‘चुल्ल’ एक बीमारी होती है.उसके बारे में कम कहा, लिखा और बताया गया है. भारत में ये मनोरोग जैसा है.इनमें से बहुतों को, दिखाने, दवा कराने शायद ही कोई जाता हो. और अगर इस चुल्ल में एनजीओवाद का खाज भी हो जाए तो समझ लीजिए कि अब मामला डेडली है. छूत का रोग और कमीज सफेद. ऐसे में रोगी पहचानना मुश्किल और खुजाए बिना रहा न जाए. हाल के वर्षों में ये सनकी चुल्लचू शादी के शामियाने में मूंग की खिचड़ी खोजते नजर आते हैं. उनका निशाना संस्कृति के पारंपरिक अवसर होते हैं. कोई भी त्योहार हो, ये पोथी-पत्रा देखकर मूंगदाल मांगने लगते हैं. मांगने में कोई बुराई भी नहीं. मैं वैसे भी खान-पान में स्वतंत्रता का पैरोकार हूं. लेकिन आपकी मूंग की खिचड़ी दूसरे की थाली में लादना दरअसल सांस्कृतिक बलात्कार है. आजकल ये कुयोग खूब पनप रहा है. खील, गट्टा, बतासा बेच रहे लोगों के बीच चटाई बिछाकर एनजीओवाद का त्योहारी फतवा बेंचा जा रहा है.
मसलन, आप दीपावली मनाइए, पर पटाखे मत फोड़िए. आप होली खेलिए, पर बिना रंगों की. आप त्योहार मनाइए, पर उत्सव के साथ नहीं. आप ज़िन्दा रहिए, पर बिना आनंद के. आप राजनीति कीजिए ,पर चुनाव मत लड़िए. विराट कोहली आप क्रिकेट खेलिए, पर रन मत बनाईए. ऐसी चूतियापने की राय देने वाले हमारी उत्सव धर्मिता के शत्रु हैं. हमारी परंपरा के विरोधी हैं. हमारे उत्सव, आनंद, मेल जोल वाली संस्कृति के कातिल हैं.
इसलिए मैनें भरपूर आतिशबाजी के साथ दीवाली मनाई।पटाखे जलाए, जुआ खेला और जिमीकंद की सब्ज़ी खाई।तीनों ही दीपावली की परम्परा है।
क्या दुनिया के किसी और त्यौहार की परंपराओं को आप ऐसी पाबंदियों और वर्जनों से बाँध सकते हैं. अगर ऐसी कोशिश भी हुई. तो बम नहीं वो फट सकता है .फिर हमारी परंपरा की दीपावली की आतिशबाजी से एतराज क्यों? मान लिजिए अगर आतिशबाजी ख़तरनाक है, जानलेवा है, इससे मनुष्यता ख़तरे में पड़ रही है तो शब्बेवारात की आतिशबाजी में क्या कोई और रसायन होते है. क्रिसमस और अंग्रेज़ी के नए साल में दुनिया भर में होने वाली आतिशबाजी क्या बारूद की जगह होली वाटर बरसाती है? इस पर किसी पर्यावरणविद, सेकुलरवादी और “ओह बेबी से नो टू क्रेकर्स“ जमात को कोई एतराज क्यों नहीं होता? जिस रोज़ यहॉं दीपावली थी उसी रोज़ अमरीका और कनाडा में हैलोईन का त्योहार मनाया गया।हज़ारों टन आतिशबाजी जलाई गयी।तब आतिशबाजी के खिलाफ इस फतवाधारी जमात का ब्रम्हज्ञान क्यों नहीं जागा।
सिर्फ इसलिए की दीपावली की आतिशबाजी भगवान राम के घर लौटने से जुड़ी हुई है इसलिए आपने दीपावली की आतिशबाजी को खलनायक करार दिया. शब्बेबरात और क्रिसमस या न्यू ईयर की आतिशबाजी जायज़ और दीपावली की आतिशबाजी नाजायज. बेचारे पटाखों को प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार ठहरा दिया गया. चुनाव जीतने और जेल से छूटने पर नेताजी के सम्मान में आतिशबाजी जलेगी और दीपावली पर वर्जना का भाषण पेला जायगा. ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित स्कूल बचपन से ही पर्यावरण संरक्षण के नाम पर “से नो टू क्रेकर्स “और जल संरक्षण के नाम पर “से नो टू कलर्स “ का पाठ पढ़ाने लग जाती हैं ताकि आने वाली नस्लों में होली दीपावली के संस्कार ही न पड़ें.
