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India Speak Daily > Blog > Blog > व्यक्तित्व विकास > श्रीराम के अनुसार श्रेष्ठ राजा कैसा होना चाहिए
व्यक्तित्व विकास

श्रीराम के अनुसार श्रेष्ठ राजा कैसा होना चाहिए

ISD News Network
Last updated: 2024/06/25 at 1:44 PM
By ISD News Network 60 Views 15 Min Read
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15 Min Read
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रामकुमार मिश्र।

श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि उनसे महान राजा आज तक और कोई नहीं हुआ। राजनीति के सभी मर्मों का ज्ञान श्रीराम को था। रामायण में एक ऐसा प्रसंग आता है जब श्रीराम, एक श्रेष्ठ राजा कैसा हो, इसके बारे में बताते हैं। रामायण के अयोध्या कांड के १००वें सर्ग में श्रीराम और भरत का संवाद है जिसमें श्रीराम उन्हें राजनीति की शिक्षा देते हैं।

इस प्रसंग में श्रीराम भरत को परोक्ष रूप से राजनीति का ज्ञान देते हैं। श्रीराम द्वारा दिया गया राजनीति का ये सार दुर्लभ है। भरत को पंचवटी में देख कर श्रीराम प्रसन्नतापूर्वक उनसे मिलते हैं और पिता, माता और गुरु की कुशलता के बारे में उनसे पूछते हैं। फिर वे भरत को प्रश्न रूप में एक श्रेष्ठ राजा के कर्तव्यों के विषय में बताते हैं। उसी का सार हम यहाँ बता रहे हैं।


राजा को अग्निहोत्र कार्य के लिए हवनविधि के ज्ञाता एवं बुद्धिमान ब्राह्मण को नियुक्त करना चाहिए। साथ ही उस ब्राह्मण को राजा को ये सूचना देनी चाहिए कि अग्नि में आहुति डाल दी गयी है।

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राजा को सदैव देवताओं, पितरों, भृत्यों, गुरुजनों, पिता के समान आदरणीय वृद्धों, वैद्यों और ब्राह्मणों का सम्मान करना चाहिए।
राजा को शूरवीर, शास्त्रग, जितेन्द्रिय, कुलीन और व्यक्ति का व्यहवार देख कर उसकी मन की बात समझ लेने वाले सुयोग्य व्यक्तियों को ही मंत्री बनाना चाहिए। ऐसा इसलिए क्यूंकि अच्छी मंत्रणा ही राजा के विजय का मूल कारण होती है। वो भी तभी सफल होती है जब नीति और शास्त्र निपुण मंत्री उसे सदैव गुप्त रखे।


राजा को असमय निद्रा के वशीभूत नहीं होना चाहिए। उसे समय पर जाग जाना चाहिए और रात्रि के पिछले प्रहर में अर्थसिद्धि के उपाय पर विचार करना चाहिए।
राजा को किसी गूढ़ विषय पर अकेले या बहुत अधिक लोगों के साथ विचार विमर्श नहीं करना चाहिए। कहा गया है कि गुप्त बात २-४ कानों तक ही गुप्त रहती है। छठे कान तक पहुँचते ही वो फूट जाती है (अर्थात गुप्त बात उजागर हो जाती है)।
राजा को ऐसे कार्य का निश्चय करना चाहिए जिसमें साधन कम लगे और फल बड़ा मिले। ऐसे कार्य का निश्चय करते ही उसे आरम्भ कर देना चाहिए। उसमें विलम्ब नहीं करना चाहिए।


राजा के किसी भी कार्य की सूचना उस कार्य के पूर्ण होने से पहले दूसरे राजाओं को ज्ञात नहीं होनी चाहिए। उस कार्य की समाप्ति पर ही सबको उसका ज्ञान होना चाहिए।
इसी प्रकार राजा के निश्चित किये गए विचारों को उसके मंत्रियों द्वारा दूसरे लोग किसी युक्ति से जानने में सफल नहीं होने चाहिए। किन्तु राजा को ये प्रयास करना चाहिए कि उसे दूसरे राजाओं की गुप्त बात अपने मंत्रियों के सूझ-बूझ से पता चलती रहे।
राजा को सहस्त्रों मूर्खों के बदले एक पंडित को ही अपने पास रखना चाहिए क्यूंकि विद्वान व्यक्ति ही संकट के समय राजा का कल्याण कर सकता है। जबकि हजार या दस हजार मुर्ख भी उसे अवसर पर कोई अच्छी सलाह नहीं दे सकते। यदि एक मंत्री भी मेधावी, शूरवीर, चतुर और नीतिज्ञ हो तो वो राजा को बड़ी संपत्ति प्राप्त करवा सकता है।


