श्वेता पुरोहित। श्रीराम चरितमानस के उत्तरकाण्डमें काक भुशुण्डि और गरुड़जी का बृहत् संवाद मिलता है। काक भुशुण्डि नीलगिरि में निवास करते हैं। वे रामकथा के पारंगत व्याख्याता हैं। उनसे रामकथा सुनने के लिये अनेक पक्षी वहाँ आते हैं। मोहग्रस्त गरुड़ भी निज-सन्देह-निवारणार्थ उनके आश्रम में पहुँचते हैं। काकभुशुण्डि उन्हें विस्तारपूर्वक रामकथा सुनाकर उनका भ्रम दूर करते हैं। पश्चात् गरुड़के पूछने पर काक भुशुण्डि उनको अपने दो जन्मों का वृत्तान्त सुनाते हैं।
वे कहते हैं- हे खगेश ! भगवान् आशुतोषके अपरिमित प्रसाद से मुझे अपने सभी पूर्वजन्मों का ज्ञान एवं स्मृति प्राप्त है। अब मैं अपने दो जन्मों का इतिवृत्त आपको सुनाता हूँ।
पूर्व कल्प के किसी कलियुग में मेरा जन्म अयोध्यापुरी में शूद्र वर्ण में हुआ था। मैं उस जन्म में मन, वाणी और कर्म से शिवका परम भक्त तो था, परंतु अन्य देवताओं की निन्दा भी किया करता था। धन-वैभव से सम्पन्न होनेके कारण मैं वाचाल एवं अहंकारी हो गया था। मैं दम्भ एवं पाखण्ड की सीमाएँ पार कर चुका था। उस समय मैं रामनगरी की महिमा से पूर्णतः अनभिज्ञ था। उस भयंकर कलिकाल में मैंने चिरकाल तक अयोध्यापुरी में निवास किया।
एक बार वहाँ भयंकर दुष्काल पड़ा। पूरे अवध- मण्डल में हाहाकार मच गया। अन्न-जल के अभावमें लोग मरने लगे। उस भीषण परिस्थिति में मैं भी दीन, हीन, दरिद्र हो गया। धनार्जन के लिये भटकते-भटकते मैं महाकाल की नगरी उज्जैनी जा पहुँचा। दो-तीन वर्ष व्यतीत होने पर मैंने थोड़ा-थोड़ा करके पर्याप्त धन अर्जित कर लिया। सौभाग्यवश एक भव्य शिवमन्दिर में स्थान भी मिल गया और मैं वहीं रहकर नियमित रूप से शिवकी उपासना करने लगा। वहींपर मुझे एक शिवभक्त वैदिक ब्राह्मण भी मिल गये। वे हरि एवं हरके अनन्य उपासक थे। मैं कपटपूर्वक उनकी सेवा किया करता था, फिर भी वे दयालु विप्रदेवता मुझे अपने पुत्र की भाँति पढ़ाते थे। उन्होंने मुझे बड़े प्रेम से शिवमन्त्र की दीक्षा भी दी। मैं स्वभावसे बहुत ही कुटिल और नीच था, विष्णु और विष्णुभक्तोंसे सदैव ईर्ष्या-द्वेष रखता था। मेरे उदार गुरुजी ने बताया कि राम ही चिन्मय-परात्पर ब्रह्म हैं। ब्रह्मा और शिव भी निरन्तर रामकी सेवा करते रहते हैं। गुरु के मुख से अपने आराध्य शिवको विष्णुका सेवक सुनकर मेरा
हृदय सन्तप्त हो उठा। एक बार मैं उसी शिव मन्दिर में बैठा हुआ शिव-मन्त्र का जप कर रहा था। उसी समय मेरे गुरुजी ने मन्दिर में प्रवेश किया। वहाँ भी अहंकार के वशीभूत होकर मैंने गुरुचरणों में प्रणाम नहीं किया। यद्यपि यह अशिष्ट और दुर्विनीत आचरण क्षमाके योग्य नहीं था, तथापि कुसुम के समान कोमल चित्तवाले गुरुदेव को मुझपर लेशमात्र भी क्रोध नहीं आया। परंतु