भगवान विष्णु के चतुर्थ अवतार भगवान नरसिंह देव के प्रकटोत्सव पर सभी सनातनियों को ढेर सारी शुभकामनाएं।
भगवान नरसिंह ने वैशाख माह के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी तिथि पर प्रकट होकर भक्त प्रह्लाद की रक्षा की थी। भगवान नरसिंह ने हिरण्यकश्यपु का वध उसके ही आसन पर बैठ कर किया था और बाद में उसी पर बैठाकर प्रह्लाद का राज्याभिषेक किया था। उसके बाद से ही राजा के आसन का नाम ‘सिंहासन’ पड़ गया। चूंकि आधा नर और आधा सिंह रूप में भगवान प्रकट हुए थे और उन्होंने न्याय किया था, इसलिए राजा का आसन ‘सिंहासन’ कहलाया और वह न्याय का प्रतीक बन गया।
आचार्य चतुरसेन ने लिखा है कि हिरण्यकशिपु का राज्य उत्तर-पश्चिम फारस (ईरान) और वर्तमान अफगानिस्तान पर था, जबकि उसके भाई हिरण्याक्ष का शासन संपूर्ण बेबीलोन पर था। उनके अनुसार, हिरण्यकशिपु का वध सुमना पर्वत पर हुआ था। यह पर्वत काश्यप सागर (आधुनिक कैस्पियन सागर) के निकट है। इसी के पास देमाबंद स्थान है, जिसे ‘ईरानियन स्वर्ग’ कहा गया है।
ज्ञात हो कि काश्यप सागर को ही हमारे पुराणों में में क्षीर सागर कहा गया है, जहां भगवान विष्णु का वास है। इसके पानी का रंग झक दूध जैसा सफेद था, इसलिए इसका नाम क्षीर (दूध) सागर कहलाया। पुराणों में वर्णित देवासुर संग्राम और भगवान विष्णु के हस्तक्षेप से देवताओं की विजय गाथा इस काश्यप सागर के आसपास ही लिखी गई है।
आचार्य बलदेव उपाध्याय ने लिखा है, सुप्रसिद्ध यात्री मार्कोपोलो ने अपने यात्रा वृतांत में ‘शीरवान’ नामक समुद्र की चर्चा की है। फारसी शब्द ‘शीर’ संस्कृत के ‘क्षीर’ शब्द का ही अपभ्रंश है। अर्थात मार्कोपोलो के समय तक भारतीय पुराणों का यह क्षीर सागर अपभ्रंश में ‘शीरवान’ के रूप में लोगों के बीच प्रचलित था।
यही क्षीर सागर आधुनिक कैस्पियन सागर है, जिसे यूरोपियन इतिहासकार भी मानते हैं। यह कैस्पियन शब्द भी काश्यप ऋषि के नाम पर है, जो देवता, दैत्य, दानव, नाग वंश(26 नाग वंश चले), गरुड़ और अरुण सभी के पिता थे।
अब उस क्षेत्र में भगवान नरसिंह देव के नाम पर बनी जातियों का इतिहास देखते हैं। आचार्य चतुरसेन के अनुसार, नृसिंग या नृग के वंशज आज भी ईरान में रहते हैं और नृग्रिटो कहलाते हैं। नृसिंह के सैन्य संचालन के शिलाचित्र और शिलालेख लुलवी और बेबीलोनिया प्रांत में मिले हैं। नृगिटो जाति के लोग काश्यप सागर के उत्तरी तुर्किस्तान से फारस की खाड़ी तक फैले हुए थे।
ईरानी इतिहासकार नृगवंशियों के अधिनायक का नाम ‘नरमसिन’ बताते हैं। वहां ‘नरमसिन’ की अर्धसिंह मूर्ति है। नरमसिन या नरमसिर नरसिंह देव का ही अपभ्रंश है।
नरमसिन एक प्रांत का नाम भी है, जो इस्टखर के निकट परसा प्रांत में है। इस्टखर का तात्पर्य है, खरों का इस्ट अर्थात मूल पुरुष। उनका यह मूल पुरुष कोई और नहीं, बल्कि दैत्य हिरण्यकशिपु ही है। ‘इस्टखर हिरण्यकशिपु’ ने अपने नाम पर ‘इस्टखर’ नाम से दूसरी राजधानी बसाई थी। इस्टखर में इस्तखारी जाति अब भी रहती है।
पूरा अरब इसी मूल पुरुष (दैत्य हिरण्यकशिपु) का वंशज है। दैत्यराज वृषपर्वा आज के इस्लामी देश सीरिया के कभी शासक थे। आज का मिडिल-ईस्ट दैत्यों के वंश का ही विस्तार है।
मूल नरसिंह भगवान पर लौटते हैं। परसिया (आज का ईरान) के प्राचीन इतिहास में नरसिंह के अभियान की चर्चा है, जिसमें कहा गया है कि नरसिंह के नेतृत्व में नृगिट जाति ने दैत्यों के विरुद्ध विजय अभियान चलाया था। इसका पुरातात्विक साक्ष्य भी उपलब्ध है।
नरसिंह देव के इस विजय अभियान का भित्ति चित्र लुलवी प्रांत में बगदाद (इराक) व करमनशाह के मध्यवर्ती देश में मिला है। इस भित्ति चित्र में नरसिंह देव सूर्य का झंडा लिए सैन्य संचालन कर रहे हैं।
अतः देव व असुरों का इतिहास वास्तविक है और १४ देवासुर संग्राम भी वास्तविक हैं, जिसका भौगोलिक व ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध है। बोलो भगवान नरसिंह देव की जय।
नोट:- मैंने यह इतिहास आचार्य चतुरसेन के ‘वयं रक्षाम’, आचार्य बलदेव के ‘पुराण विमर्श’ और पंडित गिरधर शर्मा चतुर्वेदी लिखित ‘पुराण परिशीलन’ के आधार पर लिखी है। धन्यवाद।
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