
पुण्य प्रसून वाजपेयी एक प्रोडक्ट है, घटिया प्रोडक्ट!
दयानंद पांडेय। एबीपी न्यूज़ और पुण्य प्रसून वाजपेयी पर जो गाज गिरी है , वह तो गिरनी ही थी। बकरी कब तक खैर मनाती भला । अफ़सोस है और गहरा दुःख है इस सब पर। बावजूद इस के मेरी राय में पुण्य प्रसून वाजपेयी भी सिर्फ़ एक प्रोडक्ट हैं। एक घटिया प्रोडक्ट! जिसे कारपोरेट ने अपने हितों के लिए तैयार किया है। रवीश कुमार भी घटिया कारपोरेट प्रोडक्ट ही हैं जैसे सुधीर चौधरी या रजत शर्मा। या ऐसे और लोग, बस खेमे अलग-अलग हैं। वास्तव में यह लोग पत्रकार नहीं, बाजीगर लोग हैं। जो चाहे लाखों का पैकेज थमा कर, विज्ञापन थमा कर, इन्हें अपनी रस्सी तान कर उस पर नचा सकता है। इन सुधीर चौधरी, रजत शर्मा, रवीश कुमार या पुण्य प्रसून वाजपेयी आदि-इत्यादि को कोई यह बताने वाला नहीं है कि जब आप पक्षकार बन जाते हैं तब पत्रकार नहीं रह जाते। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप सत्ता पक्ष के खेमे में हैं या, प्रतिपक्ष के खेमे में। हम तो बस इतना जानते हैं कि आप ख़बर के पक्ष में नहीं हैं, निष्पक्ष नहीं हैं, जनता के पक्ष में भी नहीं हैं। आप सिर्फ़ और सिर्फ़ इस या उस पक्ष की दलाली कर रहे हैं।
लोग भूल गए होंगे पर मैं नहीं भूला हूं कि जब जिंदल से ब्लैकमेलिंग के जुर्म में सुधीर चौधरी के खिलाफ एफ़ आई आर हुई और वह गिरफ्तार हुआ तब यही मास्टर स्ट्रोक के शहीद पुण्य प्रसून वाजपेयी तब ज़ी न्यूज़ पर हाथ मलते हुए छाती तान कर उदघोष कर रहे थे कि यह तो इमरजेंसी जैसा माहौल है। बताइए कि एक ब्लैकमेलर पकड़ा जाता है तो आप उस की तुलना इमरजेंसी से कर देते हैं। फिर तो जाने क्या-क्या स्याह-सफेद करते होंगे? अरविंद केजरीवाल को भगत सिंह बनाने की तरकीब देते पुण्य प्रसून वाजपेयी को लोग भूल गए हैं क्या? बहुतों के बहुत से ऐसे मास्टर स्ट्रोक हैं। जनता जब जानेगी सारा सच तो यह लोग कौन सा प्राइम टाइम करेंगे कि रेत में सिर घुसा लेंगे, यह कौन पूछेगा किसी से? रजत शर्मा, सुधीर चौधरी की बेशर्मी तो साफ़ दिखती है। लेकिन बग़ावत के बीज बो कर, क्रांति की ललकार के साथ रवीश कुमार की दलाली किसी को नहीं दिखती तो उस के मोतियाबिंद को ठीक करने की दवा किसी हकीम लुकमान के पास नहीं है।
माफ़ कीजिए यह नौकरी की विवशता नहीं, चैनल चलाने की विवशता भी नहीं है। करोड़ो-अरबों रुपए कमा लेने की हवस है! सिर्फ़ हवस! बाक़ी मीडिया के नाम पर विधवा विलाप का अब कोई मतलब नहीं है। समूचा मीडिया अब सिर्फ़ कारपोरेट का पीडी है। कारपोरेट ने जब संसद और सर्वोच्च न्यायालय तक को प्रकारांतर से खरीद लिया है तो मीडिया के लिए इस विधवा विलाप करने का कोई अर्थ शेष नहीं रह गया है। मीडिया अगर रीढ़विहीन नहीं हुई होती तो संसद भी नहीं बिकी होती। सर्वोच्च न्यायालय भी नहीं। नौकरशाही तो मीडिया के पहले ही कारपोरेट का पीडी बन चुकी थी।
