शंकर शरण। बी.बी.सी. को ‘गोरे, क्रिश्चियन’, ‘नस्लवादी’, आदि कहकर दोषी दिखाने का प्रयास इसलिए भी निष्फल रहेगा, क्योंकि उस का वही रुख ट्रंप के अमेरिका, पूतिन के रूस, ओबन के हंगरी, आदि के लिए भी रहा है। वे सभी गोरे क्रिश्चियन ही हैं।… ऐसे कृत्रिम दोषारोपण करके निकलने का उपाय हिन्दुओ के लिए विशेष लज्जास्पद है क्योंकि उन की क्लासिक धर्मशिक्षा सत्य पर दृढ़ रहना सिखाती है। उस ठोस आधार को छोड़ कर क्षुद्र प्रपंच, पार्टीबंदी, छाती पीटना, आदि अत्यंत दुखद है।
एक डॉक्यूमेंटरी बनाने पर बी.बी.सी. से नाराजगी जताना भारत के लिए सम्मान की बात नहीं। वह एक विश्व-प्रतिष्ठित, पुरानी समाचार-सेवा है। उसे प्रतिबंधित करने से उस में कही किसी गलत बात को भी अनायास प्रमाणिकता-सी मिल गई। उसे पूरी दुनिया में कई गुने लोगों द्वारा देखा गया! तब यह अपनी ही हानि कराने वाली कैसी बुद्धि है?
मानक पत्रकारिता/लेखन के लिए तो किसी समाचार या लेखन में कोई गलती प्रमाणिकरूप से दिखा देना अधिक बड़ी चोट होती है। संबंधित लेखक-पत्रकार या समाचार चैनल की प्रतिष्ठा को बट्टा लगता है। हाल में दिखा भी कि शाहीनबाग प्रसंग में किसी गलत रिपोर्ट और चित्र में गलत पहचान देने पर दो-एक बड़े विदेशी वेबसाइटों को सुधार करना पड़ा। अफसोस भी जताना पड़ा। बी।बी।सी। जैसे प्रतिष्ठित चैनल के लिए भी यह हो सकता, यदि हम उस की डॉक्यूमेंटरी के दोष दिखाते।
दूसरी ओर, बीस वर्ष हो गए, स्वयं भारतीय समाचार चैनलों, जैसे दूरदर्शन आदि ने गुजरात की घटनाओं पर अपनी, और सही डॉक्यूमेंटरी आज तक क्यों नहीं बनाई? एक श्वेत-पत्र तक जारी नहीं किया। यहाँ तक कि मधु किश्वर, निकोल एल्फी, मन्मथ देशपांडे, जैसे स्वतंत्र पत्रकारों ने परिश्रम पूर्वक जो तथ्य एकत्र कर प्रकाशित किए, उसे भी प्रसारित, पुरस्कृत नहीं किया गया। यदि इन के शोध को भी हमारे नेताओं ने देश-विदेश में प्रचार तथा सम्मान दिया होता, तो गुजरात संबंधी एक वैकल्पिक प्रस्तुति भी सब के सामने होती।
लेकिन हमारे संगठनवादी राष्ट्रवादी उस सेक्यूलर-वामपंथी विमर्श का ही अंग बन कर सम्मानित होना चाहते हैं! फलतः उन्होंने गुजरात मामले में हिन्दू पक्ष पर चुप्पी रखी। तब यह क्या बात हुई कि आप किसी मामले पर जो भीरु रुख रखें, वही सब को रखनी चाहिए! ऐसी बचकानी प्रवृत्ति से कोई सम्मान नहीं मिलता। यही नहीं, जिस तरह यहाँ लोग आधिकारिक रूप से और सोशल मीडिया पर बी.बी.सी. पर टूट पड़े, वही वे अल जजीरा या मु्स्लिम देशों की समाचार सेवाओं पर नहीं करते, जब वे भारत के बारे में झूठी, भड़काऊ बातें फैलाते हैं। ऐसी दोहरेपन या चुप्पी से हमारी क्या छवि बनती है?
