
अरुण शौरी पर लिखने से पहले दस बार सोचा, लिखूं या न लिखूं? लिखना पड़ा, आखिर मुझसे बड़ा मेरा देश है!
अरुण शौरी पर लिखने से पहले दस बार सोचा! लिखूं, न लिखूं? अरुण शौरी की विद्वता का मैं बहुत सम्मान करता हूं। और इसलिए नहीं कि मैंने उनकी लेखनी के बारे में कहीं आधा-अधूरा पढ़ा या किसी से सुना है! बल्कि इसलिए कि उनकी अधिकांश लेखनी को मैंने खुद पढ़ा और उससे सहायता हासिल की है। आधुनिक समय में राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों में सीताराम गोयल और रामस्वरूपजी के अलावा यदि किसी का नाम है तो केवल और केवल अरुण शौरी हैं। वह न केवल एक पत्रकार और लेखक हैं, बल्कि एक अर्थशास्त्री राजनेता भी हैं।
बहुत कम राष्ट्रवादी लेखक हैं, जिनकी लेखनी से मार्क्सवादी-नेहरूवादी इतिहासकार भयाक्रांत रहे हैं, अरुण शौरी उनमें से एक हैं। अरुण की लेखनी से न केवल मार्क्सवादी-नेहरूवादी इतिहासकार, बल्कि फर्जी दलितवादी, इस्लामवादी, मिशनरीवादी-सब डरते रहे हैं। अकाट्य प्रमाण के साथ, उनकी मांद में घुसकर किसी ने उन्हें पूरी तरह से नेस्तनाबूद करने के लिए कलम चलाई है तो निःसंदेह वह अरुण शौरी हैं।
मुझे याद है, जब मैं कहानी कम्युनिस्टों की लिखने का विचार बना रहा था तो सबसे पहले जिस लेखक की किताब मेरे दिमाग में कौंधी वह अरुण शौरी की किताब ‘Only Fatherland : Communists, ‘Quit India,’ and the Soviet Union’ थी। आजादी से पहले और खासकर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की गद्दारी और देशद्रोह का दस्तावेज सबसे पहले सीताराम गोयल संग्रहालय से निकाल कर लाए थे और अरुण शौरी ने उसे पुस्तक का रूप दिया था। 1942 के आंदोलन में कम्युनिस्टों ने जिस तरह का देशद्रोह किया, वह दस्तावेज के साथ किसी किताब में मौजूद है तो वह ‘Only Fatherland’ ही है। हां, अरुण शौरी की शैली भारी-भरकम है। उनकी अंग्रेजी समझने के लिए डिक्शनरी लेकर बैठना पड़ता है,और हिंदी अनुवाद तो ऐसी है कि बस पूछिए मत? लेकिन यही वो कारक है जिससे खुद को बुद्धिजीवी मानने वाले मार्क्सवादी इतिहासकार अरुण से भय खाते थे।
अरुण शौरी ने 30 से अधिक पुस्तकें लिखी हैं, और सब एक से बढ़कर एक। उनकी ‘Eminent Historians: Their Technology, Their Line, Their Fraud’ पढ़ लीजिए, हर मार्क्सवादी इतिहासकारों की पोल-पट्टी इस किताब में है। या फिर पढ़ लीजिए ‘Worshipping False Gods’. डॉ भीमराव आंबेडकर के नाम पर जो झूठ का दलित विमर्श खड़ा किया गया है, वह एक झटके में ध्वस्त हो जाता है। ऐसे समय में जब इस्लाम पर लिखना भी सर कलम का कारण बन जाता है, अरुण की भारी-भरकम पुस्तक- ‘The World of Fatwas or the Sharia in Action’ इस्लाम, इस्लामी फतवा और मुल्ले-मौलवियों की चिंदी-चिंदी उड़ा देता है। भारत में मिशननियों का काला अध्याय आप उनकी पुस्तक- ‘Missionaries in India’ में पढ़ सकते हैं। यानी मसीह-मोहम्मद-मार्क्स-माओवादी-मैकालेवादियों (M5) को जो बौद्धिक चुनौती अरुण शौरी ने दी, वह कोई राष्ट्रवादी लेखक नहीं दे पाया। भाजपा और संघ को तो छोड़ दीजिए, उनका एक भी साहित्य अरुण शौरी के किसी लेख के आसपास भी नहीं है। लेकिन शायद यहीं अरुण शौरी के विवेक पर अहंकार हावी होता चला गया और वह खुद को मानव की जगह महामानव मानने लग गये! चूक यहीं हो गयी!