मेरा लिखा यह पढ़कर कई लोगों को एक तर्क और सूझेगा. अगर कोई गलत कर रहा है तो आप क्यों कर रहे. इस पर्यावरण चिंता को सांप्रदायिक रंग क्यों दे रहे. इन्हीं तर्कों के तहत मैंने पड़ताल की कि आतिशबाजी से प्रदूषण का नाता और विस्तार क्या है.आतिशबाजी का इतिहास भी देखना चाहिए और उसके प्रमाण के आलोक में ही अंतिम धारणा बनाई जानी चाहिए. सबसे पहली बात तो यह है कि पर्व परंपराओं के मामले में अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक समाज के आधार पर निषेध का दोगलापन एकदम गलत है. ये भी समझना चाहिए कि कहीं ऐसा तो नहीं कि विरोध के पीछे किसी सांस्कृतिक परंपरा को कमजोर और खत्म करने की साजिश है और जामा पर्यावरण का पहनाया जा रहा ताकि धर्म विशेष के प्रति आपकी कुंठा और नफरत साबित न हो सके.
पटाखे और रौशनी हमारी परंपरा में है. बाल्मिकी और तुलसी दोनों मानते हैं की लंका जीत जब भगवान राम अयोध्या लौटे तो अयोध्या रोशनी और आतिशबाजी से नहाई थी. स्कंद पुराण में भी “उल्का” (जलती मशालें) का वर्णन मिलता है, जो दीपावली के दौरान प्रकाश और ध्वनि उत्पन्न करने का माध्यम थी. इस उल्लेख को एक प्रकार की प्राचीन आतिशबाजी के रूप में देखा जा सकता है,जो बिना बारूद के शोर और रोशनी उत्पन्न करती थी.
ओडिशा में दीपावली के समय “कौनरी काठी” नामक जलती हुई डंडियों का प्रयोग होता है. इन बाँस की डंडियों को जलाकर उससे उत्पन्न ध्वनि और रोशनी का उपयोग बुरी शक्तियों को दूर करने और सकारात्मक ऊर्जा का स्वागत करने के लिए किया जाता है. यह परंपरा प्राचीन काल में हर्षोल्लास, शोर और रोशनी के साथ त्यौहार मनाने का एक प्राकृतिक तरीका है और इसे भी स्कंद पुराण में वर्णित उल्का के समान माना जाता है.
नारद पुराण में भी अंधकार को दूर करने के लिए मशाल, आवाज़ पैदा करने वाले तत्वों, और अग्नि के प्रयोग का उल्लेख है, जिसे बुरी आत्माओं को भगाने और सकारात्मक ऊर्जा का स्वागत करने का प्रतीक माना गया था. कौटिल्य अर्थशास्त्र में भी नमक का प्रयोग करके धुएं और तेज आवाज़ उत्पन्न करने की विधियाँ दी गई हैं, हालांकि ये युद्ध और सुरक्षा के संदर्भ में अधिक था, लेकिन इसे भी एक प्रकार से आतिशबाज़ी के प्रारंभिक रूप के तौर पर देखा जा सकता है.
“बोगर सत्तकंडम” नामक एक तमिल ग्रंथ में, बाँस और अन्य सामग्रियों से पटाखों के रूप में ध्वनि उत्पन्न करने की प्रक्रिया का वर्णन मिलता है. इसलिए दक्षिण भारत में, और विशेष रूप से तमिलनाडु में, बाँस की डंडियों और सूखी लकड़ी के टुकड़ों को जलाकर उत्सव मनाने की प्रथा रही है. बोगर सत्तकंडम को सिद्ध संत बोगर द्वारा रचित माना जाता है. बोगर एक प्रसिद्ध सिद्ध योगी और रसायनशास्त्री थे, और उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की है जो योग, आयुर्वेद, और रसायन विद्या पर आधारित हैं.
आधुनिक बारूदी पटाखों का भारत में औपचारिक प्रयोग मुगल काल से हुआ. उस दौर में मुगलों और राजपूतों के विशेष उत्सवों और शाही आयोजनों में आतिशबाजी का व्यापक उपयोग शुरू हुआ. 16वीं शताब्दी में गुजरात में एक विवाह समारोह में आतिशबाजी का उल्लेख मिलता है. इस समय तक, आतिशबाजी का एक विकसित रूप अस्तित्व में आ चुका था, जिसे शाही उत्सवों का अभिन्न हिस्सा माना जाने लगा. मुगल काल में विवाह, युद्ध विजय और धार्मिक उत्सवों में आतिशबाजी का प्रचलन बढ़ा, और धीरे-धीरे यह समाज के अन्य वर्गों में भी फैल गया और दीपावली सहित प्रमुख त्योहारों में शामिल हो गया.इससे परंपरा का विस्तार समझ में आ गया होगा।
सवाल बड़ा और खड़ा है कि क्या दीपावली पर पटाखे नहीं जलाने से प्रदूषण खत्म हो जाएगा? बहुत खोज बीन करने पर पता चला कि दीपावली जबरन बदनाम है जबकि प्रदूषण दूसरी गलतियों का परिणाम है. मैं कोई हवा में यह बात नहीं कह रहा हूँ. दीपावली पर तो एक रोज़ ही पटाखे जलते है. दिल्ली का एक्यूआई लेवल महीनों तक असामान्य रहता है. दीपावली के पहले से ही ये अपनी हदें तोड़ता है. ऐसी कई रिपोर्ट भी हैं जिनके मुताबिक़ हवा सिर्फ पटाखे से नहीं बल्कि खेतों में पराली जलाने, वाहन, औद्योगिक प्रदूषण और निर्माण कार्य जैसे कारणों से खराब होती है. उदाहरण दिल्ली का है लेकिन समस्या पूरे देश की है.