खैर, मीडिया ने अपने महावत और उस के अंकुश को जिस दिन अपनी आत्मा के साथ बेच दिया था इन मुश्किल स्थितियों की नींव तभी पक्की हो गई थी। अब वह इमारत बुलंद हो गई है। उस के गुंबद अपनी पूरी चमक और शान के साथ दिखने लगे हैं। इस स्थिति के लिए कारपोरेट से ज़्यादा तमाम संपादक लोग ज़िम्मेदार हैं। बल्कि अपराधी हैं! प्रतिरोध और जन पक्षधर की पत्रकारिता का गला घोंट कर सिर्फ़ टीआरपी और लाखों का पैकेज पाने खातिर जिस तरह दलाल पत्रकारों को सिर पर बैठाया इन संपादक लोगों ने, ख़ुद भी दलाल बन कर कुत्ते, बिल्ली, अंध विश्वास और अपराध की खबरों की जो चीख चिल्लाहट भरी मीडिया तैयार किया है संपादक लोगों ने, जो माहौल बिगाड़ा है तो यह तो होना ही था।
स्थितियां अभी और विद्रूप होनी हैं। मोदी मीडिया, गोदी मीडिया जैसे निरर्थक शब्दों को सुन कर अब सिर्फ़ हंसी आती है। इलेक्ट्रानिक मीडिया जैसे पावरफुल माध्यम के पावर का गर्भपात करने के लिए तमाम संपादक अपराधी हैं। फिर यह लोग संपादक भी कहां रह गए थे, यह लोग तो न्यूज़ डाइरेक्टर हो गए। जैसे कोई फ़िल्म डाइरेक्टर अच्छी बुरी फ़िल्म बनाता है तो उसे उस का उसी हिसाब से बाज़ार से रिस्पांस मिलता है। न्यूज़ डाइरेक्टरों को भी मिल रही है। तो काहे का रोना-धोना। नतीज़तन प्रजातंत्र अब मिला-जुला तमाशा है। तारादत्त निर्विरोध का एक शेर याद आता है :
दूर दूर बहुत दूर हो गए
हम से आप आप से हुजूर हो गए।
संपादक जनता से सीधे मिलता था। सब का दुःख-सुख समझता था। न्यूज़ डाइरेक्टर लोग तो अपने स्टाफ़ से मिलने ही में अपनी तौहीन समझते हैं। अब काहे का रोना किसी पुण्य प्रसून वाजपेयी या किसी रवीश कुमार पांडेय के लिए। एक ब्रांड, एक प्रोडक्ट जाएगा, दूसरा आ जाएगा। वह भी बाऊंसर ले कर घूमेगा। खुद को मिलने वाली गाली को भी बेचेगा। जैसे कोई फ़िल्मी हिरोइन अपनी वाहियात फ़िल्म हिट करवाने के लिए अपनी कोई सेक्स वीडियो बाज़ार में लीक कर देती है। इसी तर्ज पर किसी एंकर प्रोडक्ट को, किसी न्यूज़ चैनल को टीआरपी मिल ही जाती है। मिल जाएगी कोई भी नौटंकी कर के पर रीढ़ वाली पत्रकारिता तो अब कभी नहीं आने वाली। चाहे जितना शीर्षासन कर लीजिए, विधवा विलाप कर लीजिए। अब तो कोई भी क्रांति हो , क्रांति भी बिकाऊ है। हर क्रांति बिकाऊ। तो पीडी मीडिया के लिए किस बात का अफ़सोस भला? कम से कम मुझे तो बिलकुल नहीं है। हर किसी का नंगापन, कमीनापन और बिकाऊपन मेरे सामने है। धूमिल लिख ही गए हैं :
मैंने एक-एक को
परख लिया है।
मैंने हरेक को आवाज़ दी है
हरेक का दरवाजा खटखटाया है
मगर बेकार…मैंने जिसकी पूँछ
उठायी है उसको मादा
पाया है।
वे सब के सब तिजोरियों के
दुभाषिये हैं।
वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं।
अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक
हैं । लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।
यानी कि-
कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।
अभिसार शर्मा के भ्रष्टाचार और फेक न्यूज के खिलाफ इंडिया स्पीक्स ने लगतार खबरें प्रकाशित की, जिसे आप पढ़ सकते हैं-
ABP के एंकर अभिसार शर्मा के एक-एक झूठ का खुलासा, दस्तावेज के साथ!
फेक न्यूज मामले में एबीपी एंकर अभिसार शर्मा पर कसा शिकंजा! सरकार ने भेजा नोटिस!
वाराणसी हादसे को लेकर दांत निपोरते हुए पत्रकार अभिसार शर्मा ने फैलाया फेकन्यूज!
साभार: दयानंद पांडेय के फेसबुक वाल से
URL: Anchor Abhisar Sharma and punya prasoon vajpayee is kicked out from ABP News.
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