कमलेश कमल। हिंदू धर्म सत्य और ऋत का सहज-शाश्वत और सुमिलित गठबंधन है, जो स्वभाव से ही वर्तमानजीवी और कल्याणधर्मी है। ऋत और सत्य का यह गठबंधन दर्शन की रज्जू से होता है, जिसका रेशा या तंतु ज्ञान को माना जा सकता है। दर्शन का यह संयोजक रज्जू ज्ञानयज्ञ से सही साँचे में ढलता है, ग्रन्थित (गुंथित) होता है। यहाँ प्रश्न उठता है कि यह ज्ञानयज्ञ क्या है? ज्ञान द्वारा सभी के मार्गदर्शन करने की प्रक्रिया ही ज्ञानयज्ञ है। इसकी महत्ता क्या है? इस संदर्भ में कहा गया है-
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञ: परंतपः ।
सर्वकर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।।
अर्थात्– हे परंतप ! सभी प्रकार के द्रव्यमय यज्ञों से ज्ञानयज्ञ अत्यंत श्रेष्ठ है तथा जितने भी कर्म हैं, वे सब ज्ञान में ही समाप्त होते हैं। अर्थात् ज्ञान से पवित्र कुछ भी नहीं। (न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।) तो, भारतीय परिप्रेक्ष्य में, जैसा ऊपर वर्णित है, ज्ञान और दर्शन भलीभाँति अनुस्यूत है। यहाँ, इसे आलोकित करते हुए आरम्भ में ही इस सम्बन्ध को इसके अवयवों के साथ ही परिभाषित कर लेना समीचीन होगा।
दर्शन की जो सबसे गहन परिभाषा की गई है वह यह है कि दर्शन शिक्षा विषयक सिद्धांत का सामान्यीकृत रूप है। दूसरे शब्दों में कहें, तो दर्शन जीवन का लक्ष्य निर्धारित करता है। शिक्षा से संबंध देखें, तो शिक्षा उस लक्ष्य को प्राप्त करने का उपाय बताती है। आर्ष सत्य है कि शैक्षिक समस्या के समाधान में एक दार्शनिक आधार की आवश्यकता एवं उपादेयता हमेशा रही है।
अगर प्रचीन भारतीय शिक्षा और दर्शन की बात करें, तो हम देखते हैं कि यहाँ जीवन-दर्शन और शिक्षा दर्शन में एकात्म है, नाभिनालसंबद्धता है। यहाँ संस्कृति की जो शाश्वत, सतत, प्रवाहमयी, अविभाज्य, अखंड और वेगवती धारा है, उसमें शिक्षा, जीवन-दर्शन और अस्तित्व सर्वथा एकाकार तथा असंपृक्त हैं। शिक्षा एवं दर्शन के इस सहसंबंध का प्रतिफल न केवल सांसारिक अभ्युदय है, अपितु पारलौकिक कर्मकांड से इतर, परा विद्या से निःश्रेयस की प्राप्ति और विमुक्ति का विधान एवं अपरा विद्या से अध्यात्म के गौरीशंकर का आरोहण भी दिखाई देता है।
ध्यातव्य है कि ईसा पूर्व 15वीं शताब्दी तक अधिकांश वैदिक मंत्रों के संपादन का कार्य पूर्ण हो चुका था। यह भी यहाँ स्मरण रखना होगा कि भारतीय ज्ञान-विज्ञान का सबसे पहला केंद्र वैदिक यज्ञ संस्था है और यह संस्था मनुष्य-देवता, आभ्यन्तर-बाह्य, चर-अचर के बहुविध युग्मों से विनिर्मित है। अस्तु, ईसा पूर्व में ही, आर्यावर्त की पावन धरा पर वेदों के अर्थबोध के लिए टीकात्मक एवं चर्चात्मक ग्रंथों का प्रणयन हो चुका था, वेदातिरिक्त साहित्य भी प्रभूत मात्रा में विरचित हो चुके थे, कंठस्थ करने वाले ग्रंथों के अतिरिक्त निरुक्त, शब्दकोशों आदि का भी विनिर्माण हो चुका था। इससे स्पष्ट होता है कि विवेच्य अवधि में उदात्त दर्शन से अनुप्राणित यह शिक्षा-व्यवस्था उच्च कोटि की थी।
