विपुल रेगे। अक्षय कुमार की फिल्म ‘बच्चन पांडे’ को हम एक एवरेज फिल्म मान सकते हैं, जिसकी मदद से अक्षय कुमार ने जैसे-तैसे अपना स्टार स्टेटस बचा लिया है। इस फिल्म की लागत लगभग 150 करोड़ है। द कश्मीर फाइल्स और राजामौली की आगामी आर आर आर के बीच प्रदर्शित हुई इस फिल्म के सम्मुख सबसे बड़ी चुनौती महंगी लागत को वसूल करना है। अपितु दर्शकों की मिश्रित प्रतिक्रियाएं और दूसरे दिन के फुटफॉल्स बच्चन पांडे के लिए कोई आशा नहीं जगा रहे हैं।
निर्माता साजिद नाडियाडवाला ने जब फिल्म के निर्देशक के रुप में फ़रहाद सामजी का चयन किया था, तब ही ये तय हो गया था कि उन्हें बॉक्स ऑफिस सफलता के लिए बहुत सी तिकड़म लड़ानी होगी। फिल्म की कहानी तेलुगु फिल्म गड्डलकोंडा गणेश से उधार ली गई है। न केवल कहानी बल्कि स्क्रीनप्ले और दृश्य भी जस की तस उठाकर कॉपी-पेस्ट मार दिए गए हैं।
मुंबई की एक असिस्टेंट फिल्म निर्देशक माइरा उत्तरप्रदेश के खूंखार गैंगस्टर बच्चन पांडे पर फिल्म बनाना चाहती है। इसके लिए वह अपने दोस्त विशु की मदद लेकर उत्तरप्रदेश पहुँच जाती है। यहाँ उसे पता चलता है कि जिस गैंगस्टर पर वह फिल्म बनाने का सपना देख रही है, वह पूरा होना मुश्किल है क्योंकि बच्चन पांडे बात-बात में हत्याएं कर देता है।
मूल तेलुगु फिल्म गड्डलकोंडा गणेश एक दक्षिण कोरियाई फिल्म डर्टी कार्निवल का भारतीय रुपांतरण है। इस रुपांतरण को निर्देशक फरहाद सामजी ने हिन्दी पट्टी के अनुकूल बनाने का प्रयास किया है। निर्देशक फिल्म बनाने को लेकर बहुत सी गलतियां कर गए हैं। सबसे बड़ी गलती है फिल्म की लंबाई। इस कहानी के लिए ढाई घंटे का समय बहुत अधिक था। दूसरी गलती फिल्म की सेंट्रल थीम में भटक जाने की रही।
निर्देशक तय नहीं कर पाए कि उन्हें बच्चन पांडे को लेकर एक गैंगस्टर फिल्म बनानी है या एक कॉमेडी फिल्म। फर्स्ट हॉफ बिखरा सा लगता है। निर्देशक ने कलाकारों को स्थापित करने में बहुत समय ले लिया। इतनी देर में तो दर्शक की रुचि ही जाती रहती है। फिल्म मिस्कास्टिंग का भी शिकार हो गई है। अक्षय कुमार और कृति सेनन को छोड़ अधिकांश कलाकार ठूंसे हुए लगते हैं।
जैकलीन फर्नांडीज वाला ट्रेक नितांत अप्रभावी सिद्ध होता है। उनकी जगह किसी और अच्छी अभिनेत्री को लिया जाना था क्योंकि इस किरदार में सशक्त अभिनय की आवश्यकता थी। अरशद वारसी और पंकज त्रिपाठी की अभिनय प्रतिभा का सही उपयोग निर्देशक फरहाद सामजी कर ही नहीं पाए। पंकज त्रिपाठी का किरदार हल्के ढंग से लिखा गया था। एक और कमी बहुत अखरती है और वह है एक दमदार विलेन।
फिल्म में एक भी दमदार विलेन नहीं है। जब तक ऐसी फिल्मों में एक सशक्त खलनायक नहीं होता, तब तक नायक का व्यक्तित्व भी निखर कर नहीं आ पाता है। अक्षय कुमार ही फिल्म में अंत तक छाए रहते हैं। उन्होंने अपनी भूमिका समर्पण के साथ निभाई है। एक अक्षय ही हैं, जिनके कारण दर्शक अंत तक एंगेज रहता है। हालांकि अक्षय कुमार सिर्फ अपने अभिनय के दम पर फिल्म को नहीं खींच सके।
दूसरे हॉफ में फिल्म थोड़ी-बहुत रंग में आती है। विशेष रुप से क्लाइमैक्स एक सकारात्मक संदेश भी देता है लेकिन निर्देशक तब तक इतनी गलतियां कर चुका होता है कि दर्शक पर समग्र प्रभाव सकारात्मक नहीं पड़ पाता। साजिद नाडियाडवाला के लिए फिल्म रिलीज करने का ये सही समय नहीं था। इस समय बॉक्स ऑफिस पर कश्मीर फाइल्स का तूफ़ान चल रहा है और इसके जल्दी शांत होने की कोई संभावना नहीं दिखाई देती।
अक्षय की फिल्म के लिए बस एक सप्ताह का समय है। इसके बाद राजामौली की आर आर आर के अंधड़ में बच्चन पांडे के खो जाने की पूर्ण आशंका है। कुल मिलाकर ये एक एवरेज सी फिल्म है। इसमें कहीं-कहीं दर्शक को मनोरंजन मिलता है। एक्शन के नाम पर दो तीन दृश्य ही दिखाए गए हैं। निर्देशक ने अक्षय की एक्शन छवि का लाभ नहीं उठाया। अब अक्षय कुमार को आत्ममंथन करना होगा।
उन्हें सोचना होगा कि साल में पांच फ़िल्में देने से वे न केवल ओवर एक्सपोज हो रहे हैं, बल्कि उनके प्रशंसकों और फिल्म वितरकों का भरोसा भी उन पर से उठता जा रहा है।