राजा को प्रधान व्यक्तियों को प्रधान कार्यों के लिए, मध्यम श्रेणी के व्यक्तियों को मध्यम कार्यों के लिए और निम्न श्रेणी के व्यक्तियों को निम्न कार्यों के लिए नियुक्त करना चाहिए। ध्यान दें कि यहाँ श्रेणी का अर्थ उस व्यक्ति का वर्ण अथवा जाति नहीं है बल्कि उसकी योग्यता है। अर्थात, बड़े दायित्वों को सदैव सर्वाधिक योग्य व्यक्तियों को ही सौंपना चाहिए।
जो कभी रिश्वत ना लेते हों, निश्चछल हों, पीढ़ियों से कार्य करते आ रहे हों, जिनका मन बाहर और भीतर से पवित्र हो और जो श्रेष्ठ हों, ऐसे लोगों को ही राजा को अमात्य के पद पर आसीन करना चाहिए।


राजा को प्रजा को कभी अत्यंत कठोर दंड नहीं देना चाहिए जिससे उद्विग्न होकर वे मंत्रियों का तिरस्कार करने लगें।
राजा को प्रजा से अधिक कर नहीं लेना चाहिए अन्यथा प्रजा राजा का अनादर करने लगती है।
राजा को ऐसे दूसरे राज्य के राजा को दंड देना चाहिए जो उसके साम दाम आदि का प्रयोग कर उसके राज्य को हड़प लेना चाहता हो और राजा के विश्वासपात्रों को फोड़ने में लगा हुआ हो। यदि वो राजा ऐसा नहीं करता तो उसका शत्रु उसे मार डालता है।
राजा को सदैव संतुष्ट रहने वाले, शूर वीर, धैर्यवान, बुद्धिमान, पवित्र, कुलीन, रण में कुशल और स्वयं पर अनुराग रखने वाले व्यक्ति को ही सेनापति बनाना चाहिए। राजा का सेनापति युद्धकुशल और पराक्रमी होना चाहिए तथा राजा को स्वयं उसके शौर्य की परीक्षा लेनी चाहिए। राजा को अपने सेनापति का सम्मान करना चाहिए।


राजा को सदैव अपने सैनिकों को तय किया वेतन समय पर देना चाहिए। यदि वेतन समय पर नहीं मिलता है तो सैनिक अपने स्वामी पर कुपित हो जाते हैं जिससे अनर्थ घटित हो सकता है।
राजा को अपने प्रधान अधिकारियों से प्रेमपूर्वक व्यहवार करना चाहिए ताकि वे राजा के लिए अपने प्राणों का भी त्याग करने से पीछे ना हटें।
राजा को सदैव एक ऐसा व्यक्ति ही राजदूत के पद पर नियुक्त करना चाहिए जो अपने देश का निवासी हो, विद्वान, कुशल, प्रतिभाशाली, सद्विवेकयुक्त और जैसा उसे कहा जाये वही बात दूसरों के समक्ष कहने वाला हो।
राजा को शत्रुपक्ष के अठारह तीर्थों और स्वयं के पक्ष के पंद्रह तीर्थों की तीन-तीन अज्ञात गुप्तचरों द्वारा जाँच पड़ताल करवाते रहना चाहिए। शत्रु पक्ष के १८ तीर्थ हैं – मंत्री, पुरोहित, युवराज, सेनापति, द्वारपाल, अंतःपुर के अध्यक्ष, करागार अध्यक्ष, कोषाध्यक्ष, योग्य कार्यों में धन व्यय करने वाले सचिव, पहरेदारों को काम बताने वाले प्रदेष्टा, नगर अध्यक्ष (कोतवाल), शिल्पियों के प्रधान, धर्माध्यक्ष, सभाध्यक्ष, दण्डपाल, दुर्गपाल, राष्ट्रसीमापाल एवं वनरक्षक। इनमें से प्रथम तीन (मंत्री, पुरोहित, युवराज) को छोड़कर शेष १५ अपने पक्ष के तीर्थों की जाँच पड़ताल भी करते रहना चाहिए।


यदि राजा ने किसी शत्रु को राज्य से निकाल दिया हो और वे पुनः लौट कर आएं तो उन्हें दुर्बल समझ कर उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
राजा को कभी नास्तिक ब्राह्मणों का संग नहीं करना चाहिए क्यूंकि वे बुद्धि को परमार्थ से विचलित करने में कुशल होते हैं और साथ ही अज्ञानी होते हुए भी स्वयं को पंडित मानते हैं। उनका ज्ञान वेद विरुद्ध होने के कारण दूषित होता है और वे धर्मशास्त्रों के होते हुए भी व्यर्थ का तर्क करते रहते हैं।
राजा को अपने राज्य की भली-भांति सुरक्षा और उसका पालन करना चाहिए।
राजा को कृषि और गोरक्षा से आजीविका चलाने वाले सभी वैश्यों से प्रीति रखनी चाहिए क्यूंकि कृषि और व्यापर आदि में संलग्न रहने पर ही यह लोक सुखी एवं उन्नतिशील होता है। राजा को उन वैश्यों को उनके इष्ट की प्राप्ति करवा कर तथा उनके अनिष्ट का निवारण करके उनका भरण पोषण करना चाहिए।