प्राचीन शिक्षा व्यवस्था की समीक्षा के क्रम में हम देखते हैं कि संस्कृत साहित्य में उपाध्याय एवं उपाध्यायानी की चर्चा मिलती है। उपाध्यायानी विदुषी नारियों को कहा गया है। अर्थात् जिस अवधि में अन्य सभ्यताओं का सूत्रपात भी नहीं हुआ था, हमारे यहाँ न केवल आर्यभट्ट, वराहमिहिर, पाणिनी, चरक, चंद्रगुप्त, चाणक्य आदि अधिगम प्रक्रिया के सर्वोत्तम उदाहरण वाले विद्वान् पुरुष हुए, बल्कि गार्गी, घोषा, अपाला जैसी विदुषियाँ हुईं जिन्होंने उत्कृष्टतम श्लोकों, ग्रंथों का प्रणयन किया।
मंदिर, आश्रम, गुरुकुल आदि ज्ञानार्जन के केन्द्रों में जहाँ औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों प्रकार के शैक्षणिक कार्य संपादित किए जाते थे, वहीं वाल्मीकि, संदीपनी, कण्व, आदि ऋषियों के आश्रमों में व्याकरण, ज्योतिष, नागरिक-शास्त्र आदि ग्रंथों के आधार पर बहुपयोगी शिक्षण व्यवस्था सुस्थापित थी।
आज जिस सहशिक्षा या को-एजुकेशन की बात की जा रही है, उसका उल्लेख तो हमारे वैदिक ग्रंथों में ही मिल जाता है। वाल्मीकि रामायण में लव-कुश के साथ आत्रेयी नामक विद्यार्थिनी की चर्चा मिलती है, वहीं मालती-माधव में भूरीवसु एवं देवराट के साथ कामंदकी नामक विद्यार्थिनी की चर्चा मिलती है। इससे स्पष्ट होता है कि आज पाश्चात्य जगत जिस सह-शिक्षा की दुदुम्भी बजा रहा है, वह भी हमारे वैदिक काल में अस्तित्व में थी। परवर्ती काल में भी तक्षशिला, नालंदा विक्रमशिला आदि विश्वविद्यालयों में आर्ष परम्परा के अनुसार ही धर्म, दर्शन, न्याय, तर्क, ज्योतिष आदि विषयों में वैदिक शिक्षा, दर्शन, सभ्यता एवं संस्कृति का हस्तांतरण किया जाता रहा।
उपर्युक्त संदर्भ में, जहाँ तक वेदों की बात है, तो वेद स्वयं कोई दार्शनिक ग्रंथ नहीं हैं, वरन् इनमें सभी भारतीय दर्शनों के आधार मिलते हैं। उपनिषद् बुद्धिपरक, तर्कपरक, सांसारिक और गहरे दार्शनिक चिंतन का प्रतिपादन करते हैं, जिनसे जहाँ प्रज्ञा चक्षु खुलकर एक उदार दृष्टि मिलती है, वहीं इससे सांसारिक और भौतिकवाद का दार्शनिक आधार भी प्रस्फुटित होता है। इसी कड़ी में आगे वेदांत में चार्वाक, बौद्ध, जैन, सांख्य, मीमांसा आदि धाराओं को प्रतिबल मिलता है।
भारतीय दर्शन का सबसे मूलभूत तथा सबसे महत्त्वपूर्ण निकष है- सभी पुरुषार्थों के साधन से विमुक्ति का विधान। यहाँ दर्शन मानसिक कौतूहल के लिए नहीं, वरन् जीवन जीने के उपकरण के रूप में प्रतिष्ठित है। कहना न होगा कि भारतीय दर्शन कर्मवाद पर आधारित है, जहाँ हम सब रंगमंच पर नाटक कर रहे होते हैं। इंद्रियों को यहाँ उपकरण मान और आत्मसंयम को सर्वोपरि मान विश्वकल्याण के लिए अग्रसरित होना है, जिसमें शिक्षा और दर्शन के वैदिक मूलाधार की महती भूमिका दिखाई देती है।
