भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को स्वछंदता समझ लिया गया है। ये स्वछंदता हिन्दी फिल्मों द्वारा बेझिझक अपनाई जाती है। कल प्रदर्शित हुई ‘आर्टिकल 15’ इसी तरह की बेलगाम अभिव्यक्ति है। फिल्म में ऐसे वीभत्स दृश्य डाले गए हैं जो सोचने पर विवश करते हैं कि ‘बेस्ड ऑन रियल स्टोरी’ के नाम पर आर्टिकल-15 दिखाया गया काल्पनिक भारत आखिर है कहाँ।उत्तरप्रदेश में घटी एक सच्ची घटना को अपनी सहूलियत से तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है। सामान्य और दलित वर्ग के बीच एक काल्पनिक खाई दिखाने का प्रयास किया गया है। संवैधानिक संस्थाओं पर फ़िल्में गाहे-बगाहे आक्रमण करती ही रहती हैं। फिल्म में सीबीआई जैसी संस्था को विलेन दिखा कर फिल्म उद्योग के लिए नए विषय का संचार कर दिया गया है। हैरानी हो रही है कि फिल्म सेंसर बोर्ड से बचकर कैसे निकल गई। इस फिल्म में इतने आपत्तिजनक दृश्य हैं कि सेंसर बोर्ड को इसे बैन कर देना चाहिए था।
उत्तरप्रदेश के एक गांव लालपुर में दिहाड़ी मजदूरी करने वाली तीन लड़कियों का अपहरण कर गैंगरेप किया जाता है और उनमे से दो को मारकर पेड़ से लटका दिया जाता है। अयान रंजन इस गांव में एसपी बनकर आता है। थाने के अन्य पुलिस अधिकारी इस मामले को दबाने का प्रयास कर रहे हैं क्योंकि आरोपी एक बड़े नेता से जुड़ा हुआ है। अयान किसी भी कीमत पर मामले की तह तक पहुंचना चाहता है। निर्देशक अनुभव सिन्हा ने फिल्म को प्रचारित करने के लोभ में काफी फेरबदल कर डाला। सच्ची घटना में ब्राम्हण-दलित का कोई एंगल ही नहीं था। बॉक्स ऑफिस पर सफलता पाने के लिए समाज के एक तबके पर ऊँगली उठा देना बहुत आसान हो गया है। इस काम में सेंसर बोर्ड और अदालत फिल्म निर्देशकों के पक्ष में ही आकर खड़े हो जाते हैं।
सच्ची कहानियों को लेकर उनमे फ़ेरबदल कर पेश करना निर्देशक अनुभव सिन्हा की विशेषता है। उनकी पिछली फिल्म ‘मुल्क’ भी सच्ची घटना कहकर प्रचारित की गई थी लेकिन उन्होंने कहानी में काल्पनिक तथ्य डालकर बॉक्स ऑफिस भुनाने की कोशिश की। आर्टिकल 15 में अनुभव ने ब्राम्हण वर्ग, उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री, सीबीआई पर निशाना साधा है। मैले से भरे मेनहोल में डुबकी लगाकर कचरा निकालने का दृश्य बहुत भयावह है। ऐसा भारत के कौनसे शहर या गांव में होता है, किसी को मालूम है। फिल्म के एक दृश्य में दलितों का नेता निषाद कहता है कि ‘मैंने सही राह चलने की कोशिश की। स्कुल में बच्चों के लिए खाना बनाने का काम शुरू किया लेकिन बच्चों ने मेरे हाथ का खाने से इंकार कर दिया।’ बताइये भला फिल्म निर्देशक तो सीधा बच्चों की मासूमियत पर प्रहार कर रहा है। स्कुल में तो साथ पढ़ रहे बच्चे कभी किसी की जाति नहीं पूछते। क्या किसी को मालूम है कभी स्कूली बच्चों ने ऐसा किया हो।
एक दृश्य में अयान रंजन कहता है ‘मुझे अपने देश पर शर्म आती है’। जब ऐसी फ़िल्में विदेश में रिलीज होती है तो सोचिये अप्रवासी भारतीयों को कितना अपमानजनक महसूस होता होगा। ज़ोया अख्तर की ऐसी ही एक फिल्म ‘गली बॉय’ को मेलबर्न के फिल्म फेस्टिवल के लिए चुन लिया गया है। अब ‘गली बॉय’ देखकर विदेशी दर्शकों को पता चलेगा कि भारत में अल्पसंख्यक युवा अपना कॅरियर नहीं बना पा रहे हैं। ऐसे ही ‘आर्टिकल15’ देखकर विदेशी दर्शक जानेंगे कि भारत आज भी मध्ययुग में जी रहा है, जहाँ एक दलित को मेनहोल के मैले में आकंठ डुबकी लगानी पड़ती है। क्या सेंसर बोर्ड और सूचना प्रसारण को नहीं मालूम कि देश का मान घटाने वाली ऐसी फ़िल्में विदेश तक जाती हैं।