आई आई टी कानपुर की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दिल्ली में प्रदूषण की सबसे बड़ी ज़िम्मेदार पराली और सड़क की धूल है जिससे सबसे ज़्यादा 38% प्रदूषण होता है. इसके बाद 20% प्रदूषण की ज़िम्मेदारी गाड़ियों के धुएं की है. फैक्ट्री से निकलने वाले धुएँ का हिस्सा 11% है. निर्माण कार्यों के कारण लगभग 10 प्रतिशत वायु प्रदूषण होता है. कचरा जलाने से 9 प्रतिशत और घरेलू ईंधन जलने से 8 प्रतिशत वायु प्रदूषण होता है. बाकी स्रोत 4 प्रतिशत का योगदान करते हैं. इनमें पटाखे सहित अन्य कारण शामिल हैं. यानी प्रदूषण में पटाखों की हिस्सेदारी डेढ़ से दो प्रतिशत है. इस स्टडी में बताया गया था कि भारत में हर साल कई लाखों टन पराली जलाई जाती है और ये भी वायु प्रदूषण बढ़ने की बड़ी वजह बनती है.
मई 2023 में आईआईटी दिल्ली की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दीपावली के बाद प्रदूषण का स्तर थोडा बढ़ जाता है. लेकिन इस रिपोर्ट में ये भी दावा किया गया है कि सिर्फ 12 घंटे में पटाखों वाले प्रदूषण का स्तर कम भी हो जाता है जबकि पराली का प्रदूषण, उसका धुआं कई हफ्तों तक दिल्ली की हवा में बना रहता है और दिल्ली-एनसीआर के करोड़ों लोग गैस चैंबर बन चुके शहर में रहने को मजबूर हो जाते हैं.
बरेलवी संप्रदाय के जनाब तौकिर रजा खान ने दीपावली के पटाखे पर एतराज करते पटाखों पर पाबंदी की मांग की.ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है।जनाब तौकिर रजा साहब भारत में इस्लाम की जिस गद्दी से जुड़े हैं उसकी बड़ी इज्जत है. हम भी उसका एहतराम करते हैं. बरेलवी संप्रदाय वो संप्रदाय हैं जिनके और हमारे पुरखे एक थे. यह संप्रदाय अरब के वहाबी पंथ के खिलाफ रहा हैं. बरेलवी कब्रों और मज़ारों को मानने वाले मुसलमान हैं. जबकि अरब से नियंत्रित वहाबी कब्रों और मज़ारों की पूजा नहीं करते. हममें और बरेलवियों में बस इतना फर्क है.कि हम खड़ी मूर्ति की पूजा करते हैं और वो पड़ी मूर्ति की. हम दीपावली में आतिशबाजी करते हैं. और आप शब्बेबारात यानी ईद-मिलादुल-नबी में आतिशबाजी करते हैं.
