
बचपन का प्यार एक दशक पूर्व के सांस्कृतिक आतंक का भयंकर परिणाम है
विपुल रेगे। आज से छह माह पूर्व केंद्र सरकार ने ओटीटी व सोशल मीडिया पर आ रहे आपत्तिजनक कंटेंट पर नियंत्रण के लिए कानून न बनाकर दिशा-निर्देश बनाने की घोषणा की थी। 25 फरवरी 2021 को तत्कालीन सूचना व प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने इस दावे के साथ घोषणा की थी कि वे आपत्तिजनक कंटेंट नियंत्रण में ला देंगे। हालांकि ऐसा कुछ न हुआ, अपितु ओटीटी पर गंदगी के समंदर में और बड़ी लहरें उठने लगी हैं। नए मंत्री अनुराग ठाकुर को आए एक माह से अधिक हो चला है किन्तु ऐसे आसार हैं कि वे प्रकाश जावड़ेकर द्वितीय होने जा रहे हैं।
नए सूचना व प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर को स्मरण करवाना आवश्यक है कि ओटीटी के लिए सरकार की गाइडलाइंस क्या थी। यहाँ दर्शकों की आयु के अनुसार कंटेंट के वर्ग बनाए जाने वाले थे। डिजिटल प्लेटफॉर्म पर पैरेंटल लॉक की सुविधा देनी होगी। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स को सेल्फ रेगुलेशन बॉडी बनानी होगी, इत्यादि-इत्यादि।
नए मंत्री जी को देखना चाहिए कि कानून न लाकर दिशा-निर्देशों को लाने के क्या परिणाम हुए हैं। क्या एकता कपूर का ऑल्ट बालाजी अब धार्मिक फ़िल्में बनाने लगा है या हर दूसरी वेब सीरीज में दिखाए जाने वाले पोर्ननुमा दृश्यों पर रोक लगा दी गई है। सरकार ने ओटीटी को तो सेल्फ रेगुलेशन पर छोड़ दिया लेकिन फेसबुक, ट्वीटर और व्हाट्सएप्प को न्यायालय में खींच लाई।
वहां सरकार आक्रामक हुई, क्योंकि सरकार की छवि खराब करने की कोशिश की गई थी किन्तु ओटीटी पर उसका रवैया बहुत ही लचर दिखाई दिया। सरकार को देश के सांस्कृतिक स्वास्थ्य की चिंता नहीं हुई लेकिन अपनी छवि खराब होने की चिंता अवश्य हुई। तो इससे क्या सिद्ध होता है ? कि अब हमें अपने सांस्कृतिक स्वास्थ्य की चिंता स्वयं करनी होगी। विज्ञापन जगत पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रह गया है।
सख्त निर्देशों के बावजूद कंडोम के विज्ञापन रात्रि के बजाय ब्रम्ह मुहूर्त में दिखाए जा रहे हैं। यदि अनुराग ठाकुर वह काम नहीं करते, जिसके लिए उन्हें लाया गया है तो नागरिकों के बीच उनकी छवि का कचूमर निकलना तय है। विगत दो वर्षों से नागरिकों ने फिल्म उद्योग के विरुद्ध एक अनाम सत्याग्रह छेड़ दिया है। वे कोई फिल्म हिट नहीं होने दे रहे हैं। इससे समझा जा सकता है कि भारतीय जनता के लिए बॉलीवुड दुखती रग बन चुका है।
ऐसे में केंद्र की ओर से छह वर्ष का मौन अब नागरिकों से सहा नहीं जा रहा है। जब पश्चिम इस बात को समझ गया कि फिल्मों और विज्ञापनों की गंदगी उनके बच्चों को असमय वयस्क बनाए दे रही है तो विश्व गुरु भारत ये बात समझने के लिए तैयार क्यों नहीं है। वह अपने बच्चों को सांस्कृतिक आतंकवाद से बचाना क्यों नहीं चाहता। सूचना व प्रसारण मंत्री को एक उदाहरण देना चाहता हूँ, इससे कदाचित उनको बात समझ में आ जाएगी।
पिछले दिनों एक घटिया से गीत ‘बचपन का प्यार मेरा भूल नहीं जाना’ ने देश में बहुत उधम मचाया। संगीत उद्योग के कुछ लोगों ने इस गीत को और हवा दी। ये गीत देश के टीनएजर्स में लोकप्रिय हो गया। ठाकुर साहब जानते हैं क्यों, क्योंकि संगीत उद्योग और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने इस गीत पर आधिकारिक मोहर लगा दी। इसके बाद क्या हुआ ये भी सुनिए। इस स्वाधीनता दिवस पर एनसीसी के कैडेट्स ने उस भौंडे गीत पर परेड की।
सांस्कृतिक आतंकवाद के धमाकों में आवाज़ नहीं होती। उसके बारुद से महक भी नहीं निकलती। उसका प्रभाव भी तुरंत नहीं होता। ये किसी एटामिक चेन रिएक्शन की तरह चलता है। आज हुए हमले का प्रभाव एक दशक बाद दिखाई और सुनाई देता है। बचपन का प्यार एक दशक पूर्व के सांस्कृतिक आतंक का भयंकर परिणाम है। आज के हमलों का परिणाम जब देश के सम्मुख होगा तो आप देख नहीं सकेंगे।
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