बी.बी.सी. पर ‘ब्रिटिश औपनिवेशिक’, ‘भारत-विरोधी’, या ‘गोरी नस्लवादी मानसिकता’, आदि के आरोप लगाना भी फूहड़ है। यह सौ साल पहले वाली भावनाओं का आज की स्थिति पर मिथ्यारोपण है। इस से असली बात भी छिपाई जाती है। सर्वप्रथम, बी।बी।सी। ने जो बातें कही होंगी, वह हमारे देश के ही सैकड़ों बड़े पत्रकार, लेखक, और नेता भी कहते रहे हैं। चाहे इस में राजनीतिक चालबाजी या वैचारिक मतभेद, जो भी रहे हों। दूसरे, बी।बी।सी। को ‘भारत-विरोधी’ कहना भी गलत है। क्योंकि वह भारत के ही मुस्लिमों और सेक्यूलर-वामपंथियों के पक्ष में बोलता रहा है। यानी, उस की वितृष्णा या बदगुमानी भारत के हिन्दुओं और कथित हिन्दूवादियों के प्रति है। यह असलियत छिपाकर मिथ्या प्रचार करने से मिथ्याचारी को ही बट्टा लगेगा। ब्रिटिश संस्थाओं पर ‘औपनिवेशिक मानसिकता’ के तोतारटंत आरोप लगाने में वाग्-वीरों को जो आत्मसुख मिलता हो, इस से उन के शत्रुओं को कोई हानि नहीं होती। जब तक देशी/विदेशी हिन्दू-विरोध को सही नाम से नहीं पुकारा जाएगा, असली समस्या बनी रहेगी।
वस्तुतः स्थिति और विकट है। दशकों से हाल यह है कि हिन्दू समाज के विरुद्ध झूठे आरोप और मुस्लिम-परस्ती मजे से चलती है। किसी घटना, परिघटना पर दुष्प्रचार की वास्तविकता बताने पर भी नोटिस नहीं लिया जाता। सेक्यूलरिज्म, मल्टी-कल्चरिज्म, एक्विटी, आदि नाम पर उसी को राजनीति-संगत माना जाता है। किन्तु यदि हिन्दुओं, या अपने को अधिक होशियार समझने वाले जिसे ‘राष्ट्रवादी’ पक्ष कहते हैं, उस की ओर से भी यदि झूठे आरोपों की तकनीक का सहारा लिया जाएगा, तो उस का झूठ तार-तार चिंदी करके चौतरफा हँसी उड़ाई जाएगी। किन्तु हमारे राष्ट्रवादी अपनी संख्या, और सत्ता के घमंड में सोचते हैं कि वे भी अनर्गल ‘प्रचार’ से लाभ उठा सकते हैं, या विरोधियों पर रौब गाँठ सकते हैं। इसीलिए वे भी मनमाने आरोप और मिथ्याडंबर का सहारा लेते हैं। यह भूल कर कि विश्व में जो सुविधा इस्लामियों, वामपंथियों को मिली हुई है, वह उन्हें नहीं है। अपने लिए सम्मान पाने के लिए आवश्यक कदम, सरल कदम भी, उठाने के बजाए वे तरह-तरह के नाटक, आडंबर, और धन-सत्ता के दुरुपयोग पर भरोसा करते हैं। बार-बार चोट खाकर भी नहीं सीखते। यह अपनी नासमझी है। जिस के लिए बाहरी लोगों पर रोष जताना, छाती ठोकना या पीटना व्यर्थ है। वैचारिक युद्ध जीतने का सही प्रयास करने के बदले दूसरो को कोसते रहना दीन प्रदर्शन है। इस से देशी वामंपथियों या विदेशियों की गलत बातों को भी उल्टे प्रतिष्ठा मिल जाती है।
बी.बी.सी. को ‘गोरे, क्रिश्चियन’, ‘नस्लवादी’, आदि कहकर दोषी दिखाने का प्रयास इसलिए भी निष्फल रहेगा, क्योंकि उस का वही रुख ट्रंप के अमेरिका, पूतिन के रूस, ओबन के हंगरी, आदि के लिए भी रहा है। वे सभी गोरे क्रिश्चियन ही हैं। सो पुराने युग के आरोप आज लादने की कोशिश अपनी ही हेठी और हार सुनिश्चित करना है। इसलिए भी, क्योंकि बी.बी.सी. के सूचना-स्त्रोत या पत्रकार तक स्वयं भारत के ही प्रतिष्ठित हिन्दू, मुस्लिम, वामपंथी हैं। अतः नस्लवादी, उपनिवेशवादी, आदि आरोप हर तरह से गलत हैं।
