मनु की बसी अयोध्या एक बार पुन: अपने वैभव पर इठला रही है। मनु ने जब इस नगर को बसाया होगा तो कभी भी यह विचार न किया होगा कि यहाँ पर एक ऐसा नायक जन्म लेगा जो युगों युगों तक मर्यादा की रक्षा करने वाला होगा। एक ऐसा नायक आएगा जो जन जन के मन में बस जाएगा, जो उसे एक बार जानेगा वह उसी का हो जाएगा। मनु ने यह नहीं सोचा था कि एक नायक ऐसा आएगा इस नगर से जिसे पुत्र रूप में पाने के लिए हर स्त्री कौशल्या होना चाहेगी।
महर्षि वाल्मीकि अयोध्या के विषय में कहते हैं कि इस अयोध्यापुरी में वेद वेदार्थ जानने वाले सब वस्तुओं का संग्रह करने वाले, सत्यप्रतिज्ञ, दूरदर्शी, महातेजस्वी, प्रजाप्रिय, अनेक यज्ञ करने वाले, धर्म में रत सबको अपने वश में रखने वाले, महर्षियों के समान, राजर्षि, तीनों लोकों में प्रसिद्ध, बलवान, शत्रु रहित, सब के मित्र, इन्द्रियों को वश में रखने वाले, धनादि तथा अन्य वस्तुओं के संचय करने में इंद्र और कुबेर के समान, महाराज दशरथ ने, अयोध्यापुरी में राज्य करते हुए उसी प्रकार प्रजापालन किया, जिस प्रकार मनु महाराज किया करते थे।
अयोध्या की बात अलग ही है। उस श्रेष्ठ नगरी में सुख से बसने वाले, अपने ही धन से संतुष्ट, निर्लोमी तथा सत्य पुरुष निवास करते थे। अयोध्या जिसने अपनी प्रथम सांस ही राम के नाम पर आरम्भ की थी। युगों युगों से वह विष्णु के अवतार राम की ही प्रतीक्षा में थी। 1932 में प्रकाशित अयोध्या का इतिहास पुस्तक में अयोध्या की महिमा अध्याय में अयोध्या के गैजेट के हवाले से अयोध्या को सबसे बड़े तीर्थों में से एक बताया है।
महर्षि वाल्मीकि कहते हैं कि यह लम्बाई में बारह योजन और विस्तार में तीन योजन थी। सरयू का प्रबल प्रवाह उसकी रक्षा करता था। नदी के तीनों ओर जो खाइयाँ थीं वह अवश्य ही जल से भरी रहती होंगी। अयोध्या अपने हर द्वार पर राम का ही नाम जपती होगी। नगरी में पूर्व की ओर जो द्वार था, उसी से विश्वामित्र राम-लक्ष्मण को अपने साथ पहले राक्षसों को मारने के लिए और फिर अपनी प्रिय वैदेही को लेने गए थे।
परन्तु अयोध्या को जीवन भर उस द्वार को स्मरण रखना था जिस दक्षिण द्वार से उसके प्रिय राम अपने भाई लक्ष्मण और वैदेही को लेकर वन की ओर निकल गए हैं। अयोध्या बिलखती रह गयी अपने प्रिय राम के लिए। जो अयोध्या कभी “बहुयंत्रायुधवती” हुआ करती थी, वह जैसे राम से पूछ रही हो कि क्या करूंगी इतने आयुध लेकर जब प्रिय राजा ही नहीं है। राम ढाढस बंधाते हैं, अपनी मातृभूमि को, जैसे वचन ले रहे हों कि अपने इन आयुधों से वह रक्षा करेंगी अपने प्रिय राम की प्रजा का!