दिमाग की सूजी हुई कंदराओं से लिखी गई ‘आर्टिकल15’ को अनुभव सिन्हा की बॉक्स ऑफिस की प्यास ने और भयावह बना दिया। ये वर्ष की सबसे ‘डार्क मूवी’ है, जिसे देखने के बाद दर्शक एक काल्पनिक अवसाद में घिर जाता है। आज की तारीख में भारत में कोई एजेंडा सेट करना हो तो ज्यादा कुछ नहीं करना है। आपको एक फिल्म बना देनी है, जिसकी काल्पनिक कहानी पर मीडिया एक अनथक बहस खड़ी कर सके और सच कभी सामने न आ सके। उत्तरप्रदेश के जिन मुख्यमंत्री पर ये फिल्म प्रहार करती है, उन्होंने आज ही प्रदेश की सत्रह अति पिछड़ा जातियों को आरक्षण में लाभ देने की घोषणा की है। क्या अनुभव सिन्हा इस विषय पर भी फिल्म बनाना चाहेंगे कि आज़ादी के बाद दलित समुदाय का एक धड़ा कैसे क्रीमी लेयर में पहुँच गया और एक धड़ा कैसे आज भी आरक्षण से मरहूम है। बताइये निर्देशक जी।
सच हमेशा कड़वा होता है, जिसे स्वीकारना हर किसी के बस की बात नही , सच्चाई तो ये है के स्वर्ण वर्ग की जल रही है, सच्चाई निगलि नही जा रही ।
फ़िल्म में कोई ऐसा सीन नही जिससे सेंसर बोर्ड को आपत्ति हो,
गटर में घुसते व्यक्ति वाले सीन से कुछ महानुभावों को घृणा आ रही है पर आए दिन दिल्ली और अन्य राज्यों से सीवर साफ करते समय सफाईकर्मियों की मौत ही रही है , तब ख्याल नही आता देश की छवि का किसी को ।
घटिया लोग है जो जल रहे है इस सच्चाई से
कैसे पूर्वाग्रहों से ग्रसित है ये लेखक!! ये हमारे मुल्क की सच्चाई है। निर्देशक और कथाकार सहित पूरी फिल्म क्रू बधाई की पात्र है। विदेशों में लोग क्या सोचेंगे? ये आपका चिंता है आपके देश में क्या हो रहा है ये चिंता नहीं है। जो जाति व्यवस्था की गन्दगी और उसके प्रभाव को दिखाये वो बुरा हो गया। हालात इतने ख़राब भी नहीं हैं? कितने ख़राब हैं हालात आप ही बता दीजिए। गटर में घुसे हैं कभी? बात बनाने को कोई भी बना सकता है लेकिन देश की सच्चाई को बताना बड़ी बात है। ये सौभाग्य की बात है कि कोई तो है जो सच्चाई को सच्चाई के जैसा दिखा की हिम्मत करता है। इलाके का नाम लालगांव था न की लालपुर और sp गाँव में नहीं जिले में आता है। आपको तो व्यवस्था का ज्ञान भी नहीं है। बच्चों ने खाना खाने से इंकार कर दिया। क्या आपने कभी गाँवों में जाति व्यवस्था देखी है? बच्चे कैसे इंकार करेंगे? बच्चों के पीछे पूरी व्यवस्था है जो उन्हें बताती है कि किसके घर का खाना खाना है किसके घर का नहीं। ये सब मैंने अपनी आँखों से देखा है। “क्या मुझे ऐसे देश पर गर्व करना चाहिए?” ये डायलाग था इंग्लिश में। इसे तोड़ मरोड़ कर अपनी भाषा में लिखा है आपने। प्रवासी भारतीय क्या सोचेंगे? हम क्या प्रवासी भारतियों के लिए जी रहे हैं? उनके सोचने या न सोचने से देश की गंदगी तो नहीं मिटेगी। ये तो वही बात हो गयी कानपूर वाले चाचाजी क्या सोचेंगे? अंत में मैं ये ही कहना चाहूंगा कि आपकी सोच पूर्वाग्रहों से भरी हुई है या तो आप सच्चाई देखना नहीं चाहते या प्रायोजित पत्रकारिता करते हैं।
Nice article, salute your work sir, मुल्क मे इस्लामिक आतंकवाद को justify करने की कोशिश की है पर दर्शक मुर्ख नहीं, मैं ये फिल्म cenima मे देखने की सोच रहा था पर अब Torrent से देखूँगा पैसे खराब क्यों करे. हमारे देश मे नफरत भरेंगे और हम इनकी फ़िल्में पैसे खर्च करके देखे?