गुरुदेवके इस अपमान को भगवान् आशुतोष नहीं सहन कर सके। तुरन्त ही मन्दिर में नभवाणी हुई और मुझे सर्प होने का दारुण शाप मिला। मेरी दयनीय स्थिति से द्रवीभूत होकर गुरुदेव ने स्वरचित स्तोत्रसे शिवजी की स्तुति की। उनकी स्तुतिसे आशुतोष शीघ्र ही सन्तुष्ट हो गये और मुझपर वरदानों की झड़ी लगा दी – ‘जन्म और मृत्युके समय प्राणी को जो भयंकर कष्ट होता है, वह तुम्हें स्वल्पमात्र भी नहीं होगा। जन्म-जन्मान्तरकी स्मरण-शक्ति कभी नष्ट नहीं होगी। मेरी कृपासे अब तुम्हारे हृदय में अखण्ड रामभक्ति का उदय होगा। तुम्हारी यातायात शक्ति तीनों लोकों में अव्याहत रूपसे कार्य करेगी। तुम्हारे लिये संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं होगा।’
निश्चय ही इन आशीर्वचनों की बौछार गुरुकृपाका ही फल है। शिव-शापके कारण मैं तत्काल सर्पाकृति में परिणत हो गया और विन्ध्यगिरि के गहन वनमें जाकर निवास करने लगा। कालान्तर में मैंने सर्पदेह का त्याग किया। पुनः मैंने न जाने कितनी बार जन्म लिया और बिना किसी पीड़ा के अनायास ही शरीर का त्याग किया। प्रत्येक जन्ममें मेरी स्मृति, भक्ति, शक्ति एवं गति अकुण्ठित रहती थी।
हे पक्षिराज ! अब मैं आपको अपने वर्तमान जन्मकी कथा सुनाता हूँ। मेरा जन्म ब्राह्मणकुल में हुआ, किंतु इस समय मैं आपको काकशरीरमें दिखायी पड़ रहा हूँ। अब मैं आपकी इस जिज्ञासाको भी शान्त करूँगा कि मैं मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ विप्रदेह से चाण्डाल पक्षी (काक)- शरीर को कैसे प्राप्त हो गया। वर्तमान जन्म में बाल्यावस्था से ही मेरा मन प्रभु श्रीराम के चरणकमलों में अनुरक्त रहता था। मैं श्रीराम के सगुण-साकाररूप का उपासक था। निर्गुण-निराकार ब्रह्म की उपासना मुझे रुचिकर नहीं लगती थी। मैं मुनियों के आश्रम में जाकर श्रीरघुनाथ जी के गुण, स्वभाव, चरित्र, यश, लीला आदिका श्रवण- कीर्तन, स्मरण करते हुए समय-यापन किया करता था। यही मेरी प्रिय दिनचर्या थी।
सुमेरु (मेरु) गिरिके उत्तुंग शिखर पर एक विशाल वट वृक्षके नीचे महर्षि लोमशका पवित्र आश्रम था।
पर्यटन करते हुए मैं उनके आश्रम जा पहुँचा और उनके श्रीचरणों में मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। पहले तो मैंने अपना सम्यक् परिचय दिया। तत्पश्चात् उनके पूछने पर अपने वहाँ आनेका प्रयोजन बताया। ‘मैं सगुण ब्रह्म की उपासना-पद्धति का ज्ञान प्राप्त करने के लिये आपके चरणों में उपस्थित हुआ हूँ। मैं अपने प्रभु श्रीराम के सगुण-साकार रूप का साक्षात्कार करना चाहता हूँ। कृपया इस प्रयोजन-सिद्धि में यथोचित मार्गदर्शन कीजिये।’ किंतु इसके विपरीत, महर्षिने अपना निर्गुण पक्ष मेरे सामने प्रस्तुत किया। मैंने उसे काटकर अपना सगुण पक्ष उनके समक्ष स्थापित किया। इस प्रकार अपने मतका खण्डन देखकर लोमशजी का मुखमण्डल क्रोध से आरक्त हो गया, भृकुटी वक्र हो गयी, अधर फड़कने लगे और उसी क्षण ही उन्होंने मुझे चाण्डाल पक्षी (काक) हो जाने का प्रचण्ड शाप दे दिया। मैंने अत्यन्त विनीत भाव से उनके शाप को अंगीकार कर लिया और तत्काल द्विजदेह से काक शरीर को प्राप्त हो गया; तभी से मेरा नया नाम
‘काक भुशुण्डि’ हो गया। मेरे मत का खण्डन करनेमें महर्षिका लेशमात्र भी दोष नहीं था। मैं तो यही मानता हूँ कि श्रीरघुनाथ जी मेरी सगुण भक्ति की परीक्षा लेना चाहते थे।
इस परीक्षा में मैं पूर्णतः सफल हो गया। भगवान्ने मन, वाणी और कर्मसे मुझे अपना सेवक जानकर महर्षि की मति को पुनः पूर्ववत् स्थिर कर दिया। वे अनुताप की अग्निमें जलने लगे। मेरी विनम्रता से सन्तुष्ट होकर उन्होंने मुझे स्नेह पूर्वक अपने पास बैठाया और प्रफुल्लित मनसे ‘राममन्त्र’ प्रदान किया। उन्होंने मेरे इष्ट बाल रूप राम की ध्यान विधि को अच्छी तरह समझाया।
कृपालु लोमश जी ने मुझे अपने आश्रममें बहुत दिनों तक रोककर अतिशय पावनी रामकथा को विस्तार से सुनाया। उन्होंने मुझे यह बताया कि उनको यह भवभयमोचनी रामकथा भगवान् शंकर से प्राप्त हुई थी।
रामकथा सुननेके पश्चात् मैंने महर्षि लोमश को नतमस्तक होकर प्रणाम किया। उन्होंने मेरे ऊपर आशीर्वचनों की झड़ी लगा दी, जिसके प्रभावसे मुझे भगवान् रामकी अविरल भक्ति प्राप्त हो गयी; मैं इच्छानुसार शरीर धारण करने में समर्थ हूँ; मुझे ज्ञान- विज्ञानादि सब कुछ प्राप्त है; मेरी सभी मनोकामनाएँ फलीभूत हैं; मेरा मोह नष्ट हो चुका है। लोमशजीकी अनुमति पाकर, उनको बार-बार प्रणाम करके मैं इसी नीलशैलपर चला आया, जो सुमेरु पर्वत से सुदूर उत्तरमें स्थित है। यहीं पर मेरा आश्रम है। मेरे आश्रमके चारों ओर एक योजन (चार कोश) तक कहीं भी अविद्याका प्रभाव नहीं पड़ सकता- यह भी महर्षि लोमशका आशीर्वाद है।
मुझे इस नीलशैल में निवास करते हुए सत्ताईस कल्प बीत चुके हैं। मैं प्रतिदिन नियमित समयचक्रानुसार रामकथा कहता हूँ, जिसको सुननेके लिये नाना प्रकारके पक्षी यहाँ आया करते हैं।
हृदयाभिराम कविधाम बालरूप भगवान् राम ही मेरे इष्टदेव हैं। भक्तों का कल्याण करने के लिये जब जब त्रेतायुग में भगवान् राम अवधपुरी में मनुजरूपमें अवतार लेते हैं, तब-तब काक शरीर धारी मैं वहाँ पाँच वर्षपर्यन्त रहकर अपने इष्टदेव बालरूप राम की मनोमुग्ध कारिणी अद्भुत छवि एवं उनकी मधुर-सरस लीलाओं का आनन्द लेता हूँ।
