विपुल रेगे। महाराष्ट्र के औरंगाबाद और उस्मानाबाद जिलों का नाम बदल दिया गया है। इस घोषणा से भाजपा और उसके समर्थकों में उल्लास का वातावरण बन गया है। शिंदे सरकार द्वारा दिए गए प्रस्ताव पर केंद्र ने बिजली की तेज़ी से स्वीकृति दे दी है। लंबे समय से चली आ रही मांग अंततः पूरी हो गई। औरंगाबाद और उस्मानाबाद जिलों का नाम बदलने का इतिहास बड़ा रोचक है। नाम बदलने की ये मांग भाजपा से अधिक शिवसेना उठाती रही है लेकिन बदले हुए सत्तात्मक समय में भाजपा और केंद्र सरकार इसका श्रेय लेने के लिए उतर आई है। इस खेल को समझना है तो इसका इतिहास समझना आवश्यक है।
औरंगाबाद और उस्मानाबाद का नाम बदलने की मांग आज से नहीं बल्कि कई वर्षों से की जा रही है। शुरु से ही अविभाजित शिवसेना नाम बदलने की मांग उठाती रही लेकिन मांग कभी पूरी नहीं की गई। सन 2014 में देवेंद्र फडणवीस ने महाराष्ट्र के अठारहवें मुख्यमंत्री की शपथ ली थी। उनके कार्यकाल में ही सहयोगी दल शिवसेना ने जिलों के नाम बदलने की मांग उठाई थी। सन 2018 में जब योगी सरकार ने उत्तरप्रदेश के फैज़ाबाद और इलाहाबाद के नाम बदलने की घोषणा की तो महाराष्ट्र में भी माहौल बनने लगा था।
इसके बाद शिवसेना ने औरंगाबाद और उस्मानाबाद की मांग मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के सामने उठाई थी। शिवसेना नेता मनीषा कयांडे और शिवसेना सांसद संजय राउत ने 2018 में ये मांग की थी। तत्कालीन देवेंद्र फडणवीस कैबिनेट में उद्योग मंत्री सुभाष देसाई ने उस समय फडणवीस को कहा कि औरंगाबाद और उस्मानाबाद का नाम बदलने की शिवसेना की मांग तो और भी पुरानी है। शिवसेना के मंत्री उस समय प्रस्ताव के साथ दिल्ली जाने के लिए भी तैयार हो गए थे। देसाई के अनुसार सन 1995 में शिवसेना-भाजपा की सरकार बनने पर ये मांग उठाई गई थी।
इतिहास की तह में जाए तो ये मांग सन 1988 से की जा रही थी। हालाँकि फडणवीस ने शिवसेना को आश्वासन दिया कि हम सब मिलकर इस संबंध में प्रयास करेंगे। इसके बाद भी प्रस्ताव दिल्ली नहीं भेजा गया, जबकि केंद्र में मोदी सरकार बैठी हुई थी। ये एक बड़ा सवाल है कि उस समय देवेंद्र फडणवीस ने शिवसेना की मांग को लेकर केंद्र से बात नहीं की और न ही इस सन्दर्भ में उनके किये प्रयास कभी जनता के सामने आए। औरंगाबाद का नाम संभाजी नगर और उस्मानाबाद का नाम धाराशिव रखने की मांग को लेकर शिवसेना कहती आई है कि कांग्रेस और एनसीपी के कारण नाम नहीं बदले जा सके। शिवसेना इसका कारण महाराष्ट्र के मुस्लिम मतदाताओं को भी बताती है।
हालाँकि 2014 में भाजपा के साथ सरकार बनाने के बावजूद शिवसेना अपनी मांग को केंद्र तक नहीं पहुंचा सकी थी, ये क्या कम आश्चर्य की बात है। शिवसेना की ये मांग बाला साहेब ठाकरे की मांग थी लेकिन फडणवीस सरकार ने उस समय मांग पूरी नहीं होने दी। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए उद्धव ठाकरे के सामने यही दिक्कत थी कि कांग्रेस और एनसीपी इसके लिए तैयार नहीं होते। सत्ता के अंतिम दिनों में उन्होंने औरंगाबाद और उस्मानाबाद का नाम बदलने का प्रस्ताव दिया लेकिन तब तक सरकार अल्पमत में आ चुकी थी और प्रस्ताव तकनीकी रुप से विचार योग्य नहीं था।
बदले हुए समय में जिलों का नाम बदलने के लिए वर्षों की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। केंद्र ने देर से ही सही एकनाथ शिंदे सरकार की मांग पर मोहर लगा दी। बाला साहेब ठाकरे की पैंतीस वर्ष पुरानी इच्छा यदि कांग्रेस और एनसीपी के कारण पूरी नहीं हुई तो 2014 के बाद बीते नौ सालों में भाजपा ने पूरी नहीं होने दी। इस घटनाक्रम से समझा जा सकता है कि महाराष्ट्र में सैकड़ों वर्षों से पूज्यनीय क्षत्रपों को सम्मान देने के लिए पैंतीस वर्ष का समय लगता है और इनमे से दस वर्ष एक कथित हिंदूवादी सरकार को लग जाते हैं। कछुए की पीठ पर सवार हैं हमारे राजनीतिक निर्णय।
सिर्फ महाराष्ट्र ही क्यों, जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने अहमदाबाद का नाम बदलकर कर्णावती करने का प्रस्ताव राज्य में पास कर केंद्र के पास भेजा था। उस समय सेकुलर मिज़ाज वाली मनमोहन सरकार ने इसे आगे नहीं बढ़ाया। आज नरेंद्र मोदी स्वयं देश के प्रधानमंत्री हैं लेकिन कर्णावती की फ़ाइल अब भी अटकी पड़ी है। बीते नौ साल में एक बार सन 2018 में गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी ने कहा था कि सरकार अहमदाबाद का नाम बदलने पर विचार कर रही है।
बाद में रुपाणी मुख्यमंत्री नहीं रहे और उनका विचार, विचार बनकर ही रह गया। जब महाराष्ट्र में नाम बदल दिया है तो केंद्र सरकार को इतनी ही बिजली की गति से अहमदाबाद का नाम बदल देना चाहिए और गर्व से उसका श्रेय भी लेना चाहिए। राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने 2017 में केंद्र से नाम बदलने की मांग की थी।