ऐसे कृत्रिम दोषारोपण करके निकलने का उपाय हिन्दुओ के लिए विशेष लज्जास्पद है क्योंकि उन की क्लासिक धर्मशिक्षा सत्य पर दृढ़ रहना सिखाती है। उस ठोस आधार को छोड़ कर क्षुद्र प्रपंच, पार्टीबंदी, छाती पीटना, आदि अत्यंत दुखद है। गुजरात, या कश्मीर में जो-जो हुआ, वह सब पूरी तरह बेलाग कहकर, दिखा कर जीतने की, और दुनिया के लोगों के एक अंश की भी सहानुभूति पाने की संभावना अधिक पक्की थी। उसे भुला कर बचकानी कूटनीतियाँ, बनाव-छिपाव हिन्दुओं की और दुर्गति कराता है।
असली लड़ाई वैचारिक है, जो भारत के अंदर और बाहर एक रूप में है। इस से कतराकर नकली बातों से जीतने की कोशिशें दयनीय हैं। संगठनवादी राष्ट्रवादियो ने अयोध्या आंदोलन से भी सबक नहीं सीखा। उस में भी वे बरसों तक इस्लाम के बारे में झूठी-मीठी बातें बोलकर मुस्लिम पक्ष को जीतने की व्यर्थ कोशिशें करते रहे। इस के लिए मथुरा, काशी को मनमाने स्वयं छोड़ कर ‘केवल एक स्थान दे दो’ की दयनीय उदारता दिखा खुद खुश होते रहे। पर अंततः सीताराम गोयल, अरुण शौरी, कूनराड एल्स्ट, और वॉयस ऑफ इंडिया स्कूल के विद्वानों का सत्यनिष्ठ परिश्रम ही रंग लाया। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने केवल शोध-प्रमाणों के आधार पर ही अयोध्या के विवादित स्थल पर हिन्दुओं का अधिकार माना, जिसे फिर सुप्रीम कोर्ट ने पुष्ट किया। संघ-परिवार की तमाम विचित्र बयानियाँ, जैसे ‘विदेशी बाबर,देशी राम’ या ‘इस्लाम में दूसरों के स्थान पर नमाज की मनाही है’ जैसी मनगढ़ंत बातें रंच मात्र काम न आईं। बल्कि उस ने भारी हानि की और मामला बिगाड़ा। सत्यनिष्ठा ने उसे जल्द और शान्ति से सुलझा लिया होता।
यही स्थिति यहाँ हर उस मामले में है, जहाँ हिन्दू हित और इस्लामी मनोवृत्ति उलझते हैं। संगठनवादी राष्ट्रवादी मन ही मन आसान उपाय के पुए पकाते रहते हैं। जिस का भारी दंड हिन्दू समाज को भरना पड़ता है। भौतिक हानि और अपमान, दोनों रूपों में। किन्तु संगठन और सत्ता के दंभ में डूबे नेतागण हिन्दू समाज के हित को मनमाने, उदारतापूर्वक दाँव पर लगा-लगाकर अपनी छवि और सुविधा के मंसूबे पालते रहते हैं। गुजरात से लेकर कश्मीर, और पाकिस्तान से लेकर बंगलादेश और अरब देशों में हिन्दुओं की दुर्दशा या अपमानजनक स्थिति पर कभी एक बयान तक नहीं देते।
तब बाहर के लोगों पर क्या रंज होना, जिन्हें एकतरफा या गलत सूचनाएं हमारे देश के ही लोग देते हैं। विडंबना यह कि वही नेता उन्हीं सूचनादाताओं को बार-बार राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजते हैं! मधु किश्वर के बदले कुलदीप नैयर को, सीताराम गोयल के बदले मौलाना वहीदुद्दीन को सिर-आँखों बिठाते हैं। पर याद रहे, बी।बी।सी। जैसे विेदेशी संस्थान गुजरात या कश्मीर पर ठीक उन्हीं बातों को प्रसारित करते रहे हैं, जो देसी कुलदीप नैयर की थीं। फिर किस बात की नाराजगी!
What are the accusations made against BBC in the article?
How does the article view the use of false accusations and propaganda in discussions about Hindu-Muslim relations?
What criticism does the article have for nationalist organizations in India?
How does the article describe the consequences of the actions taken by nationalist organizations?