तौकिर रजा साहब शायद दुनिया की हालात से मुतासिर होगें. दुनिया में इस वक्त सवा सौ से ज़्यादा जगह पर ख़ूनी जंग जारी हैं. साठ से ज़्यादा मुल्क एक दूसरे से जंग लड़ रहे हैं. हज़ारों टन बारूद रोज जल रहा है. कभी आपने उसकी चिंता की? कभी उनसे कहा की ऐसी बारूदी जंगों से आबोहवा खराब होगी. इनके आगे दीपावली से पटाखे की क्या बिसात. international Committee of the Red Cross (ICRC) की गणना के मुताबिक़ , दुनियाभर में 120 से अधिक सशस्त्र संघर्ष चल रहे हैं, जिनमें 60 से अधिक देश और 120 गैर-राज्य सशस्त्र समूह शामिल हैं.यहॉं एक दूसरे पर बारूद का बारिश हो रही है।
संख्या के हिसाब दुनिया में 45 से अधिक सशस्त्र संघर्ष हो रहे हैं. उनमें साइप्रस, मिस्र, इराक, इज़राइल, लीबिया, मोरक्को, फिलिस्तीन, सीरिया, तुर्की, यमन, अफ़ग़ानिस्तान,बांग्लादेश और पश्चिमी सहारा हैं. रूस में क्रीमिया(यूक्रेन), ट्रांसनिस्ट्रिया (मोल्दोवा) जूझ रहे हैं तो दक्षिण ओसेशिया और अब्खाज़िया (जॉर्जिया) पर कब्जा कर रहा है,जबकि आर्मेनियाना कराबाख (अज़रबैजान) के कुछ हिस्सों पर कब्जा कर रहा है. यहां भी हज़ारों टन बारूद रोज इस्तेमाल हो रहे हैं. गाजा में तो मानवता रोज शर्मसार हो रही है. इजरायल Vs हमास, इजरायल Vs हिज्बुल्लाह, इसराइल-ईरान संघर्ष ने समूची दुनिया तो हिला दिया हैं. तौकिर रजा ज़रूर जानते होंगे वहॉं कौन लड़ रहा है. इस साल मार्च में, सीरिया युद्ध अपने चौदहवें वर्ष में प्रवेश कर गया. चौदह साल पहले सीरिया के राष्ट्रपति के खिलाफ़ एक शांतिपूर्ण विद्रोह बड़े पैमाने पर गृहयुद्ध में बदल गया. इस संघर्ष में पाँच लाख लोग अबतक मारे गए,शहर तबाह हो गए और कुछ मुल्क भी इसमें शामिल हो गए.
सूडान गृहयुद्ध की आग में जल रहा है. अप्रैल 2023 में शांति वार्ताएं विफल होने के बाद सूडान की राजधानी खार्तूम औरदारफुर के इलाकों में भीषण लड़ाई शुरू हो गई. सूडान की सेना और रैपिड सपोर्ट फोर्सेज (RSF) के बीच यह टकराव अब तक लाखों लोगों को बेघर कर चुका है और हजारों लोगों की जान ले चुका है.क्या कितना बारूद जल रहा है। इसके पर्यावरण का क्या होगा ?
हैती पारंपरिक युद्ध की बजाय गिरोह की हिंसा से तबाह हो रहा है. साल2021 में राष्ट्रपति की हत्या के बाद देश में अराजकता फैल गई और विभिन्न गिरोहों ने राजधानी समेत बड़े इलाकों पर कब्जा कर लिया. यहां सरकार लगभग निष्क्रिय हो चुकी है और कानून-व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं रही. हैती में आम जनता को गिरोहों की हिंसा का सामना करना पड़ रहा है. देश में अराजकता और हिंसा की कोई अंत नहीं दिख रहा. इस समय हैती में सुरक्षा व्यवस्था इतनी बदहाल है कि लोग पलायन करने को मजबूर हैं. बांग्लादेश में सांप्रदायिक हिंसा में कौन किससे लड़ रहा हैं आपको मालूम ही होगा.
संयुक्त राष्ट्र के पिछले दिनों एक आकलन में पाया गया कि सौ से अधिक ट्रकों के बेड़े को गाजा से लगभग 40 मिलियन टन मलबा हटाने में 15 वर्ष लगेंगे तथा इस अभियान पर 500 मिलियन डॉलर से 600 मिलियन डॉलर तक का खर्च आएगा. गाजा में 137,297 इमारतें क्षतिग्रस्त हुई हैं, जो कुल इमारतों की आधी से भी ज़्यादा संख्या है.वहॉं हर 10वीं इमारत बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुई है और एक तिहाई इमारत मामूली रूप से क्षतिग्रस्त हुई है.
