शंकर शरण। सभी प्रसंग दिखाते हैं कि 295-ए आरंभ से ही हिन्दू-विरोधी और इस्लाम-परस्त रहा है। उस की वही धार रहेगी। नुपूर शर्मा मामले ने इसे पूरी निर्लज्जता से उघाड़ दिया है। एक समुदाय द्वारा हिंसा करना अपने-अपने में दलील बन गई है कि दूसरा समुदाय अपना मुँह बंद रखे।.. अंग्रेजों द्वारा भारत में बनाये कानून 295-ए जैसा कुछ भी इंग्लैंड में न था, न है। तब यहाँ अंग्रेजों ने वह क्यों बनाया? उत्तर है: हिन्दुओं को इस्लामी प्रचार का उत्तर देने से रोकने के लिए। यानी, मुसलमान तो हिन्दू देवी-देवताओं की खिल्ली उड़ाएं, किन्तु हिन्दू इस्लामी प्रोफेट पर कुछ न कहें।
भोपाल पुलिस ने तृणमूल कांग्रेस नेत्री महुआ मोइत्रा पर भारतीय दंड संहिता की धारा 295-ए के अंतर्गत प्राथमिकी दर्ज की। यह धारा ‘भारतीय नागरिकों के किसी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँचाना’ दंडनीय मानती है। महुआ का मामला हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँचाने से संबंधित है, किन्तु वस्तुतः यह धारा हिन्दुओं की अभिव्यक्ति स्वतंत्रता बाधित करने को बनी थी। सन् 1927 में बना यह कानून केवल उसी उद्देश्य में काम आ रहा है। यह विडंबना ही है कि स्वतंत्र भारत में जो कानून खत्म करना था, वह यथावत् हिन्दू समाज के विरुद्ध इस्लामी दबदबा बढ़ाने के काम आ रहा है।
इस का एक प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि इस्लामी तबलीग और क्रिश्चियन मिशनों के सारे काम दूसरे धर्मों को नीचा, हीन, घृणित बताने पर ही आधारित हैं। ये दोनों संगठित धर्मांतरणकारी मतवाद हैं, जिस में दूसरे धर्मों को घृणित, शैतानी, आदि कह कर ही उन के लोगों को अपने रिलीजन में लाने की कोशिश होती है। ‘काफिर’, ‘आइडोलेटर’, ‘इनफिडेल’, ‘हीथेन’, आदि की पूरी शब्दावली हिन्दू, बौद्ध, जैन, समुदायों के धर्म-विश्वास के लिए अपमानजनक बातों से भरी हुई है।
सो, यदि 295-ए सचमुच निष्पक्षता से लागू हो, तो मुसलमानों की पाँचों वक्त की नमाज भी बदलनी होगी, या उसे रोकना होगा। क्योंकि उस में यहूदियों-क्रिश्चियनों के विरुद्ध घोषणा रहती है, कि एक (यहूदियों) पर ‘अल्लाह का कोप’ है, और दूसरे (क्रिश्चियन) ‘राह से भटके हुए हैं।’ फिर, इस्लाम की मूल किताबें यहूदियों और मूर्तिपूजकों के विरुद्ध हर तरह की घृणा और चोट करने के निर्देशों से भरी पड़ी हैं। जिन्हें व्यवहार में भी, यहाँ लश्करे तोयबा, तबलीगी जमात से लेकर बाहर देवबंदी तालिबान और बोको हराम तक सैकड़ों इस्लामी संगठन लागू करते रहते हैं।
उसी प्रकार, क्रिश्चियन मिशनों का साहित्य ‘हीथनों’, ‘डिसबिलीवरों’, हिन्दू धर्म और इस के देवी-देवताओं को नीचा बताता रहता है। यह उन का खुला काम है, क्योंकि इस के बिना वे कैसे किसी हिन्दू को क्रिश्चियन मतवाद में आने को कहेंगे? अतः मूर्तिपूजा, विविध देवी-देवताओं को पूजने, यानी दूसरे धर्मों के विरुद्ध हर तरह की अपमानजनक बातें कहना सदियों से क्रिश्चियन और इस्लामी रिलीजनों का स्थाई काम है।