अयोध्या की स्मृति में राम को वन के लिए विदा करते हुए एक ही दिन पहले का दृश्य आ रहा है जब चंदन के जल का छिडकाव हुआ था। कमल एवं उत्पल हर जगह शोभित किए जा रहे थे, मार्ग और सड़कों पर रात्रि के समय जो दीपक कल तक जला करते थे, उनकी कांति न जाने कब वापस आएगी।
अयोध्या अभी तक महल के उसी हिस्से में थी जब राम सीता के साथ उपवास कर रहे थे।
वाग्यत: सह वैदेह्या भूत्या नियतमानस:
श्रीमत्यायतने विष्णो: शिश्ये नरवरात्मज:
उस रात्रि का प्रभु का मौन अभी तक अयोध्या के ह्रदय में बसा हुआ था।
एक ऐसा नगर जिसमें कोई नास्तिक न था, एक ऐसा नगर जिसमें अभी दीप अपने राजकुमार को युवराज बनते देखने के लिए सूर्य की प्रतीक्षा में थे, वह राम के इस मौन को सुन रहे थे एवं उसे ह्रदय में बसा रहे थे। अयोध्या में एक दिवस पूर्व ही हिमालय से ऊंचे देव मंदिर, और हाटों में बसे घर उल्लास से भरे हुए थे। ऋषि वाल्मीकि लिखते हैं
“सिताभ्रशिखराभेषु, देवतायतनेषु
चतुष्पथेषु रथ्यासु चैत्येष्वट्टालकेषु च। ”
अयोध्या ने अपने प्रिय राम की प्रतीक्षा में पूरे चौदह वर्ष तक की प्रतीक्षा की। इस नगर ने साहस नहीं खोया। अयोध्या नगरी जैसे माँ की भांति समस्त राम प्रेमियों को यह विश्वास दिलाती रही कि उसके प्रिय प्रभु राम आएँगे! राम तो उनके पुत्र हैं ऐसा हो सकता है कि भला माँ से बालक कुपित रहे। एक न एक दिन तो आना ही है! चौदह वर्षों के बाद जब राम आए तो भाव विह्वल हो गयी थी, अयोध्या नगरी!
चौदह वर्षों की प्रतीक्षा के उपरान्त जब राम ने प्रवेश किया तो ढोल नगाड़ों, करताल आदि बजाने वाले राम के आगे चल पड़े।
स पुरोगामिभिस्तूयेंस्तालखस्तिक पणीभि:
प्रव्याहरंद्भीर्मुदितैर्मंगलानि वृतो ययु:”
महाराज के आगे आगे नगाड़े करताल, झांझ स्वस्तिक आदि बाजे, बजाने वाले बजाते हुए चल रहे थे। इनके अतिरिक्त हर्षित होकर सुन्दर मंगलगान गाते हुए (अर्थात मंगलाचरण करते हुए) गवैया भी चल रहे थे
उनके साथ ब्राह्मण चल रहे थे,
अपने राम का स्वागत करने के लिए अयोध्या के वह दीपक एक बार पुन: मिट्टी से पुनर्जीवन पाकर जलने के लिए तैयार थे, जो चौदह वर्ष से मिट्टी में प्रतिदिन मिल जाते थे।
अयोध्या नगरी में जितने भी घर थे सब पताकाओं से सजे हुए थे।
न जाने कब से प्रतीक्षा रत पुष्प खिल उठे
अवधपुरी प्रभु आवत जानी, भई सकल सोभा कई कहानी,
भइ सरजू अति निर्मल नीरा, बहइ सुहावन त्रिविधि समीरा!
राम ने अपनी मातृभूमि की अधीरता को पहचान लिया है। वह कहते हैं
जद्यपि सब बैकुंठ बखाना, बेद पुराण बिदित जग जाना,
अवध सरिस प्रिय मोहि न सोऊ, यह प्रसंग जानइ कोऊ कोऊ!
जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि, उत्तर दिसि बह सरजू पावनि
जा मज्जन तें बिनहिं प्यासा, मम समीप नर पावहीं आसा!
अयोध्या नगरी सज धज पर अपने प्रिय राम को गले लगाने को आतुर है………………..
आज विधर्मियों के आक्रमण के उपरान्त, 500 वर्षों के रक्तरंजित इतिहास के उपरान्त, अपने राम को इतने वर्षों तक भवनहीन देखने के उपरान्त, संघर्षों के बाद, इस शुभ मुहूर्त में अयोध्या के दीपक पुन: राम की प्रतीक्षा में हैं. भवनों पर दीपक आज की रात फिर जलेंगे, हाट स्वागत में हैं! 5 अगस्त 2020 पुष्प फिर खिलेंगे वर्षों की प्रतीक्षा के उपरान्त
बहुत सुंदर आलेख ??