एक वरिष्ठ अमेरिकी रक्षा एजंसी का अनुमान है कि रूस हररोज बीस हज़ार तोपें दाग रहा है, जब कि यूक्रेन प्रतिदिन चार से सात हज़ार राउंड फायर कर रहा है. बड़े हमलों के दौरान रोजाना 200-240 टन high explosives गिराए गए थे. यूक्रेन में, विनाश से वहॉं छ: लाख टन से अधिक मलबा पहले ही जमा हो चुका है
भारत और चीन में आतिशबाज़ी का इतिहास हज़ारों साल पुराना है इसकी कहानी दिलचस्प है।खासतौर पर बाँस को जलाकर पटाखों जैसा प्रभाव उत्पन्न करने की परंपरा चीन और भारत दोनों देशों में रही है।प्राचीन चीनी समाज में लगभग 2000 साल पहले हान राजवंश (206 ईसा पूर्व – 220 ई) के दौरान, लोग बाँस की गाँठों को जलाकर धमाके की आवाज़ से बुरी आत्माओं को भगाने का प्रयास करते थे। यह “बाओझू” के नाम से जाना गया, जिसका अर्थ होता है फटता हुआ बांस। बाँस के भीतर बंद हवा, गर्म होने पर तेज़ आवाज़ के साथ विस्फोट करती थी
लगभग 9वीं शताब्दी में, तांग राजवंश (618-907 ईस्वी) के दौरान, चीनी रसायनशास्त्रियों ने बारूद की खोज की। यह मिश्रण, जो पोटैशियम नाइट्रेट, सल्फर, और चारकोल से बना था, एक विस्फोटक पदार्थ के रूप में उभरा और इसमें अग्नि उत्पन्न करने की क्षमता थी। इस खोज से आतिशबाज़ी का नया दौर शुरू हुआ, क्योंकि रसायनिक मिश्रण को बाँस के साथ जोड़कर.. नई तरह के पटाखे बनाए जाने लगे
इसके बाद, सांग राजवंश (960-1279 ईस्वी) में आतिशबाज़ी ने विकास किया और इसका उपयोग विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक अवसरों पर किया जाने लगा। सन् 1044 में चीन की किताब में गन पाउडर का ज़िक्र मिलता है। चीनी नववर्ष और अन्य प्रमुख समारोहों में आतिशबाज़ी का प्रयोग बुरी आत्माओं को भगाने और जश्न मनाने के लिए किया जाता था। आतिशबाज़ी की ये परंपरा धीरे-धीरे दुनिया के अन्य हिस्सों में भी फैल गई, जिसमें अरब व्यापारियों और मंगोल आक्रमणकारियों की भी भूमिका रही।
यही बारूद चीन के लिए बुरा अंजाम लेकर आया जब मंगोल योद्धाओं ने चीन पर इसी बारूद से हमले कर दिए। बाद में मध्य एशिया, जापान, और पश्चिम एशिया में भी पटाखों का विकास अलग अलग पदार्थों की मदद से हुआ।
बारूद का आविष्कार भी चीन में हुआ। चीन में जो “चार महान आविष्कार हुए,यानी कम्पास, बारूद, कागज निर्माण और प्रिटिंग” बारूद उनमें से एक था।बारूद का आविष्कार तांग राजवंश (600 से 900 ई.) के अंत में हुआ था, जबकि बारूद के लिए सबसे पहले दर्ज रासायनिक सूत्र सोंग राजवंश (960 से 1279 ई.) का है।
चीन में बारूद के अविष्कार के पीछे एक कहानी है।ऐसा कहा जाता है कि तांग राजवंश के दौरान चीन में बारूद का अविष्कार एक दुर्घटना के चलते हुआ था।एक चीनी रसोइए ने खाना बनाते समय गलती से साल्टपीटर (पोटेशियम नाईट्रेट) आग पर डाल दिया।इससे उठने वाली लपटें रंगीन हो गईं।इन रंगीन लपटों को देखकर लोगों की उत्सुकता बढ़ी।फिर रसोइए ने साल्टपीटर के साथ कोयले और सल्फर का मिश्रण इसमें डाल दिया, जिससे रंगीन लपटों के साथ ही काफी तेजी आवाज भी हुई।बस यहीं से बारूद की खोज हो गई।बाद में,बांस के डंठलों की जगह कागज़ की नलियों ने ले ली, और टिशू पेपर से बने फ़्यूज़ जोड़े गए।10वीं शताब्दी तक, चीनी दुश्मनों पर चलाए जाने वाले तीरों में आतिशबाजी जोड़ रहे थे।अगले दो सौ वर्षों के भीतर, बिना तीर का उपयोग किए दुश्मनों पर दागे जा सकने वाले रॉकेट विकसित हुए।
बारूद के अविष्कार को लेकर एक दावा यह भी है कि, हजार साल पहले एक संन्यासी ली तियान ने इसकी खोज की थी। वह चीन के हुनान प्रांत के लियुयांग शहर का रहने वाला था।यह क्षेत्र आज भी आतिशबाजी के उत्पादन में दुनियाभर में सबसे आगे माना जाता है। सोंग वंश के दौरान ली तियांग की पूजा के लिए एक मंदिर का निर्माण करवाया गया था। चीन के लोग आज भी हर साल 18 अप्रैल कोआतिशबाजी के अविष्कार का जश्न मनाते हैं और ली तियांग को याद करते हैं।चीन में ऐसी मान्यता है कि आतिशबाजी, पटाखों से बुरी आत्माएं भागती हैं। इसलिए जन्मदिन, विवाह, नववर्ष जैसे खुशी के मौकों पर आतिशबाजी की परंपरा वहां से शुरू हुई और फिर दुनियाभर में फैलती गई। बारूद का ज्ञान पूरे एशिया और यूरोप में तेजी से फैला, संभवतः 13वीं शताब्दी के दौरान मंगोल आक्रमण के बाद। 13वीं शताब्दी के आसपास बारूद यूरोप पहुंचा।तोपों और बंदूकों जैसे शक्तिशाली हथियारों का विकास हुआ, लेकिन जश्न के दौरान साधारण आतिशबाजी लोकप्रिय हो गई और यूरोपियों में पहुंच गई।