एक बार अपने इष्टदेव को शिशुओं की भाँति लीला करते हुए देखकर मेरे मन में भी मोहका अंकुरण हो गया। यह भी उन्हीं की माया का प्रभाव था। बालक्रीड़ा करते हुए उन्होंने मुझे पकड़ने के लिये अपना नन्हा-सा हाथ फैलाया। मैं भी अपनी रक्षाके लिये खेल-ही-खेल में उड़ने लगा, फिर भी उनका हाथ मेरे पास ही दिखायी पड़ा। यहाँ तक कि मैं आकाश में उड़ते-उड़ते ब्रह्मलोक तक जा पहुँचा। वहाँ भी उनका हाथ मेरे अति समीप दिखायी पड़ा। भगवान् शिव के वरदान से मैं किसी भी लोकमें अबाध गति से जा सकता था। ब्रह्मलोक के ऊपर भी राम की भुजा को अपने अति सन्निकट देखकर मैंने घबराहट से अपने नेत्रों को बन्द कर लिया, फिर जब मेरे नेत्र खुलते हैं, तब मैं अपने आपको पुनः अयोध्यापुरी में पाता हूँ। मेरी व्यग्रता देखकर परम कौतुकी राम को अनायास ही हँसी आ गयी। उनके हँसते ही मैं उनके मुख-द्वार से प्रवेश करके उदर में चला गया। प्रभु राम के उदर में मैंने अनेकानेक ब्रह्माण्ड एवं नाना प्रकार की विचित्र सृष्टियों का अवलोकन किया। वहींपर भ्रमण करते हुए मैं अपने आश्रम (नीलशैल) पहुँच गया। उदर के अन्दर ही मैंने सुना कि मेरे इष्टदेव रामने अयोध्यापुरी में मनुजरूपमें अवतार लिया है। इतना सुनते ही मैं वहाँ पहुँचकर उनका जन्मोत्सव एवं उनकी मनोहारिणी बालसुलभ चेष्टाएँ देख-देखकर आनन्दित होता हूँ। वस्तुतः इन सब प्रपंचों को देखनेमें केवल दो घड़ी का समय ही व्यतीत हुआ, किंतु मुझे ऐसा लगा मानों एक सौ कल्प बीत गये हों। राम के भीतर रामको देखकर मेरी बुद्धि चकरा गयी। मुझे आर्त देखकर रामको पुनः हँसी आ गयी। उनके हँसते ही मैं उनके मुखसे बाहर आ गया और अत्यन्त दीनभावसे प्रार्थना करने लगा- ‘हे कृपानिधान! मेरी रक्षा करो, मैं आपकी शरण में हूँ।’ मेरी करुण पुकार सुनकर मायाधीश भगवान् रामने अपनी माया को नियन्त्रित कर लिया और मेरे सिरपर अपना कोमल करकमल रख दिया, जिससे मेरा सारा मोह, अज्ञान एवं भ्रम नष्ट हो गया, मेरे ज्ञानचक्षु खुल गये।
मैंने राम से केवल अखण्ड भक्तिका वरदान ही माँगा था, किंतु उन्होंने भक्तिके साथ-साथ मुझे ज्ञान- विज्ञान-वैराग्य आदि दुर्लभ वस्तुएँ भी दे दीं। उन्होंने मुझसे कहा, ‘जड़-चेतनमय अखिल जगत् मेरी मायासे ही उत्पन्न है। मेरी माया दुस्तर है। आजसे तुम्हारे ऊपर मेरी मायाका प्रभाव नहीं पड़ेगा। काल तुम्हारे आगे सदा नतमस्तक रहेगा।’
इतना कहनेके पश्चात् वे पुनः अपने राजभवन के मणिजटित विशाल एवं भव्य प्रांगण में जानुपाणि (घुटनोंके बल) चलते हुए अपनी मधुर लीलाओं से कौसल्यादि माताओंका मनोविनोद करने लगे। मैं भी उनके साथ मिलकर क्रीड़ा करता। वे प्राकृत शिशु की तरह मुझे पकड़नेके लिये दौड़ते, तब मैं उड़ जाता। कुछ दिन वहाँ रहने के बाद मैं अपने आश्रम में लौट आया।
हे हरियान ! काकशरीर मुझे कैसे प्राप्त हुआ-यह सारा वृत्तान्त मैंने आपको सुनाया। इसी काक शरीर से मुझे बालरूप श्रीराम का दर्शन प्राप्त हुआ, अतः यह शरीर मुझे अतिप्रिय है।