आप सवाल कर सकते हैं कि इस मूर्ख को टीवी स्क्रीन पर मैं झेलता कैसे हूं? सवाल वाजिब है! लेकिन नौटंकी का स्तर इतना बेहतरीन है कि रुक जाता हूं। सोचता हूं कि एक बढिया नाट्य कलाकार गलत पेशे में क्यों है? सोचने को मजबूर हूं कि क्या कोई साथी पत्रकार चैनल के अंदर इन आउस या बाहर इसे समझाता क्यों नहीं कि अरे बैसाखनंदन तुम्हें न तो विषय वस्तु का ज्ञान न पत्रकारिता की समझ, क्यों पूरे पेशे की ऐसी तैसी कर रहे हो। यह सोचकर फिर चैनल बदल लेता हूं कि पत्रकार के भेष में ये छद्म कलाकार बस मालिक का भरोसेमंद सेवक है जो बस भ्रष्टाचार में फसे मालिक को बचाने के लिए फरेब का जाल बुन रहा है ताकि मालिक के फसने पर ‘चोर बोले जोर से’ कि कहावत को चरितार्थ कर सके।
कह सके कि अभिव्यक्ति की हमारी आजादी के खिलाफ सरकार ने उसे फंसा दिया। यह सब तो चलिए उसके फरेब का हिस्सा हो सकता है। लेकिन एक नेशनल चैनल पर झूठ,अज्ञानता, मूर्खता और चपलता के सहारे एक खबर पैदा करने वाला, फरेब से निकले उस खबर को कहीं और न उठाए जाने पर सिर्फ खुद को पत्रकार बताकर, दिल्ली के सभी संपादकों को डरपोक और भ्रष्ट साबित करे इस पर चुप्पी कैसे हो सकती है?
वामपंथी पत्रिका कारवां की एक रिपोर्ट जो पत्रकारिता की धरातल पर खबर होने के किसी पैमाने में नहीं टिकता उसे खबर बता कर एनडीटीवी का बकैत पांडे नाटकीय अंदाज में कहता है ‘दिल्ली की पूरी मीडिया डरी हुई है। डर मुझे भी है! डर जज गोपाल लोया के परिवार को भी है लेकिन क्या डर के मारे जीना छोड़ दें? बकैत पांडे भाव भंगिमा लपेटते हुए आगे कहता है सत्ता से पत्रकारों का ऐसा डर कि कोई अखबार एक खबर नहीं छापता और आप मेरा प्राइम टाइम अपने ड्राइंग रुम में सोफे के पीछे से डरते हुए देख रहे हैं। पत्रकारिता का ऐसा फरेबी और नाटकीए रुप कभी नहीं देखा। फिर बकैत चार वामपंथी बेवसाईट का नाम लेता है जो उसके फरेब में शामिल है।
दरअसल महाराष्ट्र के एक वामपंथी पत्रिका कारवां ने रिपोर्टर निरंजन टाकले के हवाले से खबर छापा कि सोहराबुद्दि मामले की सुनवाई कर रहे जिस जज गोपाल लोया की मौत जो तीन साल पहले हार्ट अटैक से हुई थी वो हत्या है ! जज लोया जिस मामले की सुनवाई कर रहे थे उस मामले में अमित शाह को सीबीआई ने अभियुक्त बनाया था। सुप्रीम कोर्ट के आदेश और निगरानी में उस मामले कि सुनवाई गुजरात के बाहर महाराष्ट्र में चल रही थी। इस मामले में अमित शाह को लोअर कोर्ट से लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने दोषमुक्त कर दिया था। तीन साल से इस मामले पर चुप्पी थी। जब गुजरात में चुनाव का मौसम आया खबर की नुमाइश शुरु हुई। अमित शाह के खिलाफ मामला तब बनाया गया था जब पिछली बार 2012 में गुजरात में विधानसभा का चुनाव होना था। ठीक पांच साल बाद वहां चुनाव का माहौल है और ये फरेबी फिर बिलबिलाने लगे सजिश की कहानी संग।
वामपंथी पत्रकारों की साजिश, फरेब और धोखे के खेल को समझिए इस वीडियो के द्वारा:
[embedyt] https://www.youtube.com/watch?v=yDqwzdc67sE[/embedyt]
कारवां के साजिश की इस कहानी के मुताबिक जज लोया कि बहन तीन साल बाद कह रही है कि उस रात उनके भाई अपने एक साथी जज की बेटी की शादी मे शामिल होने नागपुर गए थे। रात में पार्टी से लौटने के बाद देर रात को लोया को दिल का दौरा पड़ा। दो साथी जज तुरंत ऑटो से नजदीकी अस्पताल ले गए। वहां उनकी मौत हो गई। उनका आरोप है कि यह एक साजिश थी। उनका टाईम पर इलाज ढंग का नहीं हुआ। फिर लाश को ड्राइवर के साथ एंबुलैंस से घर भेज दिया गया। हार्ट अटैक को हत्या साबित करने के लिए मुर्खता का गजब प्रदर्शन किया जा रहा है।
अब बकैत इसका विशलेषण करते कहता है
1 जस्टिस लोया को ऑटो से क्यों नहीं ले जाया गया?