1295 में मार्को पोलो पूर्वी यूरोप से यूरोप में आतिशबाजी लेकर आए।1400 से 1500पुनर्जागरण काल ने कला,साहित्य और आतिशबाजी में अभूतपूर्व प्रगति की।इटालियन लोग पटाखे छोड़ते हैं और पटाखे बनाने के लिए खुली नलियों में धीरे-धीरे पाउडर धातु और लकड़ी का कोयला जलाते हैं।यह नियंत्रित आग राज्याभिषेक के समय अनिवार्य हो जाती है।आम लोग इस मौज-मस्ती से वंचित रह जाते हैं।
1635 में जॉन बेट की पुस्तक श्रृंखला “द मिस्ट्रीज़ ऑफ़ नेचर एंड आर्ट”प्रकाशित हुई यह चार खण्डो में थी. इसके दूसरे भाग में, उन्होंने बताया कि कैसे उड़ते हुए ड्रेगन और अन्य ज्वलंत तमाशे बनाए जा सकते हैं। इस किताब से प्रेरणा लेने वालों में युवा सर आइज़ैक न्यूटन भी शामिल हैं। 1730 तक इंग्लैंड में, आतिशबाजी के शो आनंद का सार्वजनिक तमाशा बन गए। उपनिवेशवासी उन्हें अमेरिका ले आए,जहाँ उन्होंने 1777 के स्वतंत्रता दिवस पर उन्हें जलाया और सोचा, हमें अगले साल फिर से ऐसा करना चाहिए।सौ साल बाद 1830 में इतालवी आतिशबाज़ी बनाने वाले लोग क्लोरीनयुक्त पाउडर और धातु लवण (स्ट्रोंटियम = लाल, बेरियम = हरा, तांबा = नीला, सोडियम = पीला) के साथ आतिशबाज़ी में रंग मिलाते हैं। ऑक्सीडाइज़र के रूप में पोटेशियम क्लोरेट का उपयोग करने से रंग अधिक चमकीला हो जाता है। 1830 में पहली बार इटली में अलग तरह की धातुओं को मिलाकर रंग बिरंगी आतिशबाजी बनाई गई। हालांकि पायरोटेक्निक की शुरूआत 13वीं सदी में हो चुकी थी। इसकी शिक्षा के लिए पूरे यूरोप में ट्रेनिंग स्कूल खोले गए।
इन दिनों दुनियाभर में पटाखों की कई आधुनिक किस्में मौजूद हैं।इनका उपयोग फायर शो और जश्न के लिए किया जाता है।तेज आवाज से लेकर बेहतरीन आकार में रंग बिखेरने वाले इलेक्ट्रॉनिक पटाखे अब बाजार में आ चुके हैं। भारत में पटाखों पर बैन, पटाखा उद्योग पर गंभीर आर्थिक प्रभाव डालता है।तमिलनाडु के शिवकाशी में केंद्रित यह उद्योग देश में लगभग 90% से अधिक पटाखों का उत्पादन करता है और लाखों लोगों को रोज़गार देता है।पटाखा उद्योग में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से काम करने वाले लाखों लोग, जैसे निर्माता, परिवहन श्रमिक, और छोटे विक्रेता, सभी इस उद्योग पर निर्भर हैं ।
पटाखों पर प्रतिबंध से इस उद्योग को अरबों रुपये का नुकसान होता है।उदाहरण के लिए, शिवकाशी का पटाखा उद्योग अकेले लगभग 5,000 करोड़ रुपये का है। बैन के कारण, उद्योग में उत्पादित पटाखों की मात्रा घट जाती है, जिससे उद्योग में बड़े आर्थिक नुकसान और बेरोजगारी पैदा होती है।इससे इस उद्योग से जुड़े 3-5 लाख लोगों की आजीविका भी खतरे में पड़ती है।
आतिशबाजी का दुनियाभर में बाजार बहुत बड़ा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक आतिशबाजी बाजार का आकार 2024 में 2.69 बिलियन अमरीकी डॉलर था और 2032 तक 3.65 बिलियन अमरीकी डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है। The Observatory of Economic Complexity (OEC) की पटाखा इंडस्ट्री से जुड़ी रिपोर्ट के मुताबिक पटाखों का सबसे बड़ा निर्यातक चीन ($912M) और सबसे बड़ा आयातक अमेरिका ($615M) है। यानी चीन सबसे ज्यादा पटाखे बेचता और अमेरिका सबसे ज्यादा खरीदता है।
भारतीय उपमहाद्वीप में बारूद मुगल ले आए।मुगलों के आने के बाद कई सारी नई चीज़ें हिंदुस्तान की धरती पर आईं. उन्हीं में एक सबसे अहम चीज़ थी- बारुद. 1526 ई. बाबर की सेना ने जब दिल्ली सल्तनत के सुल्तान इब्राहिम लोदी की सत्ता पर आक्रमण किया तब उसके साथ यही बारुदी शक्ति थी. बारूद और तोप की बदौलत बाबर की सेना ने दिल्ली सल्तनत इब्राहिम लोदी को परास्त कर दिया. और इसी के साथ हिंदुस्तानी मैदान में युद्ध लड़ने के तरीके में नई क्रांति आयी.शाहजहां के बेटे दारा शिकोह के बेटे की शादी से जुड़ी 1633 की एक पेंटिंग में भी आतिशबाजी देखने को मिलती है.