प्राचीन भारतीय दर्शन की बात करें, तो निश्चित रूप से यह धर्ममय रहा है, जहाँ धर्म जीवन के सभी आयामों को प्रभावित ही नहीं, वरन् संचालित भी करता रहा है। यह ‘जीवन में धर्म’ नहीं अपितु ‘धर्ममय जीवन’ को साकार करता था और शिक्षा इसी उद्देश्य की सम्यक् पूर्ति का साधन थी। लोकोपयोगी शिक्षा, सहभागिता सिखाने वाली यह शिक्षा दिव्य सिद्धांतों पर आधारित थी जो वसुधैव कुटुम्बकम को साकार करती हुई पुरुषार्थ चातुष्ट्य की भी सम्प्राप्ति की हेतु भी थी। इस व्यवस्था में व्यक्तित्व विकास का व्यापक दृष्टिकोण सन्निहित था, जिसमें श्रवण, चिंतन, मनन के अलावा शारिरिक श्रम से वैयक्तिक, व्यावसायिक और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता था।
कोई भी शिक्षण व्यवस्था ऊपर वर्णित ज्ञानयज्ञ को ही रूपायित करे, ऐसी अभीप्सा रहती है। ऐसी व्यवस्था में अधिगम का स्तर कई मानकों पर उच्चतम होता है। मूलतः शिक्षण और अधिगम के चार मूल प्रकार हैं-ज्ञानात्मक, गुणात्मक, भावात्मक, क्रियात्मक। अधिगम को इन सभी प्रकार के शिक्षण निकष पर जाँचा और परखा जान चाहिए, न कि बस पाठ्यक्रम को कितना रटा गया है, इस आधार पर।
ऐसे में प्राचीन कल में भारतीय शिक्षा के आकाश में अनेकानेक भास्कर देदीप्यमान हुए जिनके विविधवर्णी रश्मियों से पूरा भारतवर्ष चिर आलोकित हो गया। ये ऋषिगण यह भलीभांति जानते थे कि समाज की रूढि बन चुकी मान्यताओं, अंधविश्वासों और सड़ी-गली मान्यताओं के घने बादलों को हटाने का सामर्थ्य शिक्षारूपी सूर्य की दिव्य रश्मियों के पास ही है, तभी तो उन्होंने ‘सा विद्या या विमुक्तये’ का उद्घोष कर दिया।
शिक्षा से व्यक्तित्व विकास का मार्ग प्रशस्त होता है, अर्थात् यह मानव संसाधन के संवर्धन का माध्यम है। इसी महद् उद्देश्य की पूर्णता हेतु
सर्वांगीण विकास को केंद्र में रखकर हजारों वर्ष पूर्व ही हमारे यहाँ एक ऐसी शिक्षण व्यवस्था थी जिसमें सीखने की प्रक्रिया आजीवन-अनवरत प्रवाहमान रहती थी। इसके विपरीत, हम देखते हैं कि आज अधिगम की प्रक्रिया विकृत होकर पुनर्स्मरण की परीक्षा केंद्रित हो गई है। कहना ग़लत न होगा कि पुस्तकीय शिक्षण पर आधारित आज की व्यवस्था में भी शिक्षक-शिक्षार्थी प्रत्यक्ष संवाद को सर्वोत्तम महत्ता नहीं दी जा रही है, यह यांत्रिकता के सीमित दायरों से मुक्त नहीं है।