अरुण शौरी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री थे, और कद्दावर मंत्री थे। मुझे याद है मनमोहन सरकार के समय सबसे पहले नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में इंडोर्स करने वालों में अशोक सिंघल और डॉ सुब्रहमनियन स्वामी के बाद शायद अरुण शौरी ही थे। जब मई 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी तो सबको उम्मीद थी कि डॉ सुब्रहमनियन स्वामी और अरुण शौरी तो जरूर केंद्रीय मंत्री बनाए जाएंगे। अर्थव्यवस्था पर डॉ स्वामी की जोड़ का एक भी विद्वान भाजपा और संघ के पास नहीं है। उसी तरह शिक्षा जगत में मार्क्सवादियों की चूलें हिलाने वाला भी अरुण शौरी के अलावा एक भी व्यक्ति भाजपा-संघ के पास नहीं है।
मुझे याद है! जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय से लेकर हर आयोग में बैठा मार्क्सवादी-नेहरूवादी सहमा हुआ था कि कहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अरुण शौरी को मानव संसाधन विकास मंत्री न बना दें! यदि ऐसा हो गया तो अकादियों, विश्वविद्यालयों, एनसीईआरटी और मीडिया में बैठे वामपंथियों की चूलें हिल जाएगी। जिस गलत इतिहास के आधार पर गलत नरेशन सेट किया गया है, वह सारा बस मोदी सरकार के एक कार्यकाल में समाप्त हो जाएगा। लेकिन जब मार्क्सवादियों ने मानव संसाधन विकास मंत्री के रूप में स्मृति ईरानी का नाम देखा तो जैसे राहत की सांस ली। उन्हें हमला करने के लिए एक सॉफ्ट टारगेट खुद प्रधानमंत्री मोदी ने उपलब्ध करा दिया था। और फिर स्मृतिजी को वामपंथी बुद्धिजीवियों और पत्रकारों ने जमकर ट्रोल किया। अरुण शौरी होते तो वामपंथी बुद्धिजीवी शायद यह हिम्मत कभी भी नहीं कर पाते। बाद में मोदी सरकार को अपनी भूल का ऐहसास हुआ और उन्होंने स्मृति ईरानी की जगह प्रकाश जावड़ेकर को मानव संसाधन मंत्री बनाया। इस बार भी मार्क्सवादियों ने राहत की सांस ली। उन्हें शैक्षणिक संस्थानों से जड़ से उखाड़ने की कूबत प्रकाश जावड़ेकर में भी नहीं है।
आपको अपना ही एक अनुभव सुनाता हूं कि मोदी सरकार के मंत्री सत्ता में रहकर भी वामपंथी एवं कांग्रेसियों से किस तरह खौफ खाते हैं! मेरी किताब ‘कहानी कम्युनिस्टों की’ के लोकार्पण के लिए वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर रायजी ने तत्कालीन मानव संसाधन राज्य मंत्री (उच्च शिक्षा) महेंद्रनाथ पांडे से कहा। किताब की विषयवस्तु देखकर महेंद्रनाथ पांडे का हाथ-पैर फूल गया। उन्होंने कहा कि “मुझ पर शिक्षा के भगवाकरण का आरोप लग जाएगा, क्योंकि इस किताब में साफ-साफ पंडित नेहरू को कम्युनिस्ट साबित किया गया है!” रामबहादुर रायजी ने उनसे कहा कि “आपको फिर शिक्षा मंत्री क्या शिक्षा का लालकरण करने के लिए बनाया गया है?”