राजा को अपनी सभी स्त्रियों को सभी प्रकार से संतुष्ट रखना चाहिए और उनकी भली भांति रक्षा करनी चाहिए। किन्तु राजा को गुप्त बात अपनी स्त्रियों से नहीं कहना चाहिए।
राजा को वन, हाथियों, गौओं और अश्वों की रक्षा करनी चाहिए और उनके संग्रह से कभी तृप्त नहीं होना चाहिए।
राजा को प्रत्येक दिन पूर्वाह्न में प्रधान सड़क पर जा-जाकर अपने नगरवासियों से मिलना चाहिए।
राजा को अपनी प्रजा से ना तो बहुत निकट होना चाहिए और ना ही उन्हें स्वयं से बहुत दूर कर देना चाहिए। राजा को माध्यम मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।
राजा को अपने सभी दुर्ग धन-धान्य, अस्त्र-शस्त्र, जल, यंत्र, शिल्पी, धनुर्धर और सैनिकों से भरे रखने चाहिए।
राजा की आय सदैव अधिक और व्ययव सदैव कम होना चाहिए। राजकोष का धन किसी अपात्र के हाथों में नहीं जाना चाहिए।
राजा को समुचित मात्रा में अपना धन देवता, पितर, ब्राह्मण, अभ्यागत, योद्धा और मित्रों के लिए खर्च करना चाहिए।
राजा को कभी भी बिना सोचे समझे किसी व्यक्ति को दंड केवल इसीलिए नहीं देना चाहिए क्यूंकि उसपर किसी ने आरोप लगाया है। उसे इसकी पूरी छान-बीन करनी चाहिए।


ऐसा व्यक्ति जो चोरी करता पकड़ा गया हो और उसके चोर होने का प्रमाण मिल गया हो, उसे किसी राजा के राज्य में धन के लालच में नहीं छोड़ना चाहिए।
राजा को धनी और निर्धन दोनों का समान रूप से न्याय करना चाहिए।
राजा को किसी निरपराध को किसी भी स्थिति में दंड नहीं देना चाहिए क्यूंकि निरपराध की आँखों से जो आंसू गिरते हैं वो राजा का नाश कर देते हैं।
राजा को वृद्धों, बालकों, वैद्यों, गुरुजनों, तपस्वियों, देवताओं, अतिथियों, चैत्य वृक्षों और योग्य ब्राह्मणों का समुचित सम्मान करना चाहिए।
राजा को अर्थ द्वारा धर्म, धर्म द्वारा अर्थ या काम द्वारा धर्म और अर्थ की हानि नहीं करती चाहिए। साथ ही उसे सदैव सही समय पर ही धर्म, अर्थ और काम का सेवन करना चाहिए।
राजा को सदैव १४ दोषों का त्याग करना चाहिए। ये १४ दोष हैं – नास्तिकता, असत्य भाषण, क्रोध, प्रमाद, दीर्घसूत्रता, ज्ञानी पुरुषों का संग ना करना, आलस्य, इन्द्रियों के वशीभूत होना, राज्य कार्यों के विषय में अकेले ही विचार करना, मूर्खों से सलाह लेना, निश्चित कर कार्य को प्रारम्भ ना करना, गुप्त मंत्रणा को प्रकट कर देना, मांगलिक कार्यों का अनुष्ठान ना करना तथा सभी शत्रुओं पर एक साथ चढ़ाई कर देना।