17वीं सदी में भारत आए यात्री फ्रैंकोसिस बर्नियर ने लिखा है कि उस समय पटाखों का इस्तेमाल हाथी जैसे बड़े जानवरों की ट्रेनिंग में भी किया जाता था. वो बताते हैं कि लड़ते हुए बड़े जानवरों को पटाखों की आवाज से ही अलग किया जाता था. दरअसल, वो जानवर धमाके की आवाज से डर जाते थे और पीछे हट जाते थे. यही कारण रहा होगा कि बारूद से तैयार बम के गोलों का जब युद्ध में इस्तेमाल शुरू हुआ तो हाथियों का इस्तेमाल कम हो गया, क्योंकि हाथी डर कर भागते थे.
मध्यकालीन भारत के इतिहास पर सिध्दहस्त इतिहासकार सतीश चंद्रा लिखते हैं कि 17वीं शताब्दी में बीजापुर के शासक रहे आदिल शाह के विवाह में भी 80 हजार रुपए आतिशबाजी पर खर्च किए गए। अंग्रेजों के शासन के दौरान उत्सवों में आतिशबाजी करना भारत में काफी लोकप्रिय हुआ।19वीं शताब्दी में पटाखों की मांग बढ़ने का ही नतीजा था कि कई फैक्ट्रीज स्थापित हुईं। भारत में पटाखों की पहली फैक्ट्री 19वीं शताब्दी में कोलकाता में स्थापित हुई। बाद में यह तमिलनाडु के शिवकाशी चली गई।और देश में पटाखों का यही केन्द्र बना।
असम के गानाकच्ची गांव में 130 सालों से ऐसे पटाखे बनाए जा रहे हैं, जो सामान्य पटाखों की तुलना में कम धुआं छोड़ते हैं। ‘‘बाजार में जो पटाखे बिकते हैं, उनमें बेरियम नाइट्रेट और एल्युमीनियम पाउडर का ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है, जिस कारण इनसे ज्यादा धुआं निकलता है और यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने इन पर बैन लगाने की बात कही है।वहीं हमारे यहां 130 साल पुराने चीनी तरीके से जो पटाखे बनते हैं, उनमें ज्यादा केमिकल का इस्तेमाल नहीं किया जाता। इसी वजह से पारंपरिक पटाखों की तुलना में कम धुआं निकलता है।’’
शिवकाशी में दो भाईयो ने एक पटाखा फैक्ट्री शुरू की ।आज यह देश का सबसे बड़ा बाजार है दासगुप्ता नाम के एक व्यक्ति ने 1892 से कोलकाता में एक दियासलाई का कारख़ाना खोला। भुखमरी और सूखे की समस्या से जूझ रहे शिवकाशी के दो भाई शणमुगा और पी नायर नाडर दासगुप्ता की फैक्ट्री में नौकरी के लिए पहुंचे।माचिस फैक्ट्री के कामकाज को समझने और सीखने के बाद इन्होंने शिवकाशी में अपनी खुद का उद्योग शुरू किया। शिवकाशी का शुष्क मौसम इनके लिए फायदेमंद साबित हुआ। इस तरह शिवकाशी में पहली पटाखा फैक्ट्री शुरू हुई।आज यह सबसे बड़ा बाजार है।
वैसे भारत में 8वीं शताब्दी में बारूद होने के प्रमाण मिलता है।इतिहासकारों का मानना है कि, भारत में बारूद का ज्ञान 8वीं शताब्दी से मौजूद है।8वीं शताब्दी में संकलित संस्कृत भाषा के गृंथ वैशम्पायन के नीति प्रकाशिका में एक समान पदार्थ का उल्लेख मिलता है।जिससे रंगीन रौशनी निकलती थी।
अग्नि पुराण के अनुसार ,विजय उन सेनाओं को मिलती थी जहाँ पैदल सैनिक यानी पैदल सेना संख्याबल में मजबूत होती है।शुक्रनीति में उल्लेख है कि पैदल सैनिकों के पास युद्ध के दौरान आग्नेयास्त्र होते हैं
इतिहासकार कौशिक रॉय का यह मानना है कि प्राचीन भारत साल्टपीटर को अग्निचूर्ण या आग पैदा करने वाले पाउडर के रूप में जानता था। 13वीं शताब्दी में चीन में मिंग राजवंश की सैन्य गतिविधियों ने दक्षिण पूर्व एशिया, पूर्वी भारत और अरब दुनिया से बारूद का परिचय करवाया। शुरुआत में बारूद का उपयोग सैन्य गतिविधियों में ही किया गया। आतिशबाजी के तौर पर भी इसका इस्तेमाल करना चीन ने ही दुनिया को सिखाया।
पटाखों तो जान का ख़तरा बता सरकार ने ग्रीन पटाखों तो बाजार दिया। ग्रीन पटाखे सामान्य पटाखों की तुलना में पर्यावरण को कम प्रदूषित करते हैं.इन पटाखों में लिथियम, आर्सेनिक, बेरियम, सल्फर जैसी भारी धातुएं नहीं उपयोग की जाती हैं. सामान्य पटाखे 160 डेसिबल शोर करते हैं जबकि ग्रीन पटाखे 110 डेसिबल शोर करते हैं.
