विपुल रेगे। वेब सीरीज ‘दहाड़’ में एक दलित महिला पुलिस अधिकारी के थाने में घुसते ही सामान्य वर्ग का एक सिपाही अगरबत्ती निकालकर जलाने लगता है। जब ये अधिकारी एक ठाकुर के घर में पूछताछ करने जाती है तो ठाकुर को उसकी जाति के कारण आपत्ति होती है। इन काल्पनिक दृश्यों की सहायता से संसार को दिखाया जाता है कि भारत में जातिवाद एक गंभीर समस्या है। राजनीति और फिल्मो के जरिये जातिवाद फ़ैलाने के पीछे किसका एजेंडा है, ये एक चिंतनीय प्रश्न है। राजीव मल्होत्रा और विजया विश्वनाथन की ‘स्नेक्स इन गंगा’ के परिपेक्ष्य में फिल्मों द्वारा फैलाए जा रहे जातिवाद को देखा जाए तो कहा जा सकता है कि ये जातिवादी फ़िल्में विदेशी एजेंडा से छनकर दर्शकों तक पहुंचाई जा रही है।
सन 1936 में ‘अछूत कन्या’ से भारत में जातिवादी फ़िल्में बनना शुरु हुई। ‘अछूत कन्या’ के निर्देशक एक विदेशी फ़िल्मकार फ्रेंज़ ओस्टेन थे। तबसे लेकर अब तक भारत में सैकड़ों ऐसी फ़िल्में बन चुकी हैं, जिनमे जातिवाद को उभारा गया है। ऐसी फिल्मों की एक लंबी फेरहिस्त है। सुजाता, तर्पण, सप्तपदी, अंकुर, सैराट से लेकर मुक्केबाज़, मसान और दहाड़ तक जातिवादी फ़िल्में बनाने का सिलसिला चालू है।
अब फर्क ये आया है कि ऐसी फिल्मों की पटकथा बिना तर्क और बिना किसी सच्ची घटनाओं के लिखी जा रही है। हालिया रिलीज ‘दहाड़’ शुरु होते ही लिखा आता है कि ये कथा काल्पनिक है और इसके सारे पात्र किसी जीवंत व्यक्ति से संबंध नहीं रखते। इस काल्पनिक कथा को मीडिया ने इस तरह पेश किया है, मानो पुलिस थानों में किसी दलित पुलिसकर्मी से ऐसा ही व्यवहार होता होगा। सन 2021 में रिलीज हुई ‘जय भीम’ की बहुत आलोचनाएं हुई थी। इस फिल्म में मद्रास हाईकोर्ट के जज जस्टिस चंद्रा के एक चर्चित केस की कहानी थी।
फिल्म में कई असत्य तर्कों के सहारे जातिवाद को उभारा गया था। ब्राम्हण विरोध को तर्कसंगत बताने के लिए काल्पनिक तथ्यों का सहारा लिया गया था। आर्टिकल 15 और मसान में भी यही किया गया था। दरअसल जातिवाद पर फ़िल्में बनाता हिन्दी सिनेमा ‘एंटी कॉस्ट’ नहीं है बल्कि ‘एजेंड़ाग्रस्त’ हो चुका है। काल्पनिक कथाओं पर फ़िल्में बनाना और उसे ऐसे प्रचारित करना, मानो भारत में यही सब चल रहा हो, एक सिनेमाई छल नहीं तो और क्या है ?
ब्रिटिश शासन वाले भारत में भारतीय जनगणना के कमिश्नर जे.एच.हट्टन थे। हट्टन ने भारतीय जनजातियों और समाज का गहरा अध्ययन कर एक किताब ‘कास्ट इन इंडिया: इट्स नेचर, फंक्शन एंड ओरिजींस’ शीर्षक से एक किताब लिखी थी। हट्टन ने अपने अध्ययन में पाया कि जाति केवल भारत में ही पाई जाती है और ये एक अद्भुत संगठन है। फिल्मों में जो जातिवाद दिखाया जाता है, वह जमीन पर क्यों नहीं दिखाई देता ? फिल्म निर्देशक कभी किसी सत्य घटना पर जातिवादी फिल्म क्यों नहीं बनाते ?
