बंदऊँ गुरू पद पदुम परागा जय सियाराम सुरूचि सुबास शरस अनुरागा जय सियाराम
यदि हमारा जीवन गणित के एक प्रश्न के समान है, तो उसे हल करने का सूत्र क्या है? इस सुंदर प्रसंग के वर्णन के पहले ये कुछ पंक्तियाँ स्मरण के योग्य हैं –
श्री गुरु पद नख मनि गन जोती,
सुमिरत दिव्य दृष्टि हियँ होती।
दलन मोह तम सो सप्रकासू,
बड़े भाग उर आवई जासू।
उघरहिं विमल विलोचन ही के,
मिटहिं दोष दुःख भव रजनी के।
सू झहिं राम चरित मनि मानिक,
गुपुत प्रगट जहँ जो जेहिं खानिक।
रामचरित मानस में जो प्रभु श्री राम के जीवन चरित्र के जो मणि माणिक के समान अनमोल रत्न हैं उनमें से कुछ तो प्रकट हैं। सामान्य जन भी राम चरित मानस, या वाल्मीकि रामायण आदि ग्रंथों को पढ़ कर जानते हैं।
परंतु कुछ ऐसे अनमोल रत्न हैं जो गुप्त रहस्य हैं जो गुरु कृपा से प्राप्त निर्मल विवेक बुद्धि के बिना समझ में नहीं आ सकते।
उपरोक्त प्रश्न कि जीवन रूपी गणित के प्रश्न को हल करने का सही सूत्र क्या है?
इस की अनुभूति जिस दिन ह्रदय में हुई, उसी दिन रामचरित मानस की इस चौपाई का अर्थ समझ में आ गया कि –
सूझहिं राम चरित मणि माणिक,
गुपुत प्रगट जहाँ जो जेहिं खानिक।
आइये जरा प्रश्न पर विचार करें ।
ये सभी जानते हैं कि अयोध्या नरेश महाराज दशरथ जी के तीन रानियाँ थीं।
कौशल्या, कैकेयी, और सुमित्रा ।
उनके कोई संतान नहीं थी।
संतान प्राप्ति के लिए महाराज दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ किया। पुत्रेष्टि यज्ञ में यज्ञ भगवान ने प्रसाद स्वरुप उन्हें खीर प्रदान की जो उन्हें तीनों रानियों को खिलाना था। इस खीर के बँटवारे को कृपया ध्यान से पढ़ें:
महाराज दशरथ ने उस खीर के दो भाग किए, और आधा भाग महारानी कौशल्या को दे दिया।
बचे हुए आधे भाग में फिर दो भाग कर एक भाग महारानी कैकेयी को दे दिया।
बची हुई खीर के फिर दो भाग किये,
एक भाग महारानी कौशल्या के हाथ में और दूसरा भाग महारानी कैकेयी के हाथ में रख कर तब उनसे महारानी सुमित्रा को दिलवाया।
जरा इस खीर के बँटवारे के तरीके पर विचार करें।
महाराज दशरथ को तीनों रानियों को सामान भाग में खीर बाँटनी चाहिए थी।
यदि कौशल्या पटरानी थीं तो आधा भाग उन्हें दे दिया तो कोई बात नहीं।
बाकी के आधे, आधे को कैकेयी और सुमित्रा जी को दे देते।
कैकेयी को एक चौथाई भाग सीधे उनके हाथ में दिया। परंतु सुमित्रा जी के भाग को सीधा उनके हाथ में न देकर, फिर उसके दो भाग कर, एक भाग कौशल्या जी के हाथ में तो दूसरा कैकेयी जी के हाथ में रख कर सुमित्रा जी को उनसे दिलवाया। ऐसा क्यों ?
क्या सुमित्रा कोई दासी थीं ?
क्या इस से महारानी सुमित्रा का अपमान नहीं हुआ ?
अयोध्या नरेश महाराज दशरथ जैसे महान धर्मात्मा ने खीर का ऐसा बंटवारा क्यों किया ?
प्रश्न यहीं उठता है कि क्या सुमित्रा जी कोई दासी थीं जो उनका इस प्रकार तिरस्कार किया गया ?? या फिर इसमें कोई अध्यात्मिक रहस्य है ??