महेंद्रनाथ पांडे को जवाब नहीं सूझा और वह दिल्ली छोड़कर बनारस भाग गये। किताब के लोकार्पण के लिए न तो मेरा फोन उठा रहे थे, न मेरे मैसेज का जवाब दे रहे थे और न ही रामबहादुर रायजी के ही फोन या मैसेज का जवाब दे रहे थे! फिर रामबहादुर रायजी ने डॉ सुब्रहमनियन स्वामी को इस पुस्तक का लोकार्पण करने को कहा। स्वामी ने जब इस पुस्तक की विषय वस्तु देखा तो कहा, “हिंदी में पहली बार ऐसी पुस्तक आयी है जो सीधे-सीधे सबूतों के साथ नेहरू को कम्युनिस्ट लिख रही है। नेहरू कम्युनिस्ट था और उसकी दोस्त लेडी माउंटबेटन भी कम्युनिस्ट थी।” इन उदाहरणों को सामने रखने का एक ही कारण है कि मोदी सरकार के मंत्रियों की काबलियत बनाम अरुण शौरी या डॉ सुब्रहमनियन स्वामी की काबलियत आप परखेंगें, और निष्पक्ष नजर से परखेंगे तो आपको साफ-साफ आसमान और पाताल का अंतर पता चल जाएगा।
लेकिन सबसे बड़ी बात है देश के प्रधानमंत्री का सम्मान करना। देश के प्रधानमंत्री को संविधान ने यह हक दिया है कि वह अपने मंत्रीमंडल का चुनाव खुद करें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने लिए एक भरोसेमंद टीम चाहिए थी। शायद उस भरोसे पर अरुण शौरी खरे नहीं उतर रहे थे। इस पर सवाल उठना ही नहीं चाहिए था? अरुण शौरी को इंतजार करना चाहिए था। जिस व्यक्ति को प्रधानमंत्री के रूप में देखने की इच्छा उन्होंने जाहिर की थी, उसे बाहर से सपोर्ट करना चाहिए था, जैसे डॉ सुब्रहमनियन स्वामी कर रहे हैं।
मोदी सरकार ने बाद में डॉ स्वामी को राज्यसभा भेजा और उन्होंने राज्यसभा में मृत पड़ी भाजपा में जान फूंक कर रख दिया। आज सोनिया-राहुल गांधी के नेशनल हेराल्ड मामले से लेकर पी. चिदंबरम की एयरसेल-मैक्सिस और राम मंदिर तक के मामले को स्वामी ही हैंडल कर रहे हैं। शायद मंत्री रहते वह इतना काम नहीं कर पाते जो आज कर रहे हैं। लेकिन अरुण शौरी ने डॉ स्वामी की तरह राष्ट्रसेवा के लिए अपनी सकारात्मक भूमिका चुनने की जगह नकारात्मक भूमिका अख्तियार कर लिया और नरेंद्र मोदी का विरोध करते-करते देश का विरोध करने वाले उन वामपंथियों के साथ जाकर मिल गये, जिनकी पूरी उम्र उन्होंने खिलाफत की थी।
देश की सेना की शौर्यगाथा, पाकिस्तान पर हुए सर्जिकल स्ट्राइल को जो व्यक्ति ‘फर्जीकल स्ट्राइक’ कहे, उसकी सोच का स्तर किस कदर देश के खिलाफ चला गया है, क्या यह बताने की जरूरत है? मंत्री नहीं बनने के मलाल में आप अपने विवेक का त्याग कर दें फिर आपकी विद्वता रावण की श्रेणी में आ जाती है। रावण भी तो विद्वान ही था शौरी जी? नंद ने जब चाणक्य का अपमान किया था तो विद्वान चाणक्य ने देश तोड़ने का नहीं, देश जोड़ने का संकल्प लिया था। अरुण शौरी का तो नरेंद्र मोदी ने कोई अपमान भी नहीं किया, लेकिन वह देश के खिलाफ बने ‘एंटी इंडिया लॉबी’ के पोस्टर ब्वॉय बनते चले गये। एक तरह से पीएम मोदी के खिलाफ अरुण शौरी भारत विरोधियों के टिश्यू पेपर बनकर रह गये हैं। जिस दिन इस ‘एंटी इंडिया लॉबी’ का काम पूरा हो जाएगा, एक झटके में शौरी को डंप कर देंगे।