वेब सीरीज ‘दहाड़’ में दिखाई गई प्रताड़ित दलित महिला अधिकारी वास्तव में हैं तो मोदी सरकार द्वारा ताज़ा-ताज़ा दिए गए अधिकारों का प्रयोग कर अपने सीनियर को जेल क्यों नहीं पहुंचाती? इन सवालों के जवाब भारतीय सेंसर बोर्ड को देना चाहिए, जो समाज को बांटने वाली ऐसी फिल्मों को सहर्ष रिलीज की अनुमति दे देता है। क्या सरकारों को ऐसी फिल्मों की रिलीज से कोई लाभ होता है ? यदि हम वर्तमान सरकार के काम काज के तरीके को देखे तो पता चलेगा कि जातिवाद को उभारकर उससे लाभ लेने की कोशिश मोदी सरकार ने भी भरपूर की है।
जाति के आधार पर सांसदों और मंत्रियों की बैठक करवाने का क्या औचित्य हो सकता है ? एससीएसटी एक्ट में 22 से बढ़ाकर 47 अपराधों को शामिल करने का उद्देश्य चुनावी लाभ उठाना अधिक दिखाई देता है। एससीएसटी एक्ट को मोदी सरकार द्वारा सख्त करने के बाद कितने ही सामान्य वर्ग के लोगों ने आत्महत्या कर ली। डुमरांव में आज से छह माह पूर्व एक वृद्ध व्यक्ति ने अपने गमछे का फंदा बनाकर पुलिस हिरासत में आत्महत्या कर ली। उन पर एससीएसटी एक्ट लगाया गया था। जयपुर में एक 25 वर्षीय युवा सीए ने एससीएसटी एक्ट लगने के बाद छत से कूदकर जान दे दी।
क्या अनुभव सिन्हा या अनुराग कश्यप इन दर्दनाक सत्य कथाओं पर फिल्म बनाने का साहस दिखा सकते है ? क्या अनुभव सिन्हा को अख़बारों में ऐसे किस्से पढ़ने को नहीं मिलते होंगे ? राजीव मल्होत्रा और विजया विश्वनाथन की ‘स्नेक्स इन गंगा’ भारत में उभर रहे जातिवाद के खतरों से सावधान करती है। जातिवादी फिल्मों को हमें ‘स्नेक्स इन गंगा’ के चश्मे से देखना आवश्यक हो गया है।
अपनी किताब के बारे में मल्होत्रा कहते हैं ‘गंगा को एक सुरक्षित स्थान माना जाता है, हमें डर या खतरा नहीं दिखता है। लेकिन सतह के नीचे खतरे हैं। और ये खतरे सांप की भांति हैं। इनमें विचार, व्यक्ति और संस्थाएँ शामिल हैं।’ द्रविड और दलित समुदायों को अलग करने की कोशिश में अमेरिका और यूरोपीय चर्चों, थिंक टैंकों, फाउंडेशनों और मानवाधिकार समूहों के हस्तक्षेप को दर्शाते हुए मल्होत्रा एक किताब ‘ब्रेकिंग इंडिया’ पहले ही लिख चुके हैं।
मल्होत्रा ‘वोकिज्म’ की बात करते हैं। ‘वोकिज्म’ का अर्थ है धर्म से घृणा करना और पर्यावरण संतुलन के नाम पर किसी देश के विकास को बाधित करना। फिल्मों के जरिये इसका बहुत प्रचार हो रहा है। आजकल की फिल्मों में आप हिन्दू धर्म से घृणा, नारीवादी, समलैंगिकता का प्रचार देख ही रहे हैं। ये सभी ‘वोकिज्म’ के अंतर्गत आता है। अब ‘दहाड़’ के उदाहरण के जरिये बात को समझिये। लड़की के पिता ने मना किया है कि कोच के सामने नहीं झुकना है, इस लड़की को पुरुषों से घृणा है, लव जिहाद के दौर में फिल्म का मुस्लिम पात्र डरा हुआ दिखाया गया है। फिल्म में आप ‘वोकिज्म’ का भरपूर इस्तेमाल देखेंगे।
काल्पनिक कथाओं पर बनने वाली फिल्मों को सेंसर बोर्ड के स्तर पर ही रोका जा सकता है लेकिन ऐसा करने के लिए बोर्ड को सरकार की जातिवादी विचारधारा से किनारा करना होगा। भारतीय संस्कृति और धर्म ‘अंडर अटैक’ है। विगत पचास वर्ष में फिल्मों ने बहुत कुछ बदलकर रख दिया है। भारतीय नारियों की सुंदरता को पूर्ण करने वाली बिंदी खो चुकी है। जैसे बिंदी खोई है, वैसे ही महिलाओं के कंधे से दुपट्टा गायब हो गया। कुछ और समय बाद हम पाएंगे कि समाज के सभी वर्गों में इन फिल्मों की मेहरबानी से एक निर्णायक दूरी बन गई। बिंदी और दुपट्टा खोने के बाद सामाजिक तानाबाना ख़त्म होने के लिए भी तैयार रहिये।