इसी प्रसंग में यह रहस्य छुपा है कि हमारा जीवन यदि गणित के एक प्रश्न के समान है तो उसे हल करने का सूत्र (formula) क्या है ? आइये इस पर विचार करें।
🌿🌼 यह विश्व द्वि ध्रुवीय है :
धन (+) (positive) तथा ऋण (-) (negative),
नर-मादा,
पृथ्वी पर उत्तरी ध्रुव(north pole)- दक्षिणी ध्रुव(south pole),
हमारे शरीर में सहस्रार चक्र – मूलाधार चक्र हैं
इसी प्रकार रामचरित मानस में भी दो ध्रुव हैं।
एक ओर अयोध्या नरेश महाराज दशरथ हैं। तो दूसरी ओर लंकाधिपति दशानन हैं।
धर्म ग्रंथों के अध्ययन के लिए तीन प्रकार की प्रवृत्ति लोगों में पाई जाती है। पहली दो लौकिक दृष्टि से हैं और तीसरी अध्यात्मिक दृष्टि ।
१. पाठ प्रधान :
इसमें लोग रामायण, गीता, दुर्गा सप्तशती आदि के बिना समझे, पाठ कर लेने भर में अपने कर्तव्य की इति श्री समझते हैं।
२. कथा प्रधान :
इसमें लोग कथा प्रसंगों पर ज्यादा रूचि लेते हैं। राजा, रानी, बेटे, बेटी, धन संपदा के लिए संघर्ष आदि। कृष्ण की बाल लीला, रास लीला और राम जी की बाल लीला, फुलवारी में सीता जी से भेंट, राम विवाह आदि की कथाएं कहने सुनने में आनंदित होते हैं। और अपनी भक्ति को पूर्ण मान लेते हैं।
कुछ नास्तिक प्रकृति के लोग, कुछ अध्यात्मिक रहस्य के गूढ़ प्रसंगों को न समझ पाने के कारण, हमारे देवी देवताओं की आलोचना करने लगते हैं। और सामान्य हिन्दू जन के पास उसका कोई जवाब न होने से शर्मिंदा होना पड़ता है।
३. अध्यात्मिक दृष्टि :
साधना मार्ग के पथिक अध्यात्मिक व्यक्ति उन गूढ़ रहस्यों को गुरु कृपासे अथवा प्रभु कृपा से, मनन चिंतन से, अंतः प्रेरणा से जब उन अध्यात्मिक रहस्य को उद्घाटित करते हैं तो भाव विभोर हो जाते हैं। रोमांचित हो जाते हैं।
रामचरित मानस के इन प्रसंगों का हम अध्यात्मिक दृष्टि से व्याख्या करने का प्रयास करेंगे।
🌿🌼 दशरथ :
दशरथ का अर्थ है, दस इन्द्रियों रूपी रथ पर सवार जीवात्मा।
जिसकी दस इन्द्रियां उसके नियंत्रण में हैं।
🌿🌼 दशानन :
दशानन का अर्थ है, वह जीवात्मा जिसका अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं है। वह सांसारिक विषय वासनाओं में लिप्त है। वह अपनी इन्द्रियों के अधीन है।
🌿🌼 दशरथ :
दशरथ का निवास अयोध्या अर्थात जहाँ युद्ध नहीं है, अंतर्द्वंद, उद्विग्नता, बेचैनी नहीं है। ऐसे निर्मल अंतःकरण को ही अयोध्या कहा गया है। जहाँ दशरथ रूपी जीवात्मा का निवास है।
वहीं दशानन की लंका पूरी, काम, क्रोध, लोभ, मोह, छल, कपट, ईर्ष्या, द्वेष, मद मत्सर से भरी हुई है। जहाँ मद्य, मांस, मीन, मुद्रा, मैथुन आदि पञ्च मकार की प्रधानता है।
लंका निशिचर निकर निवासा
इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ।
पूरा रामचरित मानस इन्हीं दो ध्रुवों के बीच के प्रसंगों से भरा हुआ है। अधर्म पर धर्म की, पाप पर पुन्य की विजय गाथा है।
प्रत्येक मनुष्य के लिए इस संसार में दो मार्ग हैं :–
१. श्रेय मार्ग-
महाराज दशरथ का अध्यात्मिक साधना मार्ग।
२. प्रेय मार्ग-
लंकाधिपति दशानन का भोगवादी मार्ग। हमें मार्ग चुनने की स्वतंत्रता है। परन्तु उस मार्ग की मंजिल भी सुनिश्चित है। हम उससे बच नहीं सकते।
इसीलिए भक्त कवि बिंदु जी का भजन है-
हमें निज धर्म पर चलना बताती रोज रामायण,
सदा शुभ आचरण करना बताती रोज रामायण।
आप सब रामचरित मानस के इस प्रसंग को जरा ध्यानपूर्वक पढ़ें और विचारें कि दशरथ अर्थात दश इन्द्रियों रूपी रथ में सवार जीवात्मा जिसकी दसों इन्द्रियाँ उसके अधीन हैं।
और दशानन अर्थात वह जीवात्मा जिसकी इन्द्रियाँ उसके वश में नहीं हैं। जो संसारिक विषयों में लिप्त है। वह इन्द्रियों के अधीन है।
जब दशरथ जीवात्मा है। तो योग, अध्यात्म में जीवात्मा के तीन शरीर बताये गए हैं। स्थूल, सूक्ष्म, और कारण शरीर।
इन्हीं से आगे चल कर पञ्चकोशों में विभाजन किया गया है। ये पाँच कोष इस प्रकार हैं —
१. अन्नमयकोश
२. प्राणमय कोश
३. मनोमय कोश
४. विज्ञानमय कोश
५. आनंदमय कोश ।
इसी आध्यात्मिक रहस्य के संकेत के रूप में पञ्च मुखी गायत्री, पञ्च मुखी हनुमान जी, अथवा पञ्च मुखी शंकर जी आदि के चित्र अथवा प्रतिमाएं मिलती हैं।
दशरथ रूपी जीवात्मा के तीन शरीर – स्थूल , सूक्ष्म, कारण ही दश रथ जी की तीन रानियाँ, सुमित्रा, कैकेयी और कौशल्या हैं।
🌿 कारण शरीर – कौशल्या, हमारा अंतः करण है।
🌿 सूक्ष्म शरीर – कैकेयी , हमारा मन या बुद्धि है।
🌿 स्थूल शरीर – सुमित्रा, हमारी 10 इन्द्रियों से युक्त यह हाड़ मांस का बना शरीर है।
जब दशरथ हमारी जीवात्मा है और तीन शरीर ही उनकी तीन रानियाँ हैं। तब प्रश्न उठता है कि खीर क्या है , जिसका बंटवारा हुआ ?