आज के अबोध, बेजान तथा एकरस शिक्षा की जगह किञ्चित् तब सार्वभौम रूप से अभिगम्य और वहनीय तथा भारत के बहुलतावादी चरित्र को दर्शाती शिक्षा व्यवस्था थी जिसमें पाठ्यचर्या में कल्पना, अभिरुचि संवर्धन, शारीरिक श्रम, चिकित्सा, युद्धकौशल, ज्योतिष, सब कुछ शामिल होता था। राजा का पुत्र भी गुरुकुल जाते ही भिक्षाटन हेतु भी जाता था, लकड़ी भी काटता था औए आश्रम के पशुओं को भी चराता था। इसे उसका चरित्र एक आयामी नहीं, बहुआयामी और विनयशील हो जाता था।
विचारणीय है कि व्यक्ति और समाज के अभ्युदय के लिए बौध्दिक विकास से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है चारित्रिक निर्माण और विकास; क्योंकि औद्योगिक प्रगति मात्र से ही कोई देश ख़ुशहाल और समृद्ध नहीं बन सकता, यह तो ख़ुशहाल बनता है जब लोग जीवन मूल्यों को आर्थिक पक्ष से अधिक वरीयता दें! इसका अभिप्राय है कि पर्यावरणीय उन्मुखीकरण, समावेशी, सहयोगात्मक और समग्र शिक्षा में ही भारत को आगे बढ़ाने की क्षमता अंर्तनिहित है। अब इन बिंदुओं के आलोक में प्राचीन भारतीय शिक्षा एवं इसके दर्शन को देखें, तो स्थिति आज से कई गुणा अच्छी थी।
आज अगर वैश्विक परिदृश्य में देखें, तो शिक्षण के क्षेत्र में बहुचर्चित ‘लंर्निंग : द ट्रेजर विदीन’ रिपोर्ट में एक ऐसी शिक्षा की बात की गई है जिससे तनाव और द्वंद्व कम हो, जिसे सही मायने में हम संतुलित शिक्षा कह सकें! ऐसी आश्वस्ति है कि शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति स्वयं का ही पुनः आविष्कार करता है। लेकिन इसके लिए शिक्षा सम्यक् हो, शिक्षण व्यवस्था ऐसी हो जिसमें जिज्ञासा, रुचि, नवोन्मेष हो, मुद्दे की आलोचनात्मक समझ हो, जिज्ञासापरक व प्रयोग-प्रधान पाठ्यक्रम हो जिससे शिक्षार्थियों के अंदर उदग्र चेतना का संचरण हो। प्रचीन भारतीय शिक्षा दर्शन इस निकष पर भी समुन्नत है।
विश्लेषण के अर्क रूप में हम कह सकते हैं कि हमारे प्राचीन ग्रंथों में ऐसी शिक्षा व्यवस्था का वर्णन है जिससे ज्ञानशील,कर्मशील, गुणशील, संस्कारनिष्ठ नागरिकों का निर्माण हो, जो विश्वबंधुत्व के भाव से अनुप्राणित हों, पर जो राष्ट्र के लिए स्वयं के उत्सर्ग में लेशमात्र भी विचलित न हों। ऐसी आश्वस्ति है कि आदर्श नागरिक ही गणतंत्र की पहचान होते हैं और शिक्षा में नवोन्मेष से ही आदर्श नागरिक की अवधारणा मूर्त रूप ले सकती है।
इसी को दृष्टिगत रखते हुए उज्ज्वल चरित्र, कर्तव्य परायण, मूल्यनिष्ठ, सुयोग्य और सत्चरित्र नागरिकों की पौधशाला के रूप में गुरुकुल हुआ करते थे जहाँ चरित्र निर्माण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती थी। आवश्यकता है उस समुन्नत शिक्षण व्यवस्था को उसके शिक्षा-दर्शन एवं व्यावहारिक अनुप्रयोगों को उद्घाटित कर प्रचारित, प्रसारित करने की।
इस आलेख को पढ़ने वाले सुधी जनों का आभार! जय हिन्द!
बहुत ही तार्किक , अकादमिक और उपयोगी लेख .. पढ़कर आनंद मिला ।