तब 295-ए को सही-सही लागू करने के लिए तमाम इस्लामी एवं क्रिश्चियन प्रचारों को बंद करना, उन की कुछ मूल पुस्तकों और प्रकाशनों को प्रतिबंधित करना होगा। उस कानून का यह स्वभाविक अर्थ निकलता है। किन्तु, भारत में प्रचलित विकृत ‘सेक्यूलरिज्म’ की तरह धारा 295-ए भी सारतः और मूलतः हिन्दू-विरोधी है। वह केवल इस्लाम की आलोचना रोकने के लिए बना था, यह इस से भी देख सकते हैं कि भारत में हिन्दू धर्म की निंदा-आलोचना पहले भी होती थी, आज भी हो रही है। यहाँ सदियों से चर्च-मिशनरी वह करते थे। स्वयं हिन्दुओं में अनेक नास्तिक संप्रदाय थे, जो देवी-देवताओं को नहीं मानते और खिल्ली भी उड़ाते थे। एक शिव मंदिर में युवक मूलचन्द तिवारी (स्वामी दयानन्द सरस्वती) के मोहभंग की कहानी प्रसिद्ध ही है, जिस से उन्होंने मूर्तिपूजा से दूर होकर आर्य समाज की स्थापना की।
दूसरी ओर, यूरोप अमेरिका में रिलीजन की खुली आलोचना करना सदियों से सर्व-स्वीकृत लोकतांत्रिक अधिकार है। यूरोप में जीसस, बाइबिल, चर्च के विचारों, अनुष्ठानों और क्रिया-कलापों की अबाध खिल्ली उड़ाई जाती है। अर्थात्, अंग्रेजों द्वारा भारत में बनाये कानून 295-ए जैसा कुछ भी इंग्लैंड में न था, न है। तब यहाँ अंग्रेजों ने वह क्यों बनाया? उत्तर है: हिन्दुओं को इस्लामी प्रचार का उत्तर देने से रोकने के लिए। यानी, मुसलमान तो हिन्दू देवी-देवताओं की खिल्ली उड़ाएं, किन्तु हिन्दू इस्लामी प्रोफेट पर कुछ न कहें।
ध्यान दें कि वह कानून सन् 1927 में बना, अंग्रेजी राज के लगभग अंत में। उस से पहले सौ सालों से अधिक यहाँ भी अंग्रेजी राज ने किसी धर्म, रिलीजन की आलोचना को सहज नागरिक अधिकार माना था। सन् 1862 में वल्लभाचार्य संप्रदाय से संबंधित एक मुकदमे में अंग्रेज मैजिस्ट्रेट ने लिखा था कि किसी धर्म की आलोचना, उसे गलत बताना, या खिल्ली उड़ाना भी कोई अपराध नहीं, बल्कि ‘विवेकशील अभिव्यक्ति का एक सहज कर्तव्य’ है।
तब उन्हीं अंग्रेजों ने अंततः 295-ए वाला कानून इसलिए बनाया, ताकि शान्ति बनाए रखने के लिए हिन्दुओं का मुँह बंद करें। चाहे यह अनुचित ही क्यों न हो। इस की पृष्ठभूमि पिछले तीन दशकों से बन रही थी। आर्य समाज के लोग इस्लाम की सधी आलोचना करते थे, और कुछ मुस्लिम उस पर हिंसा, हत्या करते थे। 1897 ई. से लेकर यह कई बार हुआ। एक अपने विचार रखता था, दूसरा उस पर हिंसा करता था। आर्य समाज के पंडित लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, महाशय राजपाल, आदि इसी क्रम में कत्ल किए गए। कई अन्य पर हमलों के बाद भी जान बच गई। निस्संदेह, सभी मामलों में अंग्रेजों ने कातिलों, जिहादियों को दंड दिया। पर अंत में उन्होंने कानून बनाकर यह प्रक्रिया ही रोकने की सोची।