पुत्रेष्टि यज्ञ से प्राप्त खीर, हमारी वह जीवनी शक्ति (vital energy) जो ईश्वर ने हमें इस सुरदुर्लभ मानव जीवन के सञ्चालन के लिए प्रदान की है।
आइये अब खीर के बँटवारे पर विचार करें —
हमारे जीवन में हम अपना प्रत्येक कार्य या तो भावना से प्रेरित हो कर या फिर बुद्धि से विचार कर करते हैं। (either we are guided with our mind or by our consciousness)।
हमारी पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेद्रियों से युक्त स्थूल शरीर इन्हीं के नियंत्रण में कार्य करता है।
हमारी इन्द्रियों में विषय लोलुपता होती है। स्व विवेक नहीं होता। ऑंखें रात भर फिल्म देखते रहना चाहतीं हैं, जिह्वा अपनी रूचि के अनुसार चाट, पकौड़ी मिठाई आदि खाते रहना चाहती है।
परंतु हम विचार करते हैं कि अब बहुत हो गया अधिक जागने से अधिक खाने से स्वास्थ्य खराब हो जाएगा। तो हम उन पर नियंत्रण करते हैं।
इस प्रकार हमें रामचरित मानस में इस प्रश्न का उत्तर मिलता है कि हमारा जीवन यदि गणित के प्रश्न के समान है तो इसको हल करने का सूत्र (formula) क्या है।
🌿🌼 इसका उत्तर यही है कि –
हमें अपने जीवन की गतिविधियों के संचालन में जीवनी शक्ति का आधा भाग कौशल्या अर्थात कारण शरीर – अंतः करण के लिए – अंतः प्रेरणा से अर्थात दिल से संचालित करना चाहिए।
जीवनी शक्ति का आधा भाग अर्थात जीवन की गतिविधियों के सञ्चालन में 1/4 भाग बुद्धि के लिए प्रयोग करना चाहिए क्योंकि हम संसार में रहते हैं। कहीं कहीं दिल से नहीं दिमाग से भी – व्यावहारिक बुद्धि का भी प्रयोग करना चाहिए।
स्थूल शरीर में इन्द्रियों की तुष्टि के लिए भी जीवनी शक्ति का 1/4 भाग लगाना चाहिए परन्तु उस पर दिल या दिमाग का नियंत्रण होना ही चाहिए।
जो व्यक्ति अपनी जीवनी शक्ति को इस अनुपात में उपयोग में लाते हैं वे इस जीवन में सुख, शांति, समृद्धि का आनंद लेते हैं।
परंतु आज संसार में अधिकांश जन इसका ठीक उल्टा व्यवहार कर रहे हैं।
जीवनी शक्ति का पूरा या तीन चौथाई भाग इन्द्रिय तुष्टि में लग रहा है। अच्छे कपडे, अच्छे भोजन, टीवी, फ्रिज , महल, गद्दे, ए सी, कार इत्यादि सब क्या है ?
सब कुछ केवल शरीर सुख के लिए।
लेकिन आत्मा प्यासी की प्यासी रह जाती है।❗️
ब्लड प्रेशर, शुगर, अनिद्रा, अपच, गैस, हताशा, निराशा, तनाव, बेचैनी ये सब उसी का परिणाम है।
इसलिए जीवन के प्रश्न के सही हल के लिए सही सूत्र(फार्मूला) अपनाएँ। सुख शांति समृद्धि सुकून की जिंदगी पायें।
दशरथ बनें ! दशानन नहीं।
बंदऊँ गुरू पद पदुम परागा जय सियाराम सुरूचि सुबास शरस अनुरागा जय सियाराम