राजा को दशवर्ग का त्याग कर देना चाहिए। ये दस चीजें हैं – आखेट, द्युत, दिन में सोना, दूसरों की निंदा करना, स्त्री में आसक्त होना, मद्यपान, नाचना, गाना, बाजा बजाना और व्यर्थ घूमना।
राजा को पंचवर्ग द्वारा अपनी रक्षा करनी चाहिए। ये पांच चीजें हैं – जलदुर्ग, पर्वतदुर्ग, वृक्षदुर्ग, ईरिणदुर्ग (बंजर भूमि) एवं धन्वदुर्ग (मरुभूमि)।
राजा को चतुर्वर्ग का समुचित उपयोग करना चाहिए। ये चार वर्ग हैं – साम, दाम, भेद और दण्ड।
राजा को सदैव सप्तवर्ग की रक्षा करनी चाहिए। ये सात हैं – राजा, मंत्री, राष्ट्र, किला, खजाना, सेना और मित्र।
राजा को अष्टवर्ग का ग्रहण और त्याग करना चाहिए। इन अष्ट वर्ग में आठ गुण हैं जिसे ग्रहण करना चाहिए और आठ दोष हैं जिनका त्याग करना चाहिए। आठ गुण हैं – कृषि, व्यापार, दुर्ग, पुल, हाथी, खान, कर एवं निर्जन प्रदेश को आबाद करना। आठ दोष हैं – चुगली, दुस्साहस, द्रोह, ईर्ष्या, दोषदर्शन, अर्थदूषण, कठोर वाणी एवं कठोर दंड।
राजा को त्रिवर्ग का समुचित और सही समय पर सेवन करना चाहिए। ये तीन चीजें हैं – धर्म, अर्थ और काम।
राजा को तीन विद्याओं में निपुण होना चाहिए। ये हैं – त्रयी (तीन वेद – ऋग्वेद, सामवेद एवं यजुर्वेद), वार्ता (कृषि और गोरक्षा) एवं दंडनीति (नीतिशास्त्र)।


राजा को छह गुणों से युक्त होकर शत्रु को वश में रखना चाहिए। ये हैं – संधि (शत्रु से मित्रता रखना), विग्रह (शत्रु से लड़ाई छेड़ना), यान (शत्रु पर आक्रमण करना), आसन (अवसर की प्रतीक्षा करना), द्वैधीभाव (दोतरफा नीति) एवं समाश्रय (स्वयं से बलवान राजा की शरण लेना)।
राजा को पांच दैवी बाधाओं और मानवीय बाधाओं के लिए सदैव तत्पर तैयार रहना चाहिए। ५ दैवीय बाधाएं हैं – आग लगना, बाढ़ आना, बीमारी फैलना, अकाल पड़ना एवं महामारी का प्रकोप। मानवीय बाधाएं हैं – राज्य के अधिकारी, चोर, शत्रु, प्रिय व्यक्ति और स्वयं का लोभ।
राजा को नीतिपूर्ण कार्य करके शत्रु को दग्ध करना चाहिए। शत्रु राजा के सेवकों में जिसे वेतन ना मिला हो, जिसे अपमानित किया गया हो, जो अपने स्वामी के किसी कृत्य से कुपित हों, जिन्हे भय दिखा कर डराया गया हो, ऐसे लोगों को मनचाही वस्तु देकर अपनी ओर मिला लेना राजा का कृत्य माना गया है।
एक राजा को विशांतिवर्ग से दूर रहना चाहिए। २० प्रकार के राजा विशांतिवर्ग के अंतर्गत आते हैं। ये हैं – बालक, वृद्ध, दीर्घकाल से रोगी, जातिच्युत, डरपोक, भीरु मनुष्यों को साथ रखने वाला, लोभी को आश्रय देने वाला, सेनापति को असंतुष्ट रखने वाला, आसक्त, चंचलचित्त लोगों से सलाह लेने वाला, देवता और ब्राह्मण की निंदा करने वाला, दैव का मारा हुआ, भाग्य के भरोसे रहने वाला, दुर्भिक्ष से पीड़ित, सेनरहित, स्वदेश में ना रहने वाला, अधिक शत्रुओं वाला, क्रूर ग्रहदशा से युक्त और सत्य धर्म से रहित।


राजा को सात प्रकृतिमंडल का सम्मान करना चाहिए। ये ७ हैं – राज्य के स्वामी, अमात्य, सुहृदय, कोष, राष्ट्र, दुर्ग और सेना।
राजा को यात्रा (शत्रु पर आक्रमण), दंडविधान (व्यूहरचना) एवं योनिसंधि (द्वैधीभाव एवं समाश्रय) एवं योनिविग्रह (यान और आसन) इस ध्यान आक्रमण के समय रखना चाहिए।
राजा को चार या तीन मंत्रियों के साथ या उनसे अलग-अलग मंत्रणा कर कार्य करना चाहिए।
राजा को वेदों की आज्ञा अनुसार सफल होने वाले कार्य करने चाहिए और उनकी स्त्रियां सफल (संतानवती) होनी चाहिए।
राजा को स्वादिष्ट अन्न अकेले नहीं खाना चाहिए बल्कि अपने मित्रों को भी उसे देना चाहिए।
इन सभी का पालन करने वाला राजा सारी पृथ्वी को अपने अधिकार में कर लेता है और मृत्यु उपरांत स्वर्ग को जाता है।

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