भारत का इतिहास वीरता की गाथाओं से भरा पड़ा है लेकिन स्कूल की किताबों में हमको मुगल काल और स्वतंत्रता संग्राम ही पढ़ने को मिलता है। बच्चों और युवाओं के लिए शिक्षाप्रद कहानियों और बलिदानी गाथाओं का नितांत अभाव दिखाई देता है। फिल्मों में भी यही हाल है। राजामौली जैसे दक्षिणी फ़िल्मकार को छोड़ दे तो, इतिहास की किताबें कोई खोलना नहीं चाहता। पिछले वर्ष मलयालम भाषा में एक पीरियड ड्रामा ‘मामंगम’ प्रदर्शित हुई थी। सत्रहवीं सदी में एक युवा के बलिदान पर आधारित इस फिल्म में सुपरस्टार मम्मूटी मुख्य किरदार में दिखाई दिए थे।
‘मामंगम’ केरल के एक प्राचीन उत्सव ‘मामंकम’ पर आधारित है। इस उत्सव का एक रक्तरंजित इतिहास रहा है। केरल के मालाबार क्षेत्र में एक प्राचीन नदी बहती थी, इसका नाम ‘पेरार’ था। आज इसे ‘नीला’ नदी के नाम से जाना जाता है। इसी नदी के किनारे ‘मामंकम उत्सव’ का आयोजन सामुद्री राजवंश द्वारा किया जाता था। उत्सव में विश्वभर से योद्धा आते थे और अपनी युद्ध कला का प्रदर्शन किया करते थे। सामुद्री (जमोरिन) वंश के साथ चावेरुकल(नायर) के मतभेद थे। इतिहास में ये भी लिखा जाता है कि नायरों को सामुद्री (जमोरिन) वंश के शासकों की हत्या करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। कुछ किताबों में ये भी जिक्र है कि सामुद्री निरंकुश थे और प्रजा पर अत्याचार करते थे, इसलिए ही नायर इस वंश का खात्मा चाहते थे।
मम्मूटी की ये फिल्म उस सशस्त्र संघर्ष को गहराई से प्रस्तुत करती है। ऐतिहासिक मतभेद देखते हुए निर्माता ने फिल्म में कथा का एंगल यही रखा कि जमोरिन वंश अत्याचारी था। इस फिल्म का बॉक्स ऑफिस पर क्या हश्र हुआ ये दूसरा विषय है लेकिन फिल्म में उस कालखंड का भारत देखना श्रेष्ठ अनुभव है। इन नायर योद्धाओं को ‘आत्मघाती लड़ाके’ कहा जाता था। ये घर से निकलते थे तो वापस लौटने का कुछ तय नहीं होता था। फिल्म के एक दृश्य में दिखाया गया है कि योद्धा जाने से पहले अपनी माता के भरण-पोषण के लिए धन छोड़कर जाते हैं ताकि उनके न लौटने की सूरत में माँ को आर्थिक कष्ट न हो।
नायरों के लिए आत्मसम्मान जान से अधिक महत्वपूर्ण हुआ करता था। ऐसा संकेत दिया गया है कि उस दौर में नायरों में नारी शक्ति प्रबल हुआ करती थी। फिल्म में दिखाया गया है कि पुरुषों के विरोध की परवाह न करते हुए एक बारह साल के अबोध बालक को ‘मामंगम’ में भेजने में नारियां कोई संकोच नहीं करती। कलारिपट्टू की शस्त्र कलाएं फिल्म में देखने को मिलती है लेकिन उतनी प्रभावी नहीं हो पाती, जितनी कि ‘7aum Arivu’ में दिखाई गई थी। मुरगादौस की इस फिल्म में सूर्या ने ‘बोधिधर्म’ की भूमिका निभाई थी। पीरियड फिल्मों में तकनीक का दोष बहुत भारी पड़ जाता है और यदि फिल्म में एक्शन हो तो सावधानी रखनी ही पड़ती है।
ये सही है कि ‘मामंगम’ को व्यवसायिक सफलता नहीं मिल सकी लेकिन सनातन के प्रचार के लिए ऐसी ही फिल्मों की आवश्यकता है। दक्षिण की फिल्मों में इतिहास को दिखाने से पहले काफी शोध किया जाता है। इस फिल्म के लिए भी व्यापक शोध किया गया था। अभी इस तरह की परंपरा बॉलीवुड में नहीं है। बॉलीवुड में इस तरह की फ़िल्में बनाने की क्षमता फिलहाल तो नहीं है। वे कहते हैं कि दर्शक ऐसी फ़िल्में पसंद नहीं करते। यदि ऐसा होता तो हिन्दी बेल्ट में ‘बाहुबली’ और ‘मगाधीरा’ जैसी फ़िल्में कमाई के कीर्तिमान नहीं बनाती। मामंगम उस कार्य को और आगे बढ़ाती नज़र आती है, जिसे राजामौली ने शुरू किया था।
सत्रहवीं सदी में ऐसा कुछ हुआ कि ये रक्तरंजित उत्सव सदा के लिए समाप्त हो गया। एक सोलह वर्षीय नायर योद्धा की अद्भुत वीरता और बलिदान के बाद ये अध्याय ख़त्म हो गया। पुत्तुमाना कंडारु मेनन नाम था उस सोलह वर्षीय वीर का, जिसने मरने से पहले कई शत्रु सैनिकों के सर धड़ से अलग कर दिए। वह तो सामुद्री शासक के मंच तक पहुँच गया लेकिन वहां उसकी तलवार एक ज़ंजीर में फंस गई और वह बलिदान हो गया। उस समय नायर योद्धाओं का मृत शरीर उनके राज्य नहीं ले जाने दिया जाता था। कोई अनजान व्यक्ति उसके शव को वहां से निकालकर उसके गृह स्थान तक ले गया था।
फिल्म में यही बलिदानी बारह वर्ष का दिखाया गया है। और सच कहूं तो फिल्म का सबसे अच्छा भाग वही है, जब बालक युद्ध की चुनौती देता है। यदि फिल्म का निर्देशक बीच में बदला न जाता और एक्शन दृश्यों को कस लिया जाता तो ये फिल्म बाहुबली को टक्कर दे सकती थी लेकिन फिर भी ये एक दर्शनीय फिल्म है। फिल्म सिखाती है कि उस समय के स्वर्णिम भारत में अन्याय सहा नहीं जाता था। कर्तव्य भुलाया नहीं जाता था।
योद्धाओं की गाथाएं सुनाई जाती थी ताकि बच्चों में बहुत पहले से वीरता के भाव जागृत हो सके। केरल के मल्लापुरम में पुत्तुमाना के नाम का मंदिर बनाया गया, जो आज भी मौजूद है और यहाँ आज भी लोग अपने बच्चों को लाकर उसकी अद्भुत वीर गाथा सुनाते हैं। ‘मामंकम’ का नाम फिल्म में बदलकर ‘मामंगम’ कर दिया गया तो इसके पीछे कोई क़ानूनी पहलू होंगे लेकिन कहानी तो वही है। इस रक्तरंजित उत्सव और उस कालखंड के भारत की यात्रा करनी हो तो ये फिल्म देखी जा सकती है। अब ये फिल्म हिन्दी में भी उपलब्ध है।