अतिशबाज़ी तो चलती रहेगी, क्योंकि ये हिंदू परंपरा का हिस्सा है. चीन में मान्यता थी की पटाखों के शोर से डर कर बुरी आत्माएं, विचार, दुर्भाग्य भागेगा और सौभाग्य प्रबल होगा. यह विचार शायद भारत में आतिश दीपांकर नाम के बंगाली बौद्ध धर्मगुरू ने 12वीं सदी में प्रचलित किया. वे शायद इसे चीन, तिब्बत और पूर्व एशिया से सीख कर आए. अन्यथा भारत के ऋग्वेद में तो दुर्भाग्य लाने वाली निरृति को देवी माना गया है और दिकपाल (दिशाओं के 9 स्वामियों में से एक) का दर्जा दिया गया है. उससे यह प्रार्थना की जाती है कि हे देवी, अब जाओ. पलट कर मत आना. यह कहीं नहीं कहा गया कि उसे पटाख़ों की आवाज़ से डरा धमका कर भगाया जाए.
इतना ज़रूर है कि भारत प्राचीन काल से ही विशेष रोशनी और आवाज़ के साथ फटने वाले यंत्रों से परिचित था. बंगाल के कई इलाक़ों में बारिश के मौसम में बाद सूखती हुई ज़मीन पर ही लवण की एक परत बन जाती थी. इस लवण को बारीक पीस लेने पर तेज़ी से जलने वाला चूर्ण बन जाता था. यदि इसमें गंधक और कोयले के बुरादे की उचित मात्रा मिला दी जाए तो इसकी ज्वलनशीलता भी बढ़ जाती थी.
जहां ज़मीन पर यह लवण नहीं मिलता था वहां इसे उचित क़िस्म की लकड़ी की राख की धोवन से बनाया जाता था. वैद्य भी इस लवण का इस्तेमाल अनेक बीमारियों के लिए करते थे.लगभग सारे देश में ही यह चूर्ण और इससे बनने वाला बारूद मिल जाता था.इसका इस्तेमाल ख़ुशियाँ मनाने के लिए, उल्लास जताने के लिए घर द्वार पर रौशनी ज़रूर की जाती थी.पर विस्फोट नहीं होता था।उस तरह के बारूद का ज़िक्र तो शायद पहली बार 1270 में सीरिया के रसायनशास्त्री हसन अल रम्माह ने अपनी किताब में किया जहां उन्होंने बारूद को गरम पानी से शुद्ध कर के ज़्यादा विस्फोटक बनाने की बात कही.
जहाँ दुनिया भर में उल्लास के प्रतीक रूप में आतिशबाज़ी को लिया जाता है ऐसे में भगवान राम के अयोध्या पहुँचने की ख़ुशी पर हर्ष उल्लास को ख़त्म करके नीरव माहौल बनाने की कोशिश वह भी पर्यावरण के नाम पर मूढ़ मति होने का परिचायक है।पटाखा बंद होने के नाम पर फ़तवा देने वाले लोगों से पूछा जाना चाहिए कि अपनी ज़िंदगी में कितने पेड़ लगाए हैं।
जब जब आकाश में आतिशबाजी देखता हूँ। मेरे भीतर का बच्चा खिलखिला उठता है।जमकर आतिशबाजी से अपनी दीवाली तो मन गयी।अपने उत्सव की परंपरा यही है।
यह बहस तो चलती रहेगी लेकिन फ़िलहाल –
मत पूछ कि क्या हाल है तेरा मेरे पीछे
तू देख के क्या रंग है तेरा मेरे आगे।
साभार: हेमंत शर्मा जी के फेसबुक वॉल से।