स्टेशन मास्टर पिता की आत्मा से मिलने के बाद ‘भारत’ अपने जनरल स्टोर से बाहर आता है और एक हथौड़ा उठाकर स्टोर तोड़ना शुरू कर देता है। भारत की अजीबोगरीब जीवन यात्रा का ये क्लाइमैक्स सलमान खान के कॅरियर की दशा प्रकट कर देता है। दो वर्ष से लगातार लचर फ़िल्में देते चले आ रहे सलमान ने अपने हाथों से जर्जर होता नंबर वन का सिंहासन ढहा दिया है। इस लचर फिल्म को बैसाखियों पर खड़ा करना मीडिया की विवशता है क्योंकि सलमान पर करोड़ों का दांव लगा हुआ है। पहले तीन दिन की बम्पर कमाई ख़बरों में दिखाई दे रही है लेकिन असलियत में फिल्म पूरी होने से पहले ही हॉल खाली हुए जा रहे हैं।
दक्षिण कोरियन फिल्म ‘ओड टू माय फादर’ का रीमेक बनाना ऐसा ही है जैसे किसी विदेशी फूल को अपनी धरती पर उगाने की कोशिश करना। वह फिल्म पचास के दशक में कोरिया में हुए बड़े पलायन पर आधारित थी। उस पलायन को निर्देशक अली अब्बास जफ़र ने भारत-पाकिस्तान विभाजन से जोड़ दिया। देसी गमले में उगाया ये विदेशी फूल दर्शक को रास नहीं आया। भारत की ये लम्बी जीवन यात्रा विभाजन से लेकर नब्बे के दशक में उदारीकरण के दौर तक चलती है। सौ करोड़ के मेगा बजट से तैयार फिल्म तकनीकी गलतियों से भरी पड़ी है। जब कोई निर्देशक अपनी फिल्म में भिन्न-भिन्न तीन दशकों को फिल्माता है तो उसे तकनीकी सावधानियां रखनी पड़ती है। विस्तृत शोध करना पड़ता है। निर्देशक का ध्यान अच्छी फिल्म बनाने से अधिक कामयाब फिल्म बनाने पर रहा। इसमें सलमान को ‘बाउंस बैक’ करवाने का प्रयास साफ़ झलकता है।
पाकिस्तान के मीरपुर में रहने वाला भारत विभाजन के दौरान अपने पिता और बहन से बिछड़ जाता है। दिल्ली के रिफ्यूजी कैम्प से उसका नया जीवन शुरू होता है। अपने परिवार के लिए जीना उसका एकमात्र मकसद बन जाता है। निर्देशक ने भारत की जिंदगी के साथ ‘भारत देश’ की तरक्की को जोड़कर दिखाने की कोशिश की है। ये प्रयास सफल होता यदि निर्देशक भारत की प्रेमकथा पर अधिक फोकस न कर उसे वाकई देश के साथ जोड़ता। सलमान की छवि से ऊपर भारत की छवि को न रखना निर्देशक की गंभीर गलती साबित हुई है।
कालखंडों का वर्गीकरण लचर ढंग से किया गया है। मीरपुर से शुरू हुई कहानी में उस दौर के तात्कालिक प्रसंग बचकाने ढंग से दिखाए गए हैं। एक कॉमेडी सीन के साथ अचानक राष्ट्रगान शुरू कर देना निहायत ही शर्मनाक है। इस दृश्य के साथ दर्शकों से अपील नहीं की जाती कि राष्ट्रगान के समय खड़े होकर सम्मान दें। ऐसा आपत्तिजनक दृश्य देश का सेंसर बोर्ड पास कर देता है, ये और भी ज्यादा शर्मनाक है। ऐसा ही देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू की मौत के साथ किया गया है। नेहरू की मौत को एक हास्य दृश्य के साथ जोड़कर दिखाया गया है। सलमान की सफलतम वापसी करवाने के लिए निर्देशक फूहड़ता की हद से गुजर जाता है।
ओड टू माय फादर एक स्तरीय फिल्म थी और भारत उतनी ही फूहड़ और बेजान बनाई गई है। विभाजन के दृश्यों में बड़ी गलतियां हैं। जैसे भारत की ओर से मुस्लिमों की लाशों से भरी कोई ट्रेन पाकिस्तान नहीं पहुंची थी लेकिन पाकिस्तान से जो भी ट्रेन आती, हिंदुओं की कटी-फ़टी लाशों से भरी होती थी। निर्देशक नरसंहार के लिए भारत देश को दोषी ठहराता है। निर्देशक तो ये भी नहीं जानता कि एक विशेष कालखंड की फिल्म के लिए संगीत वैसा ही बनाया जाना चाहिए। 70 का दशक दिखाते हुए आप संगीत इक्कीसवीं सदी का लेकर आते हैं तो दर्शक कालखंड के सम्मोहन में जाता ही नहीं।
फिल्म उद्योग में दो हिट देने के बाद निर्देशक को मुगालता हो जाता है कि वह अपनी मानसिक विष्ठा दर्शको को परोस देगा तो हिट हो जाएगा। सिंगल थिएटरों के देसी दर्शक ने पहले ही दिन ऐसी फूहड़ फिल्म को कसकर लात जमा दी है। सोमवार के बाद से फिल्म का भविष्य खतरे में होगा। अली अब्बास जफर के लिए ये कठोर सबक है कि फिल्म हिट करवाने के लिए आप कुछ भी परोसेंगे तो दर्शक आपकी थाली को लात जमा देगा। इस फिल्म में यदि कुछ अच्छा है तो एक गीत। मीठी-मीठी चाशनी गीत को देखने के लिए थियेटर जाने की जरूरत नहीं है। ये गाना टीवी चैनल पर मुफ्त में देखा जा सकता है।