गलवान घाटी में हुए संघर्ष के बाद ये तय था कि अजय देवगन या अक्षय कुमार इस पर फिल्म बनाने की पहल करेंगे। शनिवार को अजय देवगन ने इस पर फिल्म बनाने की घोषणा कर दी। उल्लेखनीय है कि गलवान घाटी में चीन के साथ हुए दंगल में हमारे भारतीय सैनिकों ने अथाह शौर्य दिखाते हुए कई चीनी सैनिकों को नरक भेज दिया। इस छोटे युद्ध में हमारे भी बीस सैनिक बलिदान हुए हैं। निश्चित ही गलवान का संघर्ष बॉलीवुड के लिए एक बड़ा विषय है क्योंकि इस समय भारत तीन ओर से खतरे का सामना कर रहा है। ऐसे वातावरण में युद्ध फिल्मों का निर्माण करना लाभदायक सिद्ध हो सकता है क्योंकि युद्धकाल में दर्शकों का देशप्रेम चरम पर रहता है।
इतिहास में झांके तो पता चलता है कि शांतिकाल में प्रदर्शित होने वाली युद्ध फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर किला नहीं लड़ा पाती। सन 2018 में जेपी दत्ता की ‘पलटन’ फ्लॉप रही क्योंकि उस समय चीन से हमारा कोई तनाव नहीं था। ये फिल्म सन 1967 के भारत-चीन युद्ध पर आधारित थी। 67 के युद्ध में हमने चीन को बुरी तरह मारकर भगाया था लेकिन इतिहासकारों ने सन 1962 की हमारी पराजय को ही ध्यान में रखा और लिखा।
जेपी दत्ता की ये फिल्म हर मायने में उत्कृष्ट थी लेकिन उस समय शांति काल चल रहा था और कोई सिचुएशन नहीं थी। पाकिस्तान के साथ हम हमेशा युद्धरत रहे हैं इसलिए आतंक पर आधारित फिल्मों का प्रदर्शन काल पूरे साल बना रहता है। उरी हमला सन 2016 में किया गया था और इस पर फिल्म बनकर तीन साल बाद रिलीज हुई और ब्लॉकबस्टर रही। मनोविज्ञान के आधार पर देखे तो चीन से नफरत टेम्परेरी है लेकिन पाकिस्तान से हमारी घृणा परमानेंट है। इसलिए ही आतंक के विषय पर बनी फिल्मों के हिट होने की संभावना हमेशा विद्यमान रहती है।
‘उरी- द सर्जिकल स्ट्राइक’ सफल होने के बाद बॉलीवुड में राष्ट्रवादी फ़िल्में बनाने की प्रतियोगिता चल पड़ी है। इस खेल में अक्षय कुमार और अजय देवगन प्रमुख निर्माताओं में गिने जाते हैं। इस बार अजय देवगन ने फिल्म की घोषणा करने में फुर्ती दिखाई है। यही फुर्ती उन्हें तुरंत फिल्म बनाकर रिलीज करने में दिखानी होगी। कारण स्पष्ट है कि फिल्म के बैकड्रॉप में चीन है, पाकिस्तान नहीं।
भारतीय जनमानस की स्मरण शक्ति का डिब्बा बहुत छोटा होता है। छोटा न होता तो जेपी दत्ता की भारतीय विजय पर आधारित फिल्म बुरी तरह नहीं पिटती। मान लीजिये फिल्म बनकर प्रदर्शित होने तक चीन से हमारा सीमाई तनाव समाप्त हो जाए। ऐसा हो गया तो फिल्म चर्चा में नहीं रहेगी। ये भी तो संभव है कि चीन से हमारी झड़प एक पूर्णकालिक युद्ध में बदल जाए। उसके बाद की सभी घटनाएं फिल्म बनाने योग्य होगी और गलवान का संघर्ष कहीं दब सा जाएगा।
राष्ट्रवाद पर फिल्म बनाने में कोई बुराई नहीं है लेकिन इसकी अधिकता नहीं होनी चाहिए। यदि साल में दस फ़िल्में देशभक्ति पर बनने लगेगी तो इस जॉनर से लोगों का मोह भंग होते देर नहीं लगेगी। पिछले पांच साल में सबसे अधिक देशभक्ति फिल्मों का निर्माण हुआ है। इनमे सामाजिक सरोकार वाली फ़िल्में भी शामिल हैं, जिनमे अक्षय कुमार ने खूब काम किया है।
उनकी ‘टॉयलेट-एक प्रेम कथा’ सुपरहिट रही लेकिन ऐसे ही सामाजिक विषय पर बनाई गई ‘पेडमैन’ औसत व्यापार ही कर सकी। हमारे यहाँ ऐसी फिल्मों पर तगड़ा होमवर्क भी नहीं किया जाता, जैसा एस.राजामौली करते हैं। यदि ‘मणिकर्णिका- द क्वीन ऑफ़ झाँसी’ कंगना रनौत के बजाय कोई अनुभवी निर्देशक बनाता तो बॉक्स ऑफिस पर परिणाम बहुत अच्छे होते। गौरतलब है कि ये फिल्म मुश्किल से ही अपनी लागत वसूल कर सकी थी।
कोरोना काल में फिल्म बनाना बहुत कठिन हो चुका है। आपको कम से कम लोग लेकर शूटिंग करनी पड़ेगी। सिनेमाघरों के खुलने का समय अब भी ज्ञात नहीं है। फिल्म उद्योग पहले ही आर्थिक संकटों से घिर चुका है। बड़े निर्माता विवशता में फिल्मों को ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज कर रहे हैं।
अभी तो देवगन के मन में एक विचार ने जन्म लिया है, जिसको अमल में लाने के लिए वक्त चाहिए। फिर गलवान घाटी के संघर्ष पर एक बड़े शोध की भी आवश्यकता होगी। स्क्रीनप्ले लिखने में समय जाएगा। देवगन को जो भी करना है, जल्दी करना होगा। चीन से जब तक तनाव का माहौल है, तब तक ही इस बनने वाली फिल्म की ज़िंदगी होगी।