आज वामपंथी प्रणव जेम्स राय अपने कर चोरी, हवाला मनी, मनी लाउंडरिंग से बचने के लिए अरुण शौरी का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसकी विचारधारा के खिलाफ अरुण शौरी ने ताउम्र लड़ाई लड़ी। आज वह पुण्य प्रसून वाजपेयी, जो पत्रकारिता की आड़ में ‘आम आदमी पार्टी’ का प्रवक्ता बना हुआ है, उसके जैसे निकृष्ट के हाथ में अरुण शौरी खेलने चले जाते हैं। विश्व बैंक से लेकर अंतरराष्ट्रीय एजेंसी जब भारतीय अर्थव्यवस्था को सराह रही है तो अरुण शौरी इस पर हमला करने लग जाते हैं। देश की सेना के इतिहास के स्वर्णिम पन्ने पर वह भारतीय कम्युनिस्ट और कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर हमला करते हैं तो लगता है कि यह अरुण शौरी का पतन काल है। एक राष्ट्रवादी बुद्धिजीवी जिससे समाज को आशा थी कि वह समाज को नयी दिशा देगा, वह मंत्री पद की आसक्ति में ऐसा गिरा कि बस गिरता चला गया और कुंठा के स्तर को पार कर गया।
निजी तौर पर मैं अरुण शौरी की सादगी, उनकी विद्वता की बहुत कद्र करता हूं, लेकिन जिस तरह से उन्होंने सर्जिकल स्ट्राइक को ‘फर्जिकल स्ट्राइक’ कहा, उससे आहत हूं। अरुण शौरी जी, कार्य करने वालों के लिए किसी मंत्री पद की जरूरत नहीं रह जाती। आप युवाओं को मसीहवादियों-मोहम्मदवादियों-मार्क्सवादियों-माओवादियों के झूठ के खिलाफ केवल प्रशिक्षण देने का बीड़ा अपने मन से उठा लेते, इसमें ही राष्ट्र का कल्याण हो जाता।
सोचिए यदि आपकी तरह उपनिषद के ऋषि भी सोचते तो वह अरण्य में जाकर विद्यार्थियों के जरिए राष्ट्र का जीवन संवारने का बीड़ा नहीं उठाते, बल्कि किसी राजवंश की चाकरी का रास्ता चुनते। एक चाकर बनने के लिए आपने राष्ट्र से द्रोह कर दिया! अरुण शौरीजी यह राष्ट्र आपको कभी माफ नहीं करेगा। आपकी पुस्तकों को हम हमेशा अपने सिर पर उठाएंगे, लेकिन आपके अंदर आए वैचारिक स्खलन और विक्षिप्तता को कभी माफ नहीं कर पाएंगे!हमें अभी भी आपसे उम्मीद है! उम्मीद मत तोडि़ए और देश से क्षमा मांग लीजिए। हमें और हम जैसे हरेक राष्ट्रवादी को शास्त्रार्थ में आपके जैसे सारथी की जरूरत है!
नोट: अरुण शौरी पर अन्य खबर के लिए पढ़ें-
URL: Arun Shourie questions on Surgical Strikes? now he turns nationalist to leftist
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आप का कथन सोलह आने सच है । एक विद्वान और देश भक्त देश द्रोहियों के भ्रमजाल.मे फस गया ।