2 जस्टिस लोया के लिए प्रोटकॉल का इस्तेमाल क्यो नहीं हुआ?
3 उनके घर वालों को क्यो नहीं बुलाया गया?
4 गेस्ट हाउस में कई गाड़िया रही होगी उसका इस्तेमाल क्यों नही हुआ?
फरेब गढने वाला बकैत कहता है कि पुरे देश में बर्फ जम गई है। हड्डी में सिहरन हो रही है। पत्रकारिता मर गई! सभी अखबार के सम्पादक या तो डर गए या बिक गए! कमाल है! आपके फरेब और मुर्खता को न माने तो पत्रकारिता बिक गई?
मुझे लज्जा आती है कि इस मुर्ख को कोई साथी पत्रकार नही बताता कि लोअर कोर्ट के जज जस्टिस नहीं एक सरकारी अधिकारी होते हैं! बस न्यायिक अधिकारी! उसका कोई प्रोटोकॉल नहीं होता। वो कोई सुप्रीम कोर्ट का न्यायमूर्ति नहीं जिसके पास असीमित अधिकार हैं। वो इस बकैत की तरह बिना योग्यता के मालिक के साजिश के हिस्सेदार होने के लिए 20 लाख की सैलरी वाली अय्याशी की नौकरी नहीं करता कि लोकल शहर का कोई स्ट्रींगर उसके लिए होटल और एसयूवी गाड़ी की व्यवस्था के साथ अय्याशी का जुगाड़ करेगा।
दरअसल आपकी सोच जैसी होती है आप वैसे ही सोचते है। जिस व्यक्ति को जज और न्यामूर्ति में अतंर नहीं पता। प्रोटोकॉल के मायने नहीं पता वो यदि आधे घंटे स्क्रीन पर अपनी पटकथा पढते हुए पुरी पत्रकारिता को गाली दे तो ऐसे बैसाखनंदन का क्या किया जाए? ठीक है वो अपने मालिक के तलवे चाट कर नौकरी बजा रहा है। ठीक है कि ये उसकी मजबूरी या भविष्य की तैयारी है। ठीक है कि जो कई तुर्रम खां पत्रकार नहीं कर पाए वो कर ले। ठीक है कि नफरत और प्रेम की पराकाष्ठा में मोदी के नाम पर दो हिस्से में बटे पूरे देश में एक हिस्से का हीरो बनने के लिए इस तरह के फरेब भी चलेंगें। लेकिन झूठ के आधार पर आप कैसे कहेंगे कि जो मीडिया आपकी खबर को फॉलो न करे वो बेईमान और चोर है। भारत के मुख्यन्यायाधीश को वो अनैतिक और बहुमत से चुने प्रधानमंत्री को डराने वाला तानाशाह कहे सिर्फ इसलिए कि उसके मुताबिक सब कुछ नहीं हो रहा । सवाल का जवाब कहां से आयेगा? एक बैसाखनंदन जिसे पत्रकारिता का रत्ति भर ज्ञान वो सिर्फ भावभंगिमा से नफरत का माहोल पैदा कर पूरे पेशे की साख दांव पर लगाकर झूठ को सच्च साबित करे ये कैसे हो सकता है?
जिस देश में प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधा दुर्लभ हो। अस्पताल में बेड मिलना भगवान मिलने जैसा हो। जिस देश की 70 प्रतिशत डॉक्टर बिना बीमारी जाने तुक्के में ईलाज कर रहा हो! जहां सामान्य दुर्धटना में अस्पताल तक पहुंचने से पहले मौत हो जाती हो। वहां हर्ट अटैक से हुई एक मौत को साजिश साबित करने का तीन वर्षीय प्लान गजब का है। जस्टिस और प्रोटोकॉल का मतलब न जानने वाला यदि ऐसे सवाल उठाए तो उस पर दया की जाय या शर्म किया जाए!
हार्ट-अटैक की मौत को तीन साल बाद हत्या साबित करने के लिए भारत के मुख्यन्याधीश और प्रधानमंत्री तक का अपमान इसलिए कि किसी बैसाखनंदन को बेसिक नहीं पता। इस देश में जहां बेसिक हेल्थ की व्यवस्था नही। आवागमन की घोर असुविधा हो। जहां बम विष्फोट में देश के घायल रेलमंत्री को समस्तिपुर से 30 किलोमीटर पटना ले जाने में पूरे दिन लग जाता हो वहां छुट्टी पर गए एक न्यायिक अधिकारी की हार्ट-अटैक से मौत पर ये फरेब।
जिस मामले को सुप्रीम कोर्ट तक से साफ किया जा चुका हो सिर्फ उस मामले में वोट कि पत्रकारिए गिद्ध दृष्टि धिन्न आति है। दुख इस बात का नहीं कि ये फरेब कर रहे हैं, दुख इस बात का है कि ऐसे मुर्ख और अपराधिक मांसिकता वाले लोग नैतिकता और ईमानदारी के अवरण ओढे घुमते हैं।