निस्संदेह, वह एक अन्यायपूर्ण कानून था। बल्कि, इस के उलटे परिणाम हुए। वह वैचारिक आलोचना के उत्तर में हिंसा को स्वीकृति देने वाला साबित हुआ। डॉ. अंबेदकर ने अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ इंडिया’ (1940) में इस की सूची दी है कि उस के बाद भी मुसलमानों द्वारा गणमान्य हिन्दुओं की हत्याएं जारी रहीं। बल्कि जिहादी कातिलों का गाजे-बाजे से स्वागत भी होता था। अर्थात, इस्लाम के नाम पर हिंसा करने वालों ने ही 295-ए का उपयोग किया। इस का अर्थ उन्हीं के पक्ष में किया गया, कि यदि इस्लाम के नाम पर हिंसा हुई, तो किसी ने जरूर इस्लाम का अपमान किया था! जो अभी नुपूर शर्मा मामले में, सुप्रीम कोर्ट जज पारदीवाला की मौखिक टिप्पणी ने साफ दिखाया। बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के सर्वोच्च जज ने कह दिया कि ‘सारी हिंसा का कारण तो नुरूर शर्मा का कथन है’!
इस से समझें कि पिछले सौ साल से इस कानून का सार और रूप हिन्दू-विरोधी और इस्लामपरस्त रहा है। यह गत वर्ष सुप्रीम कोर्ट द्वारा कुरान की कुछ आयतों पर वासिम रिजवी की याचिका खारिज करने से भी प्रमाणित हुआ था। आखिर, वह उसी तरह की शिकायत थी जो अभी नुपूर शर्मा के खिलाफ है। जबकि उस संबंधी एक न्यायिक नजीर भी मौजूद है। एक समरूप मामले में दिल्ली मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने अपने फैसले (1986) में लिखा था, ‘‘कुरान-मजीद के प्रति पूरे सम्मान के साथ उन आयतों का ध्यानपूर्वक अध्ययन दिखाता है कि वे सचमुच हानिकारक और घृणा सिखाती हैं; तथा मुसलमानों और अन्य समुदायों के बीच विभेद पैदा करती हैं।’’ उस फैसले के खिलाफ न सरकार, न किसी मुस्लिम संगठन ने अपील की थी।
बहरहाल, सभी प्रसंग दिखाते हैं कि 295-ए आरंभ से ही हिन्दू-विरोधी और इस्लाम-परस्त रहा है। उस की वही धार रहेगी। नुपूर शर्मा मामले ने इसे पूरी निर्लज्जता से उघाड़ दिया है। एक समुदाय द्वारा हिंसा करना अपने-अपने में दलील बन गई है कि दूसरा समुदाय अपना मुँह बंद रखे। उसे अपने धर्म, देवी-देवता, परंपरा की निंदा, अपने तीर्थों पर दूसरों के जबरिया कब्जे, अपने विरुद्ध राजकीय भेद-भाव, तथा तबलीगियों, मिशनरियों के सभी कारनामों को चुपचाप स्वीकार करना चाहिए। मानवीय नैतिकता, तथा संविधान से ऊपर शरीयत का रौब मानना चाहिए, आदि।
अतः न्याय का तकाजा है कि 295-ए खत्म हो। यूरोप, अमेरिका उस के बिना अच्छे से हैं। भारत भी हजारों वर्ष से उस के बिना बेहतर रहा है। उस कानून को हटाने से ‘अनाप-शनाप’ बोलना नहीं बढ़ेगा। उस की व्यवस्था सभ्य समाज स्वयं करता है।