विपुल रेगे। कल से गीतांजलि श्री मीडियाई समाचारों में छा गई हैं। उनकी किताब रेत की समाधि के अंग्रेज़ी अनुवाद को बुकर पुरस्कार दिया गया है। मित्रों ये वामपंथी इकोसिस्टम का ज्वलंत उदाहरण है। लेखिका ने पांच किताब लिखी है। स्त्री समलैंगिकता को वे अपनी किताबों में खासी जगह देती हैं। उनका लिखा ‘तिरोहित’ इसी विषय पर आधारित था।
जिस किताब के लिए उनको पुरस्कार मिला, उसकी नायिका एक वृद्धा है और कुछ प्रश्न मन में लिए पाकिस्तान की यात्रा करती है। वर्जित विषयों पर बोल्ड लेखन आपको बुकर पुरस्कार दिला सकता है और वामी मीडिया का साथ मिल जाए तो वारे-न्यारे हो जाते हैं। भारत में इतिहास, भूगोल, पुरातत्व, विज्ञान, समाज पर लिखने वाले एक से एक धुरंधर लेखक हैं।
बस अंतर इतना है कि उन कलमकारों के पीछे बीबीसी, जागरण, आज तक, नवभारत नहीं खड़ा रहता। उनका लेखन गीतांजलि श्री जैसा क्रांतिकारी नहीं है। बाकी ये तो मानना होगा कि राष्ट्रवादी लेखकों के पीछे कोई न खड़ा है। उनको अपने ही लोग मुफ्त में पढ़ना चाहते हैं। कुछ वर्ष बाद ये हज़ारों कलमकार राष्ट्रवादी यज्ञ में आहुतियां देकर विलुप्त हो चुके होंगे।
समाज अपनी आंतरिक सेकुलरिज्म वाली दुर्बलता से उबर चुका होगा। बुकर पुरस्कार तब भी बंटते रहेंगे और सशक्त समाज की नींव में पत्थर बने कलमकार कभी-कभी इतिहास में दिख जाया करेंगे।