विपुल रेगे। लाल सिंह चढ्ढा बनाकर आमिर खान ने वह कार्य कर दिखाया है, जो वे पीके, दंगल और थ्री इडियट्स बनाकर भी नहीं कर सके थे। ये फिल्म सिनेमा को तलवार बनाकर की गई ऐसी हत्या है, जिसका कोई निशाँ नहीं होगा, रक्त के चिन्ह नहीं मिलेंगे। मैं भारतीय सेंसर बोर्ड को भी बधाई देना चाहता हूँ कि उन्होंने एक ऐसी फिल्म बन जाने दी, जो भारत की आत्मा पर कोड़े बरसाती है।
भारत सरकार द्वारा शुरु किये गए नवाचारों में एक सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान होने पर सम्मान में खड़े रहना भी है। लाल सिंह चढ्ढा में राष्ट्रगान न चलाकर दर्शकों को सुविधा दी गई। वैसे भी फिल्म का कथानक राष्ट्रगान सम्मान को ‘सूट’ नहीं करता है। ये तो सभी जानते थे कि फारेस्ट गंप की इस नकल के द्वारा भारतीय सेना की आलोचना की जाएगी किन्तु हम गलत थे। ये फिल्म भारतीय सेना को नहीं बल्कि पूरे भारत को गाली देती प्रतीत होती है।
इसे भी संयोग मान ले कि लाल सिंह चड्ढा की जीवन यात्रा में हमें जो मील के पत्थर दिखाई देते हैं, उन पर चौरासी के दंगे, स्वर्ण मंदिर हिंसा, बाबरी विध्वंस की हिंसा, कारगिल ही लिखा होता है। लाल बचपन से लेकर युवावस्था तक इन हादसों से गुज़रता है। वह युद्ध को बुरा मानता है। उसे लोगों को मारना अच्छा नहीं लगता। लेकिन लाल ये नहीं बताता कि भारत ने कभी सीमा विस्तार की नियत नहीं रखी, बल्कि उस पर युद्ध और आतंकवाद थोपे गए हैं।
मुझे फिल्म देखते हुए ऐसा लगता है कि आमिर खान ने भारत से एकतरफा संवाद किया है। एकतरफा संवाद में विमर्श की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती। स्वर्ण मंदिर पर सेना के नियंत्रण के दृश्य को फिल्म में इस तरह फिल्माया गया है, जैसे सेना उस पवित्र स्थल को स्वतंत्र करवाकर मानवता को रौंद रही हो। इस दृश्य के लिए आमिर और निर्देशक अद्वैत चंदन क्या तर्क रख सकेंगे। क्या सेना खालिस्तानियों से उस स्थान को स्वतन्त्र नहीं करवाती ?
आडवाणी की रथ यात्रा दिखाना और दंगों के लिए बाबरी विध्वंस को उत्तरदायी ठहराना एक तरफ़ा संवाद नहीं तो और क्या है। आमिर यहाँ ही नहीं रुकते। वे कारगिल के बहाने सेना पर निशाना साधते हैं। एक अल्प विकसित युवा का सेना में भर्ती हो जाना ही दिखाता है कि आमिर की सेना को लेकर कितनी रिसर्च है। आमिर की प्रेमिका उसे कहती है कि युद्ध में जान का ख़तरा दिखाई दे तो बहादुरी मत दिखाना, भाग लेना। लाल सिंह के नाना, पड़नाना सेना में भर्ती होकर बलिदानी हुए थे।
फिल्म में उनके बलिदान को फूहड़, मज़ाकिया अंदाज़ में दिखाया गया है। मनोरंजन के नाम पर फिल्म में कुछ ख़ास नहीं है। शुरु के बीस मिनट बाद ही निर्देशक फिल्म को एजेंडों के पथ पर ले जाते हैं। पौने तीन घंटे की ये फिल्म देखना एक दंड की तरह है। लगभग बूढ़ा चुके आमिर को कम्प्यूटर ग्राफिक्स की सहायता से युवा दिखाने का भौंडा प्रयास किया गया है। उनके और करीना के चेहरे को दूसरे कलाकारों के धड़ों पर जोड़ा गया है, जो बहुत ही भद्दा महसूस होता है। बहुत पहले एक फिल्म आई थी।
इस सस्पेंस थ्रिलर की कहानी बहुत दिलचस्प थी। एक सड़क पर छह हत्याएं हो गई हैं। जाँच करने पर समझ नहीं आ रहा कि हत्याओं का उद्देश्य क्या है। फिर पता चलता है कि ह्त्या तो एक ही व्यक्ति की की जानी थी लेकिन जाँच को भटकाने के लिए आसपास के लोगों को बेवजह मारा गया था। लाल सिंह चढ्ढा भी एक ऐसा ही केस है। इसका असली निशाना तो भारत की सरहदों के पार है। इसका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को बदनाम करना है।
फिल्म का निर्माता पहले से ही जानता है कि भारत में उसकी फिल्म को कुछ नहीं मिलेगा। ये एक ऐसी ह्त्या है, जिसे आप सिद्ध नहीं कर सकते। ये खंजर भारत की पीठ पर घोंपा गया है। ये उस अभिनेता की फिल्म है, जो भारत की सरकारों द्वारा सम्मानित है। वह स्वयं दिखा रहा है कि भारत की सेना, भारत के लोग और भारत की संस्कृति अन्यायपूर्ण है, दोषपूर्ण है। फिल्म चाहे चले न चले, उसने अपना निशाना सटीक लगाया है।