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India Speaks Daily > Blog > राजनीतिक विचारधारा > पंचमक्कारवाद > विषैले राजनीतिक विचारों के प्रचार में चलाया जाता रहा है उच्च शिक्षा के लिए दिया जाने वाला बजट !
पंचमक्कारवाद

विषैले राजनीतिक विचारों के प्रचार में चलाया जाता रहा है उच्च शिक्षा के लिए दिया जाने वाला बजट !

Courtesy Desk
Last updated: 2022/09/05 at 4:44 PM
By Courtesy Desk 252 Views 7 Min Read
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7 Min Read
India Speaks Daily - ISD News
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मानव संसाधन मंत्री ने बताया है कि नई शिक्षा नीति बनाने के लिए नई समिति बनाई जाएगी, लेकिन नई नीति बनाने के लिए यह समीक्षा जरूरी है कि पिछले शिक्षा दस्तावेजों, सिफारिशों का क्या हुआ? उनका आद्योपांत विश्लेषण होना चाहिए ताकि विगत साठ वर्षों का अच्छा-बुरा, सकारात्मक-नकारात्मक, उपयोगी और बेकार की पहचान करने में मदद मिले। अच्छे उद्देश्य पूरे क्यों नहीं हुए, बुरे उद्देश्य जैसे शिक्षा का राजनीतिकरण दस्तावेजों में कैसे घुस आए? शिक्षा में सरकार की और समाज की भूमिका क्या और कितनी हो? शिक्षा और रोजगार के बीच बन गए अभिन्न संबंध को कैसे लेना चाहिए? क्या शिक्षा की परिभाषा बदल देने का समय आ गया है? शिक्षा का बुनियादी उद्देश्य क्या होना चाहिए? देश में शुद्ध ज्ञान, स्वतंत्र चिंतन को बढ़ावा देने यानी सांस्कृतिक उत्थान के लिए क्या किया जाना चाहिए? क्या भारतीय भाषाओं के सहज विकास के लिए कुछ किया जा सकता है? ऐसे अनेक बुनियादी प्रश्नों को पूरी गंभीरता से लेना आवश्यक है। तभी कोई नया दस्तावेज या पाठ्यचर्या आदि बने। उसे ऐसा कचरा नहीं होना चाहिए जिसमें असंबद्ध विचार अथवा रंग-बिरंगी, अटपटी, अंतर्विरोधी परिकल्पनाएं भरी मिलें। अत: नई नीति का नयापन केवल औपचारिक न रहे, वह वास्तविक रूप से प्रेरक बने। हम न तकनीक-व्यापार में दुनिया से पीछे रहें, न स्वतंत्र बौद्धिक चिंतन में। अपनी ज्ञान-संस्कृति की अनमोल थाती हमें भूलनी नहीं चाहिए। सदियों से भारत की मुख्य गौरवशाली पहचान यही थी। उसे पुन: स्थापित करना सरल कार्य नहीं है, किंतु इससे कतराना भी शोभनीय नहीं होगा।

यह सब हो सके, इसके लिए देश की शिक्षा प्रणाली में सोवियत-नेहरूवादी मॉडल की जमी बीमारियां पहचाननी और दूर करनी जरूरी हैं। यह बीमारी सर्वप्रथम इस मान्यता में है कि सब कुछ सरकार करेगी। फिर इसमें कि किसी वैज्ञानिक, प्रगतिशील, राजनीतिक विचारधारा को फैलाना शिक्षा नीति का पुनीत उद्देश्य है। साथ ही इस तरीके में कि विशेष विचारों में पगे लोगों को ही महत्वपूर्ण भार देना चाहिए। अंतत: इस बात में कि घोषित कार्यों को पूरा करने तथा उनका मूल्यांकन करने में कागजी खानापूरी ही पर्याप्त है। अब तक प्राय: स्वयं अपनी पीठ थपथपा कर कागजी उपलब्धियां गिनाकर और आपस में एक-दूसरे को सम्मान, शाबासी, पुरस्कार आदि देकर शिक्षा में विकास का आश्वासन दिया जाता रहा है। इस रोग को पहचानना और दूर करना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि गैरकांग्रेसी, गैरवामपंथी लोगों में भी ये रोग भर चुके हैं। यदि सावधानी न बरती गई तो रोग नए कलेवर में बना रह जा सकता है। अत: नकली शिक्षाशास्त्रियों, कामों, प्रवृत्तियों की पहचान कर उन्हें नमस्कार करना जरूरी है। विगत दशकों में जिन्हें शिक्षाविद् मानकर शिक्षा दस्तावेज बनाने से लेकर सरकारी संस्थाएं चलाने, पाठ्यचर्या और पाठ्य पुस्तकें तैयार करवाने आदि कार्य दिए जाते रहे हैं वे अधिकांश सुयोग्य नहीं रहे हैं। उनमें कई तो सोवियत-नेहरूवादी रोग से ग्रस्त राजनीतिक प्रचारक मात्र थे जो अपनी ही खामख्यालियों को शिक्षा की चिंता मानते थे। इस क्रम में ठीक पिछला संस्करण एक ऐसे कथित शिक्षाशास्त्री के हाथों संचालित हुआ जो जल्द ही आम आदमी पार्टी के एक बड़े कर्णधार बने और चार कदम भी सधे पैर नहीं चल सके। उनके द्वारा बनवाई गई समाज विज्ञान पाठ्य पुस्तकों में जो विध्वंस किया गया है वह किसी सच्चे जानकार के लिए कल्पनातीत होगा। हमारा वैचारिक राजनीतिक स्तर इतना गिर चुका है कि हम शैक्षिक विध्वंस को पहचानने योग्य भी नहीं बचे हैं। इसकी परख होनी चाहिए और राजनीतिक एक्टिविस्टों को शिक्षाशास्त्री मानने की भूल दोहराई नहीं जानी चाहिए।

सोवियत युग का रूसी अनुभव था कि प्रतिभावान छात्र विज्ञान की ओर चले जाते थे, साहित्य, इतिहास, दर्शन आदि की ओर नहीं। इन विषयों में पार्टी नियंत्रण था और इसीलिए प्रतिभाओं के विकास का अवसर ही नहीं बचता था। काफी हद तक हमारे देश में भी वही हुआ है। अपनी पीठ स्वयं थपथपाने वाले ‘एमिनेंट हिस्टोरियन’ जैसे वामपंथी लफ्फाजों के अलावा उन विषयों में कुछ दिखाने लायक हमारे पास नहीं है। सामाजिक, मानविकी विषयों में निरा रेगिस्तान फैल गया है। विगत दशकों में शैक्षिक दस्तावेजों, पाठ्यक्रमों, पाठ्य पुस्तकों तथा समाज विज्ञान एवं मानविकी विषयों के अध्ययन-अध्यापन, शोध, विमर्श आदि में विशिष्ट राजनीतिक प्रेरणा, निर्देश, दबाव आदि विभिन्न रूपों में लगातार बढ़ते गए हैं। इनका पूर्ण खात्मा आवश्यक है ताकि शिक्षा, चिंतन, शोध को सचमुच स्वतंत्र बनाया जा सके। यूजीसी, यूपीएससी तथा नेशनल अकादमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन जैसे सभी महत्वपूर्ण प्रशिक्षण संस्थानों के पाठ्य निर्देशों, सामग्रियों की तदनुरूप समीक्षा भी जरूरी है, क्योंकि इन जगहों को भी विचारधारा ग्रस्त बनाया गया है। इसके बिना सोवियत मॉडल मुकम्मल न होता। विशेष प्रकार के लेखक, पुस्तक, पाठ, समस्याओं का चयन या उपेक्षा द्वारा युवा प्रशासकों, नीति-निर्माताओं को उसी राजनीतिक झुकाव में ढालने का खुला और सफल यत्न होता रहा है। उनमें भी सुधार होना चाहिए।

एक जरूरी कार्य यह भी है कि समाज विज्ञान शिक्षा में जारी भारत संबंधी उन तमाम प्रस्थापनाओं की कड़ी विद्वत समीक्षा की जाए जिनसे यहां भेदभाव, दुराव वाली राजनीतियों को बल पहुंचाया जाता रहा है, जैसे आर्य-द्रविड़, ब्राह्मणवाद, अगड़ी-पिछड़ी जातियों का संघर्ष, वर्ग संघर्ष, साम्राच्यवाद विरोध आदि। इनमें से कई अवधारणाएं मुख्यत: काल्पनिक और राजनीतिक हैं जिनका शिक्षा से उतना संबंध नहीं जितना एक भारत विरोधी राजनीति को बल पहुंचाने से। कई विश्वविद्यालय विभागों और उनके सिलेबस आदि के सरसरी परीक्षण से भी यह सरलता से दिख जाता है। इसमें धोखाधड़ी यह भी है कि उच्च शिक्षा के लिए दिए जाने वाले बजट के धन से विषैले राजनीतिक विचारों का प्रचार चलाया जाता रहा है। अत: उनकी कड़ाई से जांच होनी चाहिए और परिणामों को खुले रूप में सबके सामने लाना चाहिए। तदनुरूप जिन प्रस्थापनाओं में मनमानियां, अतिरंजनाएं या निराधार तत्व पाए जाएं उनकी सटीक आलोचनाओं को भी शिक्षा और शोध में उतना ही महत्व देकर बताया जाए। यह देशहित के सबसे जरूरी कार्यों में से एक है।

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(लेखक एस. शंकर, वरिष्ठ स्तंभकार हैं और राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक रहे हैं)

साभार: दैनिक जागरण

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TAGGED: congress conspiracy, Indian education system, NCERT
Courtesy Desk December 21, 2016
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