ‘हिजबुल्ला’ (अल्लाह की पार्टी) बनायी। इस के बाद, 1920 ई. में मुसलमानों को ‘हिजरत’, यानी भारत छोड़ कर मुस्लिम देशों को प्रस्थान कर जाने का फतवा भी जारी किया। यह शरीयत आधारित राजनीति का सहज रूप था। उतना ही सहज, जितना गैर-मुस्लिमों को नीचा, दूसरे दर्जे के नागरिक ‘जिम्मी’ मानना, आदि।
इसीलिए आजाद के पूरे लेखन, भाषण, कार्य, संगठन, आदि में हिन्दुओं की कहीं कोई चर्चा नहीं मिलती है। मानो उन का कोई अस्तित्व ही न रहा हो! यही पक्के इस्लामी नेताओं का रवैया होता है, जो खुलकर या चुपचाप, तमाम गैर-मुस्लिमों को घृणित मानते हैं। आजाद ठीक ऐसे ही इस्लामी नेता थे।
इसलिए प्रो. मुशीर-उल-हक जैसे विद्वानों ने ठीक ही कहा है कि भारत-विभाजन का मूल आधार वह विचारधारा थी जिस ने इस्लाम को राजनीति के केंद्र में रखा। यह काम आधुनिक भारत में मौलाना आजाद जैसे नेताओं ने ही आरंभ किया था! वे देशभक्ति को ‘कुफ्र’ यानी सब से घृणित भावनाओं में गिनते थे। क्योंकि प्रोफेट मुहम्मद ने ही इस्लाम की भौगोलिक सीमा बाँधने की सख्त मनाही की थी। इसीलिए शायर इकबाल ने भी लिखा कि ‘वतनपरस्ती’ भी बुतपरस्ती है, जिसे इस्लाम सब से घृणित मानता है’। अतः कुरान को राजनीति का आधार बनाते ही ‘वन्दे मातरम्’ या हिन्दुओं के साथ मुसलमानो का सह-अस्तित्व असंभव होना ही है।
फिर, अपने बारे में भी मौलाना आजाद ने झूठी बातें फैलने दी, और खुद भी फैलाईं। केवल इसलिए ताकि उन्हें अरब मुसलमानों का वंशज, और अरब में पढ़ा हुआ बड़ा आलिम माना जाए। जो वे बिलकुल नहीं थे।
ऐसे क्षुद्र कामों की तुलना भारत में स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, कविगुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर, योगीराज श्रीअरविन्द, पंडित मदन मोहन मालवीय, अथवा क. मा. मुंशी जैसे अनेकानेक सच्चे ज्ञानियों और महान चिंतक-शिक्षकों के विचारों और कार्यों से करके देखें। तब विचार करें कि इन मनीषियों में किसी को हमारी ‘राष्ट्रीय शिक्षा’ का प्रतीक न दिखाकर मौलाना आजाद को वह स्थान देना भारत के नेताओं की आत्महीनता और मूर्खता का बेजोड़ नमूना है! वे इस्लामी जिहाद के सामने खुद को स्वेच्छा से नीचा, धिम्मी मानते हैं। इसीलिए, पूरी क्षमता का उपयोग करते हुए, देश के संसाधन बर्बाद करते हुए, नई पीढ़ियों को अनजाने ही जिहादी मतवाद के सामने झुकने, और इस्लामी अहंकार को सलामी देने के लिए विवश कर रहे हैं।
आखिर,जब आप मौलाना आजाद जैसे पक्के इस्लामी, ‘हिजबुल्ला’ के नेता, भारत को ‘दारूल हरब’ बताकर, इस देश के विरुद्ध फतवे देने वाले को भारत की ‘राष्ट्रीय शिक्षा’ का सर्वोच्च प्रतीक बता कर बड़े-बड़े उत्सव मना रहे हैं – तो इस से अधिक स्वघोषित धिम्मी कारनामा क्या हो सकता है!?
यह कहना भी धिम्मीवादी आत्महीनता है कि मौलाना आजाद ‘राष्ट्रवादी’ थे जिन्होंने भारत-विभाजन का विरोध किया था। यह असली, इस्लामी बात छिपा कर कहा जाता है। मौलाना आजाद जैसे कुछ मौलानाओं ने खुल कर कहा था कि वे भारत विभाजन के विरोधी इसलिए हैं क्योंकि कि वे पूरे हिन्दुस्तान पर इस्लामी कब्जा मानते और चाहते हैं! तब उन्हें लगा था कि विभाजन के बाद भारत के बचे हिस्से से इस्लाम को बाहर कर दिया जाएगा। वे इस बात के विरोधी थे। उन का कारण इस्लामी कट्टरता थी, न कि भारत के प्रति प्रेम। जैसा, ऊपर कहा चुका है कि इस्लाम में देशभक्ति ‘कुफ्र’ यानी हराम है।
पर आज के स्वघोषित ‘सांस्कृतिक-राष्ट्रवादी’ अपने आपको, अपने भोले अनुयायियों को, देश की जनता को, और विशेषकर नई पीढ़ियों को भ्रमित कर रहे हैं। उन्हें धोखे से इस्लामी मतवाद की श्रेष्ठता और भारत की हिन्दू धर्म-संस्कृति की हीनता की पट्टी पढ़ा रहे हैं। अन्यथा स्वामी विवेकानन्द या रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसी महानतम आधुनिक भारतीय विभूतियों की तुलना में एक कट्टरपंथी मौलाना को शिक्षा का आदर्श बताकर खुशी से नाच न रहे होते।
निस्संदेह, यह परिदृश्य वर्तमान भारत की सांस्कृतिक-बौद्धिक दुर्दशा की लज्जाजनक स्थिति का संकेत है। इसलिए भी क्योंकि अब इस पर आवाज उठाने वाला कोई नेता या बुद्धिजीवी भी देश में शायद नहीं बच गया है।