आज एक समाचार और उससे सबंधित वीडियो की तरफ ध्यान गया तो यूं लगा जैसे धूप में बारिश हो गयी है। समाचार था कि जापान की 28 वर्षीय राजकुमारी अयाको ने, टोक्यो के मैंजी मंदिर में, विधिविधान से एक 32 वर्षीय सामान्य जन मोरियो से विवाह कर लिया है। राजकुमारी अयाको के इस विवाह को जापान के सम्राट अकिहितो का आशीर्वाद प्राप्त है।
मैं समझता हूँ आज के राजशाही युग के अवसान मे किसी राजकुमारी का गैर शाही परिवार के पुरुष से विवाह हो जाना कोई विशेष नही है लेकिन इस विवाह के साथ जो राजकुमारी ने स्वीकारा वह जरूर विशेष है। हुआ यह कि अन्य राजपरिवारों व राजतंत्रों की तरह जापान के राजपरिवार में भी कुछ विशेष परंपरायें है, जिन्हें वे निर्वाह करते है। उनके यहां परंपरा है कि यदि राजपरिवार का कोई सदस्य, राज वंश के बाहर जाकर, सामान्य जन से विवाह करता है तो उसे राजपरिवार छोड़ना पड़ता है। उसी के साथ, सरकार से मिल रहे प्रोटोकॉल व अन्य उसको मिल रही सुविधायें भी स्वतः समाप्त हो जाती है, जो उसको राजपरिवार के सदस्य के रूप में मिलती है।
इसका सीधा अर्थ यह है कि राजकुमारी अयाको ने अपने जीवन के सपने को प्राप्त करने के लिये उन सभी सुख व सुविधाओं का परित्याग किया जिसकी वह आदि थी। उसके लिये अपने प्रेम, मोरियो को जीवनसाथी बना कर पाना इतना महत्वपूर्ण था कि उसने स्वतः ही राजपरिवार से अपने निष्कासन को स्वीकार किया है। यहां यह एक विरोधाभास लग सकता है कि एक तरफ तो इस विवाह को जापान के सम्राट का आशीर्वाद प्राप्त है वही दूसरी ओर उसी सम्राट ने एक सप्ताह पूर्व उसे राजपरिवार से विदाई भी दी है।
मेरी दृष्टि में इस विवाह का पूरा घटनाक्रम जिस तरफ इशारा कर रहा है, वह राजतंत्र व राजपरिवारों की परंपराओं की परिधि से ज्यादा व्यापक है। यदि आपका स्वप्न इतना महत्वपूर्ण है कि उसके बिना पूर्ण हुये आपको अपना अस्तित्व ही अधूरा लगता है तो यह मान लीजिये की आपको अपनी सुख सुविधा के मोह का परित्याग करते हुये, जन बनना होगा। यह अक्सर देखा गया है कि आपके घर के अग्रज को आपकी भावनाओ व सपनो का संज्ञान होता है और उसका आशीर्वाद भी आपके साथ होता है लेकिन परंपराओं से बंधे उसके हाथ, यथास्थिति के वातावरण में सपनो को पूरा नही करा पाते है। उसे अन्य को रास्ते पर लाने के लिये, बिना अपनी मर्यादा को गिराये हुये, आपके आवेश की प्रतीक्षा होती है। जिसे, आपके सपनो को वास्तविकता में परिवर्तित करने के लिये अपनी ढाल बनाता है।
राम मंदिर! राम मंदिर! राम मंदिर का आवाहन सभी जगह है लेकिन नाद कहीं नही है, लोग सब अपने अपने घरों और धंधों में लगे हुये है। लोगो को राम मंदिर चाहिये लेकिन लोगो को उनकी अपनी शर्तो व वर्तमान की सुख सुविधा के साथ चाहिये। यहां सबको मालूम है कि उनके सपनो का बना रोड़ा, उनका अग्रज नही बल्कि दूसरी संवैधानिक शक्ति न्यायपालिका है लेकिन फिर भी उनके आक्रोश का लक्ष्य अग्रज होता है। अपनी जिस ऊर्जा को अपने अग्रज को कोसने में वे क्षय करते है उसी ऊर्जा को न्यायाधीशों के विरुद्ध संचित करने असहाय हो जाते है। जो अपना है, उसका तो घर मुहल्ले से लेकर ईवीएम मशीन तक सर उठा कर मानमर्दन, करने में लोगों को अभिमान का बोध होता है लेकिन दूसरा, जो उनके अस्तित्व को ही जूते तले मसलते जा रहा है उसके सामने सर उठाने में, उन्हें शौर्य विहीनता का बोध होने लगता है।
आज हिन्दुओ को अपने सपने चाहिये। आज जब उनकी राम मंदिर के लिये तृष्णा, उनके लिये अविजित होती जा रही है तो उन्हें घर से निकल कर जन बनना होगा क्योंकि यही जनशक्ति जहां, न्यायाधीशों को हिन्दुओ के प्रकोप का परिचय पत्र होगा, वहीं लोकतंत्र की व्यवस्थाओं और परंपराओं से बन्धे हाथों को बंधनो से मुक्त करने का अस्त्र भी होगा।
आज के भारत का कटु सत्य यही हो गया है जब तक हिन्दू जन, अपनी भावनाओं के आक्रोश की ज्वाला से न्यायाधीशों की लंका को तपायेंगे नही, तब तक, भारत का लोकतंत्र जनमानस की भावना के प्रगटीकरण को स्वीकार्य नही करेगा।
राजपथ की ओर जाते मार्गो पर जन आक्रोश का सार्वजनीकरण ही वही प्रगटीकरण है जिसमे आपके सपनो को मूर्तरूप देने की कुंजी छुपी है। यह वह कुंजी है जो न्यायाधीशों, न्यायालयों और सदनों को नेपथ्य में करते हुये, राम मंदिर के द्वार खोलेगी और भरी दोपहर बारिश करवा देगी।
वैसे तुलसीदास जी पहले ही कह गये है,
बिनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीत।
बोले राम सकोप तब, भय